प्रश्न – फिलहाल तो सर्वत्र कलियुग का विस्तार है – धर्म, नीति व सदाचार का आचरण करना अत्यंत कठिन है । यह सब युग का ही प्रभाव है न ॽ
उत्तर – युग का प्रभाव है यह मानना वैसे तो ठीक है पर आज तो मनुष्य असत्य के मार्ग पर कदम बढ़ाता है और कहता है इसमें हमारा क्या कसूर है ॽ यह सब तो कलियुग का ही प्रभाव है । इसलिए कलियुग की आड में दुष्कर्म करना कहाँ तक उचित है ॽ इस युग में भी मनुष्य ईश्वर-परायण बन सकता है । तप, व्रत आदि कर सकता है । नीति व सदाचार का पालन कर सकता है । यह बात हम आज भी संतपुरुषों एवं नीतिमान पुरुषों से जान सकते हैं । इसलिए प्रधान वस्तु मनुष्य का मन है । उसे सुधारना या बिगाड़ना, यह मनुष्य के हाथ की बात है । मन सुधरता है तो वह सतयुग है और बिगड़ता है तो वह कलियुग हो जाता है ।
प्रश्न – तो फिर मनुष्य ऐसे विरोधी वातावरण में कैसे रहें ॽ
उत्तर – वातावरण विरोधी हो या न हो, मनुष्य को अपना स्वार्थ साध लेना है – तात्पर्य यह कि उसे धर्म व नीति को जीवन में चरितार्थ करके ईश्वर-परायण बनना है । यह कोई कठिन काम नहीं है । मनुष्य मौत का मुकाबला करके शेर जैसे भयानक प्राणियों का शिकार करता है, राक्षस जैसा बनकर युद्ध में लडता है और संसार में रात-दिन दौड-धूप करता है । इसी तरह मनुष्य अपने मन को मारकर पुरुषार्थ करें तो वह नीति परायण होकर आत्मशांति प्राप्त कर सकता है ।
जब हनुमानजी लंका गये तब रावण के महल के नजदीक उन्होंने एक ऐसा महल देखा जिसमें से राम राम की ध्वनि आ रही थी । हनुमानजी को अचरज हुआ कि राक्षसों की इस नगरी में राम की ध्वनि कैसे ॽ महल के बाहर तुलसी क्यारी थी और उसके उपर राम राम लिखा हुआ था । ब्राह्मण का भेष लेकर वे उस महल में गये । तब जाकर हनुमानजी और विभीषण का मिलाप हुआ । हनुमान विभीषण को रामभक्त जानकर प्रसन्न हुए और उन्होंने अपना परिचय दिया । फिर तो क्या कहना !
विभीषण अत्यंत प्रसन्न होकर बोल पडे, ‘मुझ पर कृपा करके रामचंद्रजी ने मुझे अपने भक्त के दर्शन कराये ।’
हनुमानजी ने पूछा, ‘यह तो राक्षसों की नगरी है, आप यहाँ कैसे रह सकते हैं ॽ’
विभीषणने जवाब दिया, ‘बत्तीस दाँतों के बीच में जिस तरह जीभ रहती है, मैं इसी तरह यहाँ पर रहता हूँ ।’
विभीषण के इस उत्तर से हमें सीख लेनी होगी । विभीषण की तरह संसार के विषम वातावरण में हमें सच की राह पर चलकर विकास करना होगा । अगर हमारी निष्ठा सच्ची होगी तो ईश्वर हमारी जरूर सुनेगा और हमें आवश्यक मदद भी करेगा ।
प्रश्न – संत तुलसीदासजी ने ‘रामचरितमानस’ में कलियुग की विशेषता दिखाते हुए कहा है – “मानस पुण्य होहि नहि पापा” अर्थात् कलियुग में मनसे जो पुण्य होता है उसका फल मिलता है परन्तु मनसे होनेवाले पापको नहीं गिना जाता । इसका अर्थ क्या है ॽ
उत्तर – अर्थ स्पष्ट ही है । तुलसीदासजी कहना चाहते हैं कि इस युग में मन से किया जानेवाला पुण्य कर्म फलता है अर्थात् मान लीजिए किसी दीन दुःखी को देखकर यदि आपके मन में दया, करुणा और सेवा की भावना पैदा हो फिर भी उस भावना को चरितार्थ करने की क्षमता या सामग्री आपके पास न हो तो उस भावना का शुभ फल आपको मिलेगा ही किंतु इससे विपरीत मनमें अगर कोई पाप-विचार पैदा हो तो उसका बुरा फल आपको नहीं मिलेगा ।
प्रश्न – इसका मतलब क्या यह नहीं कि मनसे पाप करने की छूट है ॽ
उत्तर – इसका मतलब यह नहीं है । श्रेष्ठ चीज तो वही है कि तनसे तो बुरा कार्य कभी न हो किंतु मन में भी बुरा विचार या भाव न उठे । आचार व विचार दोनों में साम्य हों, दोनों मंगलकारी हों । यदि किसी कारण से आचार-विचार की शुद्धि संभवित न हो और उस परिस्थिति में मन में अशुभ विचार पैदा हो तो उसका आचरण न हो ऐसी शक्ति हासिल करनी है । इतना कार्य हो तो भी बेड़ा पार हो जाय । आज तो समान्यतया मनुष्य की दशा ही ऐसी है कि मन में उत्पन्न विचार कब चरितार्थ हो जाता है उसका पता भी उसे नहीं चलता फिर उस विचार का अनुसंधान करने का या उस पर संयम पाने का प्रश्न ही नहीं पैदा होता ।
- © श्री योगेश्वर (‘ईश्वरदर्शन’)