प्रथम अध्याय के प्रारम्भ में धृतराष्ट्र संजय से पूछता है – “ हे संजय ! धर्मभूमि कुरुक्षेत्र में इकठ्ठे हुए युद्ध की इच्छावाले मेरे और पांडु के पुत्रों ने क्या किया ?” देखा आपने, व्यास की लेखनी कितनी कलात्मक है ! श्लोक की दूसरी पंक्ति की ओर भी ध्यान दीजिएगा । धृतराष्ट्र ने कौरवों के लिए मेरे शब्द का प्रयोग किया है । धृतराष्ट्र वृद्ध एवं अन्धे थे । अगर वे स्वार्थ-वृति एवं भेदभाव के कारण भीतर से भी अन्धे न हो गये होते तो क्या कौरव पांडवों के बीच विरोध की इतनी बड़ी खाई खोदी जा सकती थी ?
धृतराष्ट्र तो केवल कौरवों को अपना मानते थे । पांडव उनके लिए पराये थे । इस सम्बन्ध में वे दुर्योधन के समान ही हैं । आश्चर्य तो यह है की उनकी उम्र हुई, उन्होंने संसार के अनेकों अनुभव प्राप्त किये थे, फिर भी अभी तक भेदभाव दूर न हुआ और न समदृष्टि प्राप्त हुई । व्यासजी कौरव पक्ष के प्रतिनिधियों की मनोवृत्ति की ओर हमारा ध्यान आकर्षित करना चाहते हैं ।
इस बात को यहाँ ही छोड़कर आइये हम आगे बढ़े । धृतराष्ट्र के प्रश्नोत्तर में संजय अब महाभारत का इतिहास उपस्थित करता है । वह कहता है – “दुर्योधन ने व्यूहरचना युक्त पांडवों की सेना को देखा और द्रोणाचार्य के पास जाकर यह वचन कहे – “हे आचार्य, आपके बुद्धिमान शिष्य द्रुपदपुत्र धृष्टध्युम्न द्वारा व्यूहाकार खड़ी की हुई पाण्डुपुत्रों की इस बड़ी भारी सेना को देखिए ।” इस श्लोक में भी कला निहित है ।
द्रोण के सामने लड़ने के लिए उन्हीं के शिष्य ने सेना तैयार की है, यह बात सुनकर भी उन्हें तनिक आश्चर्य या क्षोभ न हुआ । अपने ही शिष्य के सामने कैसे लड़ा जा सकता है, यह विचार भी पैदा न हुआ । दुर्योधन की भाँति उन्हें भी शिष्य एवं प्रेमियों के साथ लड़ने में कोई नवीनता नहीं दिखाई दी और जरा दुर्योधन को तो देखिये । प्रतिपक्ष में अपने ही भाई हैं तथा अगर वह चाहे तो एक निमेष में उस यादवास्थली को बन्द कर सकता है, फिर भी युद्ध की तैयारी देखकर वह न तो रोता है और न टस से मस ही होता है । उल्टा वह तो आनन्द में इतना निमग्न हो गया है मानो किसी महान उत्सव में भाग ले रहा हो । वह अपने पक्ष का गुणगान करने लगता है ।
पांडवों की सेना की अपेक्षा उसकी सेना कितनी अधिक प्रबल एवं भारी है, इसकी कल्पना छवि द्रोणाचार्य के सामने रखने में गौरव का अनुभव करता है । दुर्योधन ने अपने व विपक्ष के जिन वीरों की नामावली पेश की है उसका पारायण करने की आवश्यकता नहीं । विष्णु सहस्त्रनाम की भाँति उसके पारायण से यह लोक या परलोक के उत्तम पदार्थों की प्राप्ति होने की उम्मीद नहीं । हमें तो सिर्फ उस उल्लेख की जरूरत है जो सम्बन्धी गीता विचार में सहायता दे सके । इस लिए वहाँ पर तो यह कहना अनुचित न होगा कि जिसका अमंगल निश्चित है उस का क्या हाल होता है उसकी कल्पना हम दुर्योधन के रेखाचित्र से अच्छी तरह कर सकते है । सामान्य जन भी कहते हैं कि जिस पर अमंगल या मौत मंडरा रही हो वह आदमी अगर अधर्मी या अनीतिमान है तो उसे ज्यादा से ज्यादा अधर्म या अनीति सुजाई पड़ती है । अगर वह नीतिमान है तो उसे धर्म और नीति में अधिक से अधिक रस उत्पन्न होता है ।
दुर्योधन का विनाश निकट ही है । उसकी दृष्टि भी अंधी हो गई है । उसका विवेक मंद हो गया है । उसकी धर्म भावना को जंग लग गया है । अगर ऐसा न होता तो युद्ध के मैदान में खड़े अपने बन्धु और स्वजनों को देखते ही उसका पाषाण हृदय पिघल जाता, वह अपनी भूल को समज़ जाता और उसे सुधारने का प्रयत्न करता । पश्चाताप में डूबकर पवित्र होकर वह पांडवों के गले लग जाता । उनको उनका न्यायोचित भाग दे देता और स्वयं वह एवं उसके सब स्नेहीजन सुखी हो जायें इसके लिए नम्रातिनम्र बन जाता, किन्तु कुछ भी मानिए, या ऐसा कहिए कि वही होता है जो राम चाहते है “होइहि सोई जो राम रचि राखा” अथवा भर्तृहरि की भाँति कहिए कि संसार के शतरंज पर काल मनुष्य को शतरंज के मोहरे की भाँति घुमाता है और नचाता है, किन्तु दुर्योधन को युद्ध की भयानकता तथा सामने खड़े विनाश की कल्पना तक न हुई और अंतिम घड़ी तक वह संभला नहीं ।
इस इतिहास से ही इस बात का पता चलता है । तात्पर्य यह कि दुर्योधन को समज़ाने का प्रयत्न भगवान श्रीकृष्ण ने भी किया था, किन्तु सब व्यर्थ रहा और सेनाओं को सामने खड़ा देखकर भी उसका हृदय परिवर्तन न हुआ । अतः उसे समजाने का एकमात्र और अनिवार्य उपाय था युद्ध । इस बात की और गीताकार हमारा ध्यान खींचना चाहता है ।
- © श्री योगेश्वर