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Swargarohan | સ્વર્ગારોહણ

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मृत्यु के समय एवं मृत्यु के बाद शोक न उत्पन्न हो एवं मन स्वस्थ रहे, इसके लिये विवेक के दीपक को प्रज्वलित करने की आवश्यकता है । दूसरी आवश्यकता है ईश्वर पर श्रद्धा रखने की एवं ईश्वर जो करता है वह उचित है ऐसा मानने की । ऐसा दृढ विश्वास रखनेवाले विवेकी पुरुष मृत्यु से दु:खी नहीं होते । श्री रमण महर्षि की एक बात इस विषय में याद आ रही है । उनकी माताजी मृत्यु के नज़दीक थीं । तब उन्होंने उनकी बहुत सेवा की । उनके पास सारे दिन बैठे रहते और शरीर पर हाथ फेरते रहते । उनकी इच्छानुसार अपनी अलौकिक शक्ति से उनको मुक्ति भी दिला दी । अंत्येष्टि क्रिया करने के बाद महर्षि ने आश्रमवासियों से कहा – “चलिये हम सब भोजन कर लें” और आश्रमवासियों के साथ उन्होंने रात का भोजन भी किया । कुछ आदमियों को शायद यह बात कुछ अटपटी सी लगे, किन्तु उसके पीछे अनासक्ति एवं मुक्ति की जो भावना है वह सुंदर है और सबके लिए शिक्षाप्रद है ।

महान भक्त कवि नरसिंहने भी पत्नी एवं पुत्र की मृत्यु हो जाने पर गाया था
भलुं थयुं भांगी जंजाल सुखे भजीशुं श्री गोपाल !
अर्थात् चलो अच्छा हुआ कि झंझट टल गया, अब आराम से गोपाल को भजेंगे ।

ऐसा गाने की और समजने की शक्ति सब में नहीं होती, यह सत्य है, परन्तु मृत्यु के प्रसंग को ईश्वर की इच्छा मानकर शांति से गुज़ारने की शक्ति तो प्रत्येक मनुष्य को प्राप्त करनी ही चाहिए । रमण महर्षि और भक्त नरसिंह जैसे संत कुछ कठोर या पाषाण हृदय न थे । वे तो भावुक एवं प्रेमी थे । जो सारे संसार को ईश्वर का स्वरुप मानकर प्यार करे, वह अपने से प्रेम रखनेवाले किसी आदमी या जीव से घृणा या द्वेषभाव कैसे रख सकता है ? ऐसी तो कोई कल्पना भी नहीं कर सकता ।

रमण महर्षि ने माता की स्मृति के लिये मातृभूतेश्वर मंदिर की रचना करवाई । यह उनकी मातृभक्ति का परिचायक है । अतः उनके हृदय में माँ के प्रति प्यार अवश्य था, किन्तु मोह न था । उनकी मृत्यु का शोक न था । इस बात से हमें सबक लेना है । महापुरुषों के जीवन दूसरों के लिए जीता जागता मिसाल हैं । मामूली आदमियों को भी मृत्यु से शोकातुर न बनने के लिए मनोबल प्राप्त करना चाहिए, परन्तु आम संसार में क्या दिखाई देता है ? मृत्यु के बाद शोक या विलाप न करने के लिए किसीसे कहा जाय तो कदाचित उसे न भाएगा ।

कुछ साल हुए एक वृद्धा की मृत्यु हो गई । उसकी उम्र ८०-८५ साल की होगी । जब मैंने कहा कि उसके पीछे रोना या कूटना मत तो उसके सगेसंबंधी खीज उठे – “इतनी उम्र में तो बुढ़िया की मौत हुई है, तो क्या रोना-धोना भी मना है ? उसकी गति कैसे होगी ?”

कुछ लोग कहने लगे, “क्या बुढ़िया को बिना बोले ऐसे ही स्मशान पहुँचाना है ?” जो लोग उस वृद्धा की तबियत का हाल पूछने शायद ही आते थे, वे भी मरने का समाचार पाकर हाजिर हो गए और विलाप क्रंदन के पक्ष में अनेक दलीलें करने लगे, किन्तु मैंने तो यह निश्चय कर लिया था कि ऐसा नहीं होना चाहिए ।

एक व्यक्ति इतने सालों के बाद देहत्याग करता है, फिर भी आदमियों को अचम्भा होता है, पर सच पूछिए तो किसीका हृदय नहीं रोता । प्रायः तो रोने का अभिनय ही किया जाता है । मेरे बहुत मना करने पर भी कुछ लोगों ने कुहराम मचा दिया । दूसरे दिन भी आए पर उन्हें साथ न मिला । अतः वह बात वहीँ खत्म हो गई । रोने चिल्लाने की यह प्रथा हमारे यहाँ सर्वसाधारण हो गई है और इतना ही नहीं, कुछ लोग तो उसमें गौरव एवं आनंद का अनुभव करते हैं । कुछ स्त्रियाँ तो रोने तथा विविध ढंगों से छाती पीटने में सिद्धहस्त होती है । उनकी उपस्थिति में और भी मज़ा आता है, ऐसा कुछ लोगों का अनुमान हैं ।

मृत्यु के गंभीर एवं प्रेरणात्मक प्रसंग को हमने कितना विचित्र स्वरुप दे रखा हैं । मृत्यु तो एक तरह से मनुष्य की सेवा करती है और मनुष्य के लिए आशीर्वाद बनकर आती है । संसार में डूबे हुए बेहोश एवं मोहग्रस्त आदमी को सावधान करती है और साथ ही यह शिक्षा भी देती है कि हे मानव, मुझे भूलना मत । ऋतुओं के समान जीवन भी आता है और जाता है । जीवन अत्यंत सुंदर है किन्तु उसके साथ मेरा संबंध जुड़ा हुआ है । यह तुम जान लेना, किन्तु मुझसे डरना मत । मुझे शत्रु भी मत मानना । तुम्हें नवजीवन प्रदान कर मैं तुम पर एहसान करती हूँ । मैं तुम्हें संसार से अनासक्त रहने का उपदेश देती हूँ । तुम्हें यदि मुज पर विजय प्राप्त करना है और अमर बनना है तो मैं तुम्हे उसका उपाय भी बता देती हूँ । सुनो । उस सर्वशक्तिमान परमात्मा की शरण लो जो इस संसार की उत्पत्ति एवं विनाश का मूल कारण है तथा जो परम कृपालु है । दूसरा कोई मार्ग नहीं है । मुज पर विजय प्राप्त करने की कोई कुंजी नहीं है । देखो न, तुम्हारे ऋषि मुनियों ने भी तो यह कहा है – नान्य पंथा: विघतेडयनाय । किसी भी परिस्थिति में मेरा शोक मत करना ।

- © श्री योगेश्वर (गीता का संगीत)

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