Swargarohan | સ્વર્ગારોહણ

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बिना कर्म किये कौन जिन्दा रह सकता है? गीता कहती है कि मानव-जीवन तथा कर्म में चोली दामन का साथ है । कोई भी प्राणी बिना कर्म किये एक क्षण भी नहीं रह सकता । आप सोचेंगे तो यह बात समझ में आ जाएगी । मान लीजिए कि एक व्यक्ति हलनचलन छोड़कर बैठ जाता है तो भी वह कर्म तो कर ही रहा है । मनुष्य केवल शरीर से ही कर्म करता है ऐसी बात नहीं है । मन से भी काम किया जाता है । मनुष्य सत्संग में बेठता है, वह चाहे सत्संग की चर्चा पर ध्यान दे चाहे मन को इधर उधर बहक जाने दे, उसका मन तो काम करता ही रहेगा । सपने में शरीर सो जाता है, पर मन तब भी जागता रहता है और काम करता रहता है । यह सब लोग जानते ही हैं । यह तो मन की बात हुई लेकिन इन्द्रियों से भी काम होता है । देखिए ना, हम सब एक विशाल कमरे में बैठे हैं । मेरा मुँह बोल रहा है और आपके कान सुन रहे हैं । हाथ किसी वस्तु को पकड रहे हैं, आँख भी अपना काम कर रही हैं, कुछ लोगों को पहचान रही है कुछ को नहीं । कुछ को अपना समझती हैं तो कुछ को पराया । इन सब इन्द्रियों को रोककर तथा मन पर संयम रखकर कोई बेठा रहे या सो जाए, फिर भी कर्म तो करना ही पडेगा ।

यदि मनुष्य कुछ भी न करे तो भी उसे साँस लेने की क्रिया तो करनी ही पड़ेगी । यह भी तो एक कर्म ही है । योगी साँस को रोक ले या समाधिस्थ हो जाय तो भी वह निष्कर्म नहीं होता । क्योंकि वह समाधिस्थ है और समाधिस्थ होना भी एक उत्तम कर्म ही है । सारी पृथ्वी गतिशील है । वह निरंतर सूर्य की परिक्रमा किया करती है । सृष्टि के पदार्थ भी अपनी माँ की तरह क्रियाशील रहते हैं । अपनी माँ का स्वभाव उन्हें विरासत में मिला है । देखिए तो सही यह पवन कैसी प्रसन्नतापूर्वक बह रही है । पानी का प्रवाह चलता ही रहता है । सूर्य, चंद्र, नक्षत्र उदित होते हैं और अस्त होते हैं । वे सभी निरंतर कर्म किये जा रहे हैं । पानी से भाप, भाप से बादल, और बादल से बरसात – यह क्रम बराबर जारी रहता है । अनेक ऋतुएँ आती हैं और चली जाती हैं । रात और दिन का सिलसिला भी युगों से लगातार चला आ रहा है । इस प्रकार कर्म संसार का प्राण है, सृष्टि का सत्व है । कर्म, कर्म और कर्म का निरंतर जप करनेवाली सृष्टि में मनुष्य बिना कर्म किये कैसे रह सकता है ! खाना, पीना, सोना और साँस लेना, विचारमग्न होना – वह सब कर्म ही तो हैं जो मनुष्य हमेशा करता ही रहता है । इसीलिए पुरुषोत्तम श्रीकृष्ण की उपदेशवाणी गीता कहती है कि बिना कर्म किए संसार में कोई भी व्यक्ति रह नहीं सकता । यह कथन सत्य है । जब वास्तविकता यह है तो कर्मों का संपूर्णतया त्याग करने का उपदेश देना और उस उपदेश में गौरव मानना क्या बुद्धिमानी है?

बिना कर्म के मनुष्य रह नहीं सकता । लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि बुद्धि को तिलांजलि देकर, बिना सोच विचार किये कर्म करना है । गीता कर्म की प्रशंसा करती है । जीवन के हितार्थ कर्म को आवश्यक मानती है । किन्तु उसने कर्मयोग नामक सुंदर शब्द का प्रयोग किया है । तद्नुसार मनुष्य को सब कर्म को योगमय बना देना चाहिए । कर्म को योगमय बना देने से उसका स्वरूप बदल जाता है और वह मुक्ति, शांति या ईश्वर को प्राप्त करने के लिए सहायक हो जाता है । इसलिए मनुष्य को केवल कर्म नहीं, बल्कि कर्मयोग करना चाहिए । कर्म का योग, अर्थात् कर्म के द्वारा योग, करना है । किसके साथ? भगवान के साथ । कर्म में विवेक यानी ज्ञान जोड़ देने से कर्मयोग बन जाता है । कर्मयोग की यही विशेषता है । मनुष्य जब संपूर्णतया जागृत रहकर और विवेकी होकर कर्म करता है और उस कर्म का संबंध भगवान के साथ जोड़ देता है, तब वह कर्म साधनामय या योगमय हो जाता है । ऐसा कर्म मूल्यवान होता है, जीवन का उद्धार कर सकता है, देश और समाज को ऊंचा उठा सकता है । ऐसे कर्म से ताप, शोक और बंधन नष्ट होते हैं । इस प्रकार कर्म और ज्ञान के बीच दोस्ती होनी चाहिए । तभी जीवन उज्जवल होगा, यह गीतामाता का संदेश है ।

- © श्री योगेश्वर (गीता का संगीत)