प्रश्न – यज्ञोपवीत की महत्ता यदि इतनी अधिक है तो संन्यासी को यज्ञोपवीत का त्याग करना चाहिए ऐसा विधान क्यों किया गया है ॽ यज्ञोपवीत यदि उपयोगी ही है तो वह सन्यासी के लिये क्यों उपयोगी नहीं है ॽ उसे इससे क्यों वंचित रखा जाय ॽ तो क्या यज्ञोपवीत का त्याग करने का विधान गलती से किया गया है ॽ
उत्तर – यह विधान भूल से नहीं किया गया किंतु सहेतुक किया गया है । जब मनुष्य संन्यास ग्रहण करता है, तब वह अपने व्यवहारिक जीवन के सभी बंधनो को तोड देता है, उनसे सदैव के लिए संबंध विच्छेद करता है । वह अपना नाम व स्थान बदलता है, सारे परिवार का त्याग करता है और बाह्य भेष को भी बदल देता है । वह वर्ण से भी अतीत हो जाता है अर्थात् वर्ण के चिन्ह या बंधन से मुक्त हो जाता है । इसीलिए द्विज के विशेष चिन्हरूप शिखासूत्र का भी परित्याग उसके लिये आवश्यक माना गया है, और यह उचित ही है । यह उसके अभिनव जीवन में प्रवेश करने की निशानी है ।
प्रश्न – किंतु इसके कारण यज्ञोपवीत से जो लाभ होता है उससे तो वह वंचित रह जाता है न ॽ
उत्तर – नहीं रह जाता क्योंकि यज्ञोपवीत से जो लाभ होता है, इससे भी विशेष लाभ उसे संन्यासी जीवन द्वारा, अगर वह अच्छी तरह या समझदारी से जीता हो तो मिल सकता है । उसका गेरुआ वस्त्र ही इस बात का सूचक है कि उसने सर्व प्रकार की लौकिक वासना पर पानी फेरकर एकमात्र आत्मज्ञान अथवा परमात्मा की प्राप्ति के लिए ही संन्यास के इस अभिनव जीवन का अवलंबन लिया है । इसके लिए ही उसका व्रत है । अन्य सभी लौकिक ममत्व वृत्ति, आसक्ति एवं अहंता को उसने ज्ञान रूपी अग्नि में जलाकर भस्म कर दिया है । उसका समुचा जीवन ही परमात्मा की प्राप्ति के लिए है । इस तरह देखा जाय तो यज्ञोपवीत द्वारा जो परमात्म-प्राप्ति की दीक्षा उसे आजपर्यंत दी जाती थी वह दीक्षा संन्यास का स्वीकार करके वह सहज ही में प्राप्त कर लेता है । इसके अतिरिक्त उसे त्यागमय जीवन की दृष्टि मिलती है अतएव यज्ञोपवीत के त्याग से उसे तनीक भी नुकसान नहीं होता ।
प्रश्न – परंतु सभी संन्यासी त्याग के मर्म को समझकर वैसा जीवन कहाँ जीते हैं ॽ
उत्तर – सब नहीं जीते यह दूसरी बात है परंतु ऐसा जीवन जीना चाहिए यही उनसे अपेक्षित है । वैसा देखा जाय तो यज्ञोपवीत धारण करने या करानेवाला भी उसका मर्म समझकर या समझाकर उसका उचित उपयोग कहाँ करते हैं ॽ इसलिए इसकी उपेक्षा थोडे ही की जा सकती है ॽ
प्रश्न – क्या यज्ञोपवीत का रिवाज आजके जमाने में उचित है ॽ
उत्तर – जहाँ तक आप उसके स्थान पर उससे अधिक अच्छी संस्कार-क्रिया को न ला सके वहाँ तक यह उपयुक्त ही है अन्यथा प्रजा के पास धर्म संस्कार की प्रवृत्ति जैसा रह ही क्या जायेगा ॽ
- © श्री योगेश्वर (‘ईश्वरदर्शन’)