इतनी चर्चा में हमें गीता का मूल मिल जाता है । गीता के जन्म का कारण, गीता के पीछे जो प्रेरक शक्ति है उसका आभास इससे हो जाता है । गीता की यह भूमिका है । गीता के उपदेश की आवश्यकता क्या है और गीता का उपदेश किन मुख्य-मुख्य उद्देश्यों को ध्यान में रखकर किया गया है इसका पता उपरोक्त विचारणा से लगता है ।
स्वजनों को देखकर अर्जुन को मोह हुआ, उनकी हत्या करना महापाप है, ऐसा प्रतीत होने पर वह गांडीव को एक ओर रखकर बैठ गया । इस वक्त अपना असली धर्म क्या है, इसका निर्णय उसके लिए मुश्किल हो गया । अपने कर्तव्य को वह भूल गया । विषाद में डूबे हुए अर्जुन की छवि की जरा कल्पना को कीजिए । गगन में पूर्ण चन्द्र प्रकाशित हो रहा हो तो उसे देखकर परमानंद की अनुभूति होती है । उस समय रथ में बैठे हूए अर्जुन तथा कृष्ण की शोभा भी वैसी ही मनोहर एवं अवर्णनीय थी । उसके आगे दुसरे सभी योद्धाजन छोटे बड़े सितारों की भाँति लगते थे, किन्तु अब उसे विचार हुआ । जैसे चाँद पर सहसा कोई काला-सा बादल आ जाय और उसके रूप रंग को आच्छादित कर दे, उसी प्रकार अर्जुन पर अविवेक, मोह एवं विषाद का बादल घिर आया, जिससे उसका उत्साह उसकी वीरता आदि सब पर पानी पड़ गया ।
अर्जुन को इस प्रकार विषाद हुआ है और भगवान के आगे वह अपने मनोभावों को रखता है । इस विषय को उपस्थित करनेवाला नाटक हमने विधार्थी जीवन में खेला था । उसमें अर्जुन का किरदार मुझे अदा करना था । उस समय इस महान प्रसंग की साधारण विचारणा करने का अवसर मुझे मिला था । आज पुनः एक बार उसका विचार कर रहा हूँ । इस प्रसंग का मनन करने से यह बात निश्चित हो जाती है और गीता के प्रथम अध्याय का नामकरण इसका समर्थन करता है कि भगवान ने जो गीता का उपदेश दिया, उसका प्रधान कारण सिर्फ़ युद्ध के लिये अर्जुन को तैयार करना नहीं, किन्तु उसे विषाद-मुक्त बनाना है । इस विषाद की मूल जननी है अविवेक या मोह की वृति । अतः मोह का नाश करने या अविद्या को दूर करने के लिए ही गीता गाने की जरूरत पड़ी । इसी लिए गीता में स्वधर्म के यथार्थ आचरण करने पर, ऐसा आचरण करते हुए भी पाप से मुक्त रहने की कला पर, तथा अपने व सृष्टि के परस्पर सम्बन्ध पर बार बार प्रकाश डाला गया है । यह प्रकाश केवल अर्जुन के लिए ही नहीं है, सारी सृष्टि के लिए उतना ही उपयोगी है ।
भगीरथ ने महान दुख सहन किये और फलतः गंगा अवतरित हुईं । उससे सगर के साठ हजार पुत्रों का तो उद्धार हुआ ही, साथ ही सारी सृष्टि का भी कल्याण हुआ । सारी मानव जाति इसका लाभ उठा सकती है । उसी प्रकार गीता की इस पावन गंगा में कोई भी स्नान कर सकता है या उसके जल का पान करके आनन्द प्राप्त कर सकता है । किसी भी प्रकार की रोकटोक कहाँ है ?
अर्जुन को जैसा विषाद हुआ, वैसा विषाद मानव मात्र को होता रहता है । कुरुक्षेत्र के मैदान में तो सबको लड़ना नहीं है, किन्तु जीवन का संग्राम तो सबके सामने है । जीवन एक कुरुक्षेत्र है । उसमें कई प्रश्न और कई उलज़ने उपस्थित होती है । कभी-कभी मनुष्य मोहग्रस्त हो जाता है और उसे समज में नहीं आता कि उसे क्या करना चाहिए । ऐसे समय में यदि वह प्रभु का आश्रय ले तो अर्जुन की भाँती उसे भी प्रकाश व प्रसाद मिल सकेगा । प्रभु के प्रसाद की कुंजी गीता ही है । जीवन के संग्राम में भाग लेनेवाले सभी महारथियों को इसमें से बल तथा प्रकाश मिलेगा । जीवन की महायात्रा के सभी पथिक इसमें से उपयोगी पाथेय प्राप्त कर सकते हैं ।
- © श्री योगेश्वर