उत्तम, पावन एवं गंगा के निर्मल अमृतमय प्रवाह-सी गीता का अध्ययन हम क्यों करते हैं ? गीता के स्वर्गीय, संशय दूर करनेवाले एवं शांतिदायक संगीत को सुनने की चेष्टा हम क्यों करते हैं ? क्या हम उसके द्वारा कोई साम्राज्य, स्वर्ग या समृद्धि प्राप्त करना चाहते हैं ? गीता को सुनकर अर्जुन मोह को भस्म करके स्वधर्म का आचरण करने को उद्यत हो गया था । क्या हमें भी उसी तरह किसी अर्जुन को मोह से मुक्त करके स्वधर्म-पालन के लिए तैयार करना है ? इन प्रश्नों को समजने के लिए एक दो अन्य प्रश्न समजना अनुपयुक्त न होगा ।
हम आहार क्यों लेते हैं ? वायु तथा जल का सेवन क्यों करते हैं ? अन्धेरा हो जाने पर घर में प्रतिदिन दीपक क्यों जलाते हैं ? इसलिए कि जीवन के वास्ते उसकी आवश्यकता है । जिस प्रकार शरीर की स्वच्छता एवं स्वास्थ्य के लिए दैनिक स्नान की आवश्यकता है उसी तरह मन की स्वच्छता के लिए उच्च भावों एवं विचारों में स्नान आवश्यक है ।
गीता उत्कृष्ट भावों एवं विचारों का सुन्दर सरोवर है । मानसरोवर के हंस कम मिलते हैं, उसी तरह मानसिक स्नान के रसिये भी विरले ही होते हैं, किन्तु जीवन के लिए उसका बड़ा महत्व है । गीता के अध्ययन में यह स्नान की दृष्टि निहित है । यह मेरे खुद के लिए भी आवश्यक एवं हितकर है, किन्तु इससे किसी दूसरे को भी लाभ पहुंचे तो मुझे इसमें कोई आपत्ति नहीं ।
गीता का मनन समय व्यतीत करने, विद्वत्ता दिखाने या लोकरंजन करके घड़ी दो घड़ी किसी का दिल बहलाने के लिए नहीं है । श्री राम के अनन्य उपासक गोस्वामी तुलसीदास ने अपने प्रसिद्ध ग्रन्थ ‘रामचरितमानस’ की रचना का कारण बताते हुए लिखा है कि अपने अन्तर में छिपे हुए अहंकार को दूर करने के लिए मैंने इसका निर्माण किया है । इस कथन से तुलसीदास जैसे महान सन्त की महानता एवं नम्रता का परिचय मिलता है । इस विनम्रता से ही रामचरितमानस में करोड़ों लोगों के हृदय के अंधकार को दूर करने की शक्ति प्रकट हुई है । जहाँ नम्रता होगी, वहाँ प्रभु का वास होगा ही, तथा जो नम्र होगा उसे प्रभु का आशीर्वाद मिलेगा ।
गीता भी मनुष्य के अपने लाभ एवं सुख के लिए है । गीता की जो भावना हमें प्रिय है उसका पारायण करने से ही सुख मिलेगा । इसी प्रयोजन से हम यह विचारणा कर रहे हैं । इससे हमारा बचाखुचा मोह भी दूर हो जायेगा । सच्चा धर्म हमारी समज में आयेगा, तथा सच्चे जीवन की प्रेरणा मज़बूत एवं पक्की होगी । सुख, संपत्ति, साम्राज्य एवं स्वर्गीय आनन्द फिर से मिलेगा ।
भगवान के कथनानुसार आचरण करने से अर्जुन को धन, संपत्ति, विजय एवं यश आदि सब कुछ मिला । उसी तरह भगवान की भारती रुपी गीता का अध्ययन-मनन करके, उसका जीवन में आचरण करने से, इच्छानुसार सब कुछ प्राप्त हो जायेगा । नदी में स्नान करने से शीतलता स्वयं मिल जाती है तथा दूध के पिने से मिठास मिलती है । उसी तरह समजना चाहिए ।
गीता जैसे महान ग्रन्थ का बार बार अध्ययन करना चाहिये । इस सम्बन्ध में एक लोककथा याद आती है । एक लकड़हारा था जो बहुत गरीब था । एक बार किसी महापुरुष से उसकी भेंट हुई । उसकी दरिद्रता को देखकर उस महापुरुष ने कहा – “जिस जंगल में तू लकड़ियाँ काटने जाता है वहां मत जाना, लेकिन उसी जंगल के भीतर अधिक से अधिक दूर जाना । ऐसा करने से थोड़े ही दिनोंमें तेरी गरीबी दूर हो जायगी और तू धनिक बन जायेगा ।”
इस मामूली उपाय को सुनकर लकड़हारा बहुत खुश हुआ । अगले दिन से वह जंगल के भीतर ही भीतर जाने लगा । अंदर जाते ही उसे देवदार के बृक्ष दिखाई दिए । तब तो उसके हर्ष की सीमा न रही । जितनी लकड़ी काट सका, उतनी काटकर वह नगर में बेचने गया तो उसको बहुत धन मिला ।
दो चार दिन तक तो वह देवदार की लकड़ी ही काटता रहा । फिर उसे याद आया कि महापुरुष ने तो बिना रुके भीतर ही भीतर जाने को कहा था । जब वह और अन्दर गया तो उसने चन्दन के पेड़ देखे । उस दिन उसे और भी अधिक पैसे मिले । इस प्रकार प्रयत्न करते रहने पर उसे जंगल में से ताँबा, चांदी एवं सोने की खानें मिल गईं और माणिक भी उसके हाथ आए । फिर तो उसके भाग्य का कहना ही क्या था । महापुरुष के वचन सत्य हुए और वह लकड़हारा थोड़े ही समय में श्रीमन्त हो गया । किसी वस्तु का अभाव न रहा ।
यह कहानी सच हो या जूठ । वह लकड़हारा श्रीमन्त बना हो या नहीं, किन्तु इस कहानी से जो शिक्षा मिलती है वह अति उपयोगी है । इससे दो प्रकार की शिक्षा मिलती है । एक तो यह की जीवन का जो विकास करना चाहे, उसे जूठ, असन्तोष का सहारा लिए बिना हमेशा आगे ही आगे बढ़ते जाना चाहिए और उसके लिए सतत प्रयत्नशील रहना चाहिए । तभी सच्ची महानता और श्री प्राप्त हो सकती है ।
दूसरी शिक्षा ज्ञान सम्बंधित है । गीता भी ज्ञान की प्रत्यक्ष प्रतिमा है, अतः गीता के सम्बन्ध में भी यह शिक्षा लागू हो सकती है । जिस प्रकार जंगल के भीतर ही भीतर प्रवेश करके लकड़हारे ने धन एवं सुख की प्राप्ति की, उसी प्रकार गीता में अधिक से अधिक प्रवेश करने से मनुष्य को ऐसे कीमती पदार्थों की प्राप्ति होती है, जिसका मूल्य तांबा, चाँदी या सोने से भी अधिक है । उसे आदर्श जीवन के मूल्यवान सत्यों की प्राप्ति होती है । उसे परमशांति, मुक्ति या पूर्णता मिल जाती है, जिसके लिये वह निकला था और ठीक या गलत दिशा में प्रयास भी कर रहा था । जीवन में सफल होने की कुंजी उसके हाथ में आ जाती है और अंत में उसकी सब प्रकार की गरीबी दूर हो जाती है । वह सुखी, समृद्ध और कृतकृत्य हो जाता है ।
संसार में कई लोग धनिक होते हैं, पर सब धनिक धनी नहीं होते और शायद ही एकाध धनी ऐसा मिलें जो अपने आप को पूर्णतः सुखी और धन्य मानता हों । इसके अतिरिक्त गरीबी भी अनेक प्रकार की होती है । जिसके पास धन न हो वही कंगाल है, ऐसा मानने की आवश्यकता नहीं । धन हो, किन्तु अच्छा तन न हो, अथवा तन एवं धन दोनों हों, किंतु यदि उत्तम मन न हो वह आदमी गरीब ही है ।
धन की गरीबी बुरी है इसमें कोई शक नहीं और आधुनिक युग में तो इसका इनकार कर ही नहीं सकते, किन्तु तन एवं मन की गरीबी तो मनुष्य को सबसे अधिक दरिद्र, दुखी, एवं पशु जैसा बना देती है और अफ़सोस की बात है की आज के युग में वह अधिक प्रचलित है । अगर मनुष्य सुखी बनना चाहता है तथा समाज या संसार को सुखी बनाना चाहता है तो उसे इस महत्वपूर्ण और मरण तुल्य बना देने वाली गरीबी से मुक्त होना ही पड़ेगा ।
गीता इसके लिए रामबाण इलाज बताती है, जिसके उपयोग से मनुष्य सुखी, धनिक एवं धन्य बन सकता है । गीता का केवल अध्ययन करने से काम नहीं चलेगा । उसके उपदेशों के अनुरूप आचरण करने की आवश्यकता है, किंतु इससे विचार का महत्व कुछ कम नहीं हो जाता ।
अध्ययन, मनन तथा विचार भी उपयोगी हैं । इनके बिना बर्ताव की प्ररणा कैसे मिल सकती है ? जीवन में जिन सिद्धांतों और नियमों का अनुसरण करना है वे विचार का आश्रय लिए बिना मन में कैसे बैठ सकते है ? बिना मंथन किए मक्खन कैसे निकलेगा ? अतः विचार की आवश्यकता सबसे प्रथम है । उसके बाद ही आचरण किया जा सकता है और यह विचार ही विवेक है, जिसका महत्व ज्ञान के मार्ग में अत्यधिक एवं सर्वप्रथम है । बिना इसके मनुष्य शायद ही आगे बढ़ सकता है ।
- © श्री योगेश्वर