लोग कर्म करते है लेकिन यज्ञ की भावना से नहीं करते । अतः वे कर्म निरस और बोझ बन जाते है । कर्म होते हैं किन्तु उनका आनंद नहीं मिलता । जीवन के विकास में उनसे कोई विशेष सहायता नहीं मिलती । इसका उपाय बताती हुई गीतामाता समस्त कर्मों को साधनामय बनाने की शिक्षा देती है । ऐसा करने से कर्म बंधनकारक नहीं बनते बल्कि मुक्ति का आनंद दिलानेवाले हो जाते हैं । गीता सिखाती हैं कि कर्म द्वारा ईश्वर की उपासना की जा सकती है । ईश्वर की आराधना के फूल बन जाने से कर्म की शोभा अनेक गुनी बढ़ जाती है । फिर कर्म को त्याग करने का सवाल ही नहीं उठेगा । कर्म जीवनमें बाधक नहीं बल्कि सहायक बन जायगा । मनुष्य जीवनभर कर्म करेगा फिर भी ऊबेगा नहीं, थकेगा नहीं, और कर्म की उपेक्षा नहीं करेगा । कर्म को जीवन विकास का हथियार बनाने से कई समस्याएँ सुलझ जायगी । गीता शिक्षा देती है कि कर्म में यज्ञ या सेवा की भावना मिला दो । भावना से कर्मे में रस उत्पन्न होता है, बल्कि कर्म का स्वरूप ही बदल जाता है ।
एक डाकिये की कल्पना कीजिए । डाक बाँटनेवाले को प्रतिदिन मीलों चलना पडता है, जिसके कारण उसे बड़ी थकावट हो जाती है । जब तक उसके दिल में यह विचार रहता है कि पैसे के लिए ही मुझे मेहनत करनी पड़ रही है, तब तक उसे श्रम करने पर भी आनंद नहीं मिलता । आनंद प्राप्त करने के लिए तथा आत्मिक उन्नति करने के लिए उसे अपनी भावना बदलनी चाहिए । उसे सोचना चाहिए कि मेरे द्वारा अपने मित्रों तथा स्वजनों के पत्र प्राप्त करके कितने लोगों को आनंद होगा! कितने लोग आतुरता से मेरी प्रतीक्षा कर रहे होंगे । पत्र पहुंचाकर वह दूर बसे हुए आदमियों के दिलो को जोड़ता है । इसके अतिरिक्त देश के कारोबार में भी वह हाथ बटाता है । ऐसी सेवा को या दूसरों के लिए उपयोगी होने की भावना रखकर काम करने से कितना उत्साह मिलेगा और उसका काम यज्ञ के समान हो जाएगा, जिससे उसका मन निर्मल होता जाएगा और उसको आनंद भी प्राप्त होगा । काम बेगार न होकर धर्म, साधना और कर्तव्य बन जाएगा । डाकिये का परिश्रम भावना रहित होता है, इसीसे उससे विशेष आध्यात्मिक उन्नति नहीं होती । लेकिन जो सेवाभाव के साथ मेहनत करता है उसको कैसा लाभ मिलता है यह तो शायद सभी जानते हैं । कर्म इस प्रकार धर्म के साथ होना चाहिए । कुछ लोग ब्रजभूमि या बद्री केदार जैसे तीर्थों की यात्रा पैदल चलकर करते हैं । जब मैं ऋषिकेश में था उस समय एक आदमी से मुलाकात हुई जो दक्षिण भारत से पैदल ही प्रवास करता हुआ आया था । कई महिने चलकर वह ऋषिकेश पहुँचा था और वहाँ से उसे बद्रीनाथ जाना था । तदनन्तर पैदल चलकर घर पहुँचना था । ऐसे आदमी को क्या थकावट नहीं लगती होगी? फिर भी उसके मुख पर उत्साह कहाँ से आता है? उसके दिल में तीर्थों के दर्शन की तीव्र इच्छा रहती है, जो उन्हें सदा प्रेरणा देती रहती है । यह भावना ही उन्हें कष्टों, मुसीबतों और उलझनों का सामना करके परदेश का प्रवासी बनाती है । उनके लिए प्रवास एक यज्ञ बन जाता है । तीर्थों के दर्शन से प्रभु की कृपा एवं प्रसन्नता प्राप्त करने की लगन उनको ताक़त देकर दूर दूर तक ले जाती है । कैलाश की यात्रा कितनी कठिन कहलाती है! फिर भी मुश्किलों का सामना करते हुए लोग इस यात्रा को भी पूरी करते हैं । कठिनाईयों में भी प्रभु की लीला का दर्शन करने की भावना उन्हें आह्लाद देती है । उस भावना से किया हुआ कर्म उनके लिए साधनामय और कल्याणकारी हो जाता है । भावना में एसी शक्ति है ।
गंगा के किनारे पर कई लोग बसते हैं । दूर दूर से लोग गंगा में स्नान करने के लिए आते हैं पर किनारे पर बसने वाले कितने लोग पर्व के दिनो में भी गंगा स्नान नहीं करते । यदि आप उनसे पूछेंगे तो पंडित की भाषामें वे तुरंत बोल उठेंगे कि गंगा स्नान की क्या आवश्यकता? गंगा में मछलियाँ भी नहाती है । क्या वे पवित्र हो गई? कोई कोई ऐसा भी कह देता है की गंगाजी पतित को पावन करनेवाली है । हम कहाँ पापी या पतित है? जो पापी है उसे गंगा में स्नान करने दो । लेकिन भावनावान की बात अलग है । गंगामें स्नान करनेवाले सब लोग पापी नहीं होते । मन, वचन और काया से पवित्र जीवन बितानेवाले लोग तथा प्रभुपरायण सत्पुरुष भी उसमें स्नान करते हैं । मामूली आदमी भी पवित्र होने की भावना से स्नान करें तो इसमें क्या हर्ज है? इस में संदेह नहीं कि यदि उनकी भावना सच्ची होगी तो उन्हें फल मिलेगा ही । मनुष्य यदि यांत्रिक न हो जाय और पवित्र होने की इच्छा से गंगा स्नान करें तो कभी-न-कभी उनका उद्धार होगा ही । अगर भावना मिट गई तो समझ लेना सब कुछ मिट गया । गंगा के समीप जाते ही मुझे याद आता है कि यह हिमाचल के पवित्र प्रदेश में से निकलती है । अनेक ऋषिमुनियों के स्नान से पवित्र बनी है । उसमें स्नान करके मुझे अधिक से अधिक पवित्र होना चाहिए । इस स्मरण से मेरा हृदय भावुक हो जाता है और गंगा का स्नान, पान तथा दर्शन मेरे लिए यज्ञमय हो जाता है । फलतः मुझे लाभ ही होता है । मछली और आदमी को एक तराजू से नहीं तोल सकते । प्रभुने मनुष्य को भावना तथा विवेक का दान दिया है । जिसका उपयोग करके वह जीवन की प्रत्येक छोटी बड़ी क्रिया को भावपूर्ण एवं मूल्यवान बना सकता है । हर एक मनुष्य गंगा के किनारे नहीं बस सकता । इसके अतिरिक्त एक या दूसरे कारण से सब लोग गंगा स्नान का लाभ नहीं उठा सकते । ऐसे लोग भी अपनी भावना पूर्ण कर सकें इसके लिए हमारे शास्त्रों में प्रबंध किया गया है । हमारे प्रातःस्मरणीय ऋषिवरों ने हमें एक सुंदर मंत्र दिया है । इस मंत्र के अनुरूप भावना रखकर आप जहां हो वहीं रहकर प्रतिदिन गंगास्नान का आनंद ले सकते हैं । इस मंत्र का अर्थ है, ’हे गंगा, यमुना, गोदावरी, सरस्वती, नर्मदा, सिंधु तथा कावेरी, इस पानी में निवास करो ।’ इस मंत्र का सहारा लेकर प्रत्येक मनुष्य भारत की महान एवं पवित्र सरिताओं के साथ नाता जोड़ सकता है और गंगा जैसी पवित्र नदी में स्नान करने का आह्लाद ले सकता है । आप चाहे शहर में हो या गाँव में, कुएँ के पानी से स्नान करते हों या तालाब के पानी से, इस भावना का लाभ हर हालत में ले सकते है । नल के नीचे नहाते हों तो भी क्या? भावना द्वारा गंगा के साथ संबंध स्थापित कर सकते हैं । भावना की शक्ति कुछ कम नहीं है । जीवन के निर्माण में भावना का महत्वपूर्ण हिस्सा है । भावना के कारण छोटे से छोटा काम भी बड़ा हो जाता है और दिलचस्प हो जाता है ।
- © श्री योगेश्वर (गीता का संगीत)