मृत्यु से डरने का कारण क्या है ? समस्त संसार एक ही सिर्जनहार की कृति है । ईश्वर की योजना के मुताबिक़ दुनिया चलती रहती है । यह योजना भी मंगल है । मनुष्य सिंह, बाघ, बिच्छु, और साँप तथा शत्रुओं से भी डरता है । वह समजता है कि उसका जीवन उन सब जीवों के सामने सुरक्षित नहीं । वे सब जीव उसके लिए हानिकर हैं, ऐसा सोचकर ही वह डरता है । मनुष्य के डर का कारण यह भी है कि वह अपने सच्चे स्वरुप को नहीं जानता और मृत्यु को अमंगल और हानिकारक मानता है । यह मान्यता ग़लत है । वह अगर अच्छी तरह सोचे तो उसे मालूम होगा कि मृत्यु उसके लिए अमंगल नहीं बल्कि आशीर्वाद है ।
गीताकार का कहना है कि जैसे मनुष्य पुराने कपड़े उतारकर नये कपड़े पहनता है, वैसे ही पुराना शरीर छोड़ने की क्रिया का नाम मृत्यु है । उसकी जरूरत मनुष्य के लिए कितने महत्व की है । जैसे-जैसे शरीर बड़ा होता जाता है, वैसे-वैसे वह घिसता जाता है, उसकी शक्ति का क्षय होता जाता है । ऐसे शरीर को बदलकर नये और ज्यादा अच्छे शरीर को धारण करने का लाभ देकर ईश्वर ने मनुष्य पर बड़ा उपकार किया है । संसार में अगर मृत्यु की व्यवस्था न होती तो क्या होता उसका विचार तो करो । हरएक जीव को चाहे पसंद आए या न आए फिर भी अपने जन्म से विरासत में पाए हुए एक ही प्रकार के वातावरण में रहना पड़ता । मृत्यु के द्वारा उसे नये वातावरण में रहने का अवसर मिलता है और वह नये सिरे से अपना जीवन शुरू कर सकता है ।
संसार में कई जीव दुःख ही दुःख भोगते दीखते हैं । कुछ जीव दूसरों के अहित या अमंगल के लिये ही जीते हैं, ऐसा लगता है । ऐसे जीवों की जिन्दगी पर मृत्यु का परदा गिराकर परमात्मा उनका एवं दूसरों का कल्याण ही करते हैं । मृत्यु इस तरह मंगलकारी तथा जीवन के विकास की योजना में सहायक है । अगर ऐसा है तो मनुष्य को उससे क्यों डरना चाहिए ? डरने से क्या वह दूर की जा सकती है ?
चाहे मनुष्य को अच्छा लगे या न लगे, जन्म मरण के चक्र में तो उसे घूमना ही है । जन्म और मरण के चक्र में घुमानेवाले जो कर्म हैं, उनके बंधनों से जब तक वह छुटकारा न पा ले, अथवा सृष्टि के स्वामी परमात्मा के साथ संबंध न स्थापित कर ले, तब तक इस चक्र से छुटकारा पाना उसके लिये मुश्किल है । ईश्वर की कृपा एवं मानव का पुरुषार्थ जब मिल जाते हैं तभी इस चक्र से आसानी से मुक्ति प्राप्त हो सकती है ।
हिमालय के पर्वतीय प्रदेशों में विचरनेवालों को एक रमणीय दृश्य देखने को मिलता है । वहां पर बहुमूल्य लकड़ी काटकर लोग लट्ठों को गंगा के प्रबल प्रवाह में बहा देते हैं । यह पद्धति अत्यंत आसान साबित होती है, क्योंकि करोड़ों की संख्या में काटे जानेवाले लक्कड़ों को आदमी या वाहन द्वारा ले जाने का खर्च बहुत हो जाता है । जब प्रकृति ने गंगा माता का दान दिया है तो उसका लाभ क्यों न उठाया जाय ? ग्रीष्म ऋतु में बहुत से लक्कड़ बहते हुए आते है और आगे को बढ़ते रहते हैं । उनको अंत में ऋषिकेश एवं हरिद्वार के पास बाहर निकाल लेते हैं ।
ऐसे अनेक सचेतन लक्कड़ अर्थात जीव संसार में विद्यमान हैं, जो जीवन की महान सरिता में बहते रहते हैं । कभी कभी एक पल में किसी किनारे पर रूक गए तो दूसरे ही पल फिर बहने लगते है । जीवन एवं मरण रुपी नदी के प्रवाह में बहते हुए इन कुंदों को मुक्ति कैसे मिलती है ? इसका उपाय एक ही है और वह यह कि वह उसके हाथ में पड़ जाय जो उनका मालिक है । ऐसा होने से वह किनारे पर निकाल दिया जायगा और मुक्त हो जायेगा । इसके सिवा दूसरा कोई चारा नहीं है ।
संसार में दिखाई देनेवाले छोटे बड़े सभी लक्कड़ एक ईश्वर के ही हैं । उनकी शरण लेने से ही जन्म मरण टलते हैं एवं मुक्ति मिलती है । तात्पर्य यह कि जन्म मरण के चक्कर से छूटने के लिये मनुष्य को परमात्मा की शरण लेनी चाहिए । संतों एवं शास्त्रों ने यही सिखाया है ।
- © श्री योगेश्वर (गीता का संगीत)