ईस्वी सन १९४९ की बात है । उस वक्त मैं देवप्रयाग से निकलकर अमरनाथ की यात्रा करने गया था । ऊँचे ऊँछे हिमाच्छादित पर्वतों के बीच बसे उस तीर्थ के दर्शन से मुझे अवर्णनीय आनंद हुआ । वहाँ की प्राकृतिक सुषमा इतनी असाधारण, चित्ताकर्षक और नयनरम्य है कि जिसका कोई जवाब नहीं । इसे देख मन मुग्ध हो जाता है ।
काश्मीर को सृष्टि का स्वर्ग क्यों कहा जाता है यह बात इस पर से आसानी से समझी जा सकती है । कश्मीर का प्रवास करने के बाद मैं कलकत्ता गया, वहाँ कुछ दिन रहा । बाद में जगन्नाथपुरी गया । यह तीर्थ भी अच्छा है अलबत्त हिमालय की भाँति वहाँ हिमाच्छादित पर्वतश्रेणी नहीं है, गंगाजी भी नहीं है परंतु वहाँ विशाल सागर है, विशाल, स्वच्छ एवं सुंदर मंदिर है । इसे मंदिर कहीए या एक प्रकार का आध्यात्मिक पावरहाउस कहिए क्योंकि इससे कई साधकों को प्रकाश, प्रेरणा एवं शांति मिलती है । इसने कितने अध्यात्म-पथ के पथिकों के प्यासे प्राणों को प्रेम के पियुषपान से तृप्त, पुलकित, प्रसन्न व पावन बनाया है । शायद इसलिए भारत के चार बडे मंदिरो में इसकी गणना होती है ।
इस मंदिर के दर्शन से मुझे प्रसन्नता हुई । आनंद के वे दिन बडी तेजी से गुजरे किंतु उन्हीं दिनों मेरे मन में चिंता पैदा हो गई । मैं उस वक्त नवरात्री के दिनों में पानी पर उपवास करता था । नवरात्री करीब थी और वह व्रत मैं किस स्थान पर करूँगा इसका निर्धार नहीं कर सकता था । इसका शीघ्र निर्णय बहुत जरुरी था क्योंकि भादों जल्दी से गुजर रहा था ।
देवप्रयाग के जिस मकान में मैं रहता था, उसीमें रहना होता तो कोई दिक्कत न थी पर बारिश के तूफान की वजह से उसमें रहना मुश्किल हो गया था – शायद असंभवित भी । तो फिर कहाँ रहें ? ऋषिकेश जाएँ या गुजरात ? कोई निर्णय न हो सका । मैंने आखिरकार एक इलाज ढूँढा । वह काम ईश्वर पर छोड दिया । भगवान जगन्नाथजी के मंदिर में बैठ मैंने प्रभु से सच्चे दिल से प्रार्थना की, ‘हे प्रभु! लोग आपके दर्शन को बडी दूर से आते है । इस तरह मैं भी प्रेमभक्ति से प्रेरित हो आ पहूँचा हूँ । अगर आप सच्चे हैं तो मुझे तीन दिन में उत्तर दें । मुझे कृपया स्पष्ट आदेश दें कि मुझे नवरात्री में कहाँ रहना है ?’
एक दिन गुजरा, दूसरा गुजरा पर कुछ न हुआ । मेरी चिंता बढ गई परंतु ईश्वर ने किस पर कृपा नहीं की ? इसके द्वार से खाली हाथ कौन जाता है ? तीसरे दिन बडे सबेरे, जब मैं अपनी सेज पर बैठे प्रार्थना कर रहा था कि मेरे ठीक सामने श्री रामकृष्ण परमहंसदेव की धर्मपत्नी श्री शारदादेवी प्रकट हुई । उन्होंने मुझसे कहा, ‘क्यों चिंता में पड गये हो ?’
मैंने जवाब दिया, ‘क्या आप नहीं जानती कि मैं नवरात्री कहाँ की जाय इस उलझन में पडा हूँ ?’
उन्होंने कहा, ‘नवरात्री का व्रत पानी पर ही करना है और वह भी देवप्रयाग में ही । वहाँ चलो ।’
मैंने कहा, ‘आश्रम की जगह तो बिगड गई है ।’
उन्होंने कहा, ‘आपको आश्रम में नहीं रहना है बल्कि देवप्रयाग में मोटर स्टेन्ड के पास जो शेठ का मकान है उसमें रहना है ।’
मैंने पूछा, ‘वह मकान खाली है क्या ?’
‘खाली नहीं है,’ उन्होंने कहा, ‘उसमें एक अफसर रहता है पर आपकी व्यवस्था उधर ही होगी । आपको वहीं रहना है ।’
यह कहकर शारदादेवी अदृश्य हुई । मैंने सब बातें मेरी माताजी से कही । उस वक्त वे मेरे साथ ही रहती थीं ।
मंदिर में जाकर मैंने फिर स्तुति की । भादों शुक्ल की एकादशी को देवप्रयाग जाने के लिए हम चल पडें । ईश्वर ने मुझे ऐन मौके पर, तीन ही दिनों में पथप्रदर्शन किया इससे मेरे जीवन में ईश्वरकृपा का एक और प्रसंग उपस्थित हुआ ।
कभी कभी लोग मुझे प्रश्न करते हैं की हमारे तीर्थ अब भी जीवंत है, चेतना से भरें है या निष्प्राण और निर्जीव हो गये हैं ? मैं प्रत्युत्तर में उनको पूछता हूँ कि क्या आप चेतना से भरे हुए हैं ? तीर्थ तो जैसे पूर्व थे वैसे ही आज भी है – प्राणवान और चेतना से भरे हुए । अगर हमारी योग्यता हो तो हमें उसका अनुभव होगा । अगर हमारी योग्यता नहीं होगी तो वे हमें बेजान मालूम पडेंगे ।
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कहाँ जगन्नाथपुरी और कहाँ देवप्रयाग ? भारत के दो छोर – एक पूरब का तो दूसरा उत्तर का । एक बंगाल में और दूसरा हिमालय में । बीच में अनेक नदियाँ और गाँव, पर्वत आदि । कितने वन और उपवन । इससे गुजरनेवाली रेलगाडी यह कह रही थी कि देश इतने वैविध्य और विशालता से भरा होने पर भी एक है, अखंड है, अविभाज्य है । उनके अंग भले ही भिन्न जान पडते हों पर उसकी आत्मा एक है । उसकी संस्कृति, उसके श्वास-प्रश्वास व धडकनें एक है । देश की यात्रा करनेवाला व्यक्ति इस एकता का अनुभव कर सकता है ।
इसी एकता का दर्शन करता हुआ मैं देवप्रयाग आ पहूँचा । ऋषिकेश से करीब ४५ मील की दूरी पर, अलकनंदा और भागीरथी के संगम पर बसा देवप्रयाग मेरे नैन और हृदय को आनंदविभोर करने लगा । देवप्रयाग स्थित मेरे आश्रम पर जाना मुश्किल था इसलिए मैं मोटर स्टेन्ड के पास रहनेवाले एक सज्जन के यहाँ ठहरा ।
दूसरे ही दिन नवरात्री शुरु हुई । जगन्नाथपुरी में शारदादेवी ने जो सुचना दी थी उसके मुताबिक मैंने केवल पानी पर उपवास शुरु किये । फिर भी मकान का प्रश्न अभी हल न होने से मन में चिंता थी । फिर भी हृदय में विश्वास था कि जो शक्ति मुझे इतनी दूर तक खींच लायी है वह आवश्यक प्रबंध अवश्य करेगी ।
इसी विचार से प्रेरित होकर दो भाइयों को साथ लेकर मैं उपवास के प्रथम दिन ही आश्रम की ओर निकल पडा । देख लूँ, आश्रम जाने का मार्ग है या नहीं ? आश्रम के मार्ग में एक शेठ का मकान आता था, जिसमें एक कश्मिरी रेशनींग ईन्सपेक्टर किराये पर रहेते थे । इस हकीकत का ज्ञान मुझे देवप्रयाग आने पर हुआ था । इससे यह साबित हुआ कि शारदादेवी के भविष्यकथन की इतनी बात सच है । परंतु इससे क्या ? अभी कथन पूर्णतया सिद्ध नहीं हुआ था । शारदादेवी ने कहा था, ‘वह सज्जन मुझे अपने साथ रहने देंगे ।’ वह कैसे सिद्ध होगा ? ईश्वर के लिए कुछ भी असंभवित नहीं है फिर भी मुझे यह विचार आ ही गया ।
यही सोचता हुआ मैं आश्रम के रास्ते पर होता हुआ शेठ के मकान पर वापस लौटा । वहाँ एक घटना घटी । मकान के कमरे का पर्दा उठाकर कश्मिरी इन्सपेक्टर बाहर आए और मुझे प्रणाम करते हुए कहने लगे, ‘उस आश्रम में क्या आप ही रहते है ?’
मैंने कहा, ‘हाँ, लेकिन अब तो वहाँ जाने का रास्ता ही बिगड गया है, वहाँ अब नहीं रहा जाता ।’
वे मुझे अत्यंत आग्रह करके मकान के भीतर ले गये । उन्होंने कुछ बातचीत की और स्वयं सहज रूप से कहने लगे, ‘मेरी एक प्रार्थना है ।’
‘क्या ?’ मैंने पूछा ।
‘आप यहाँ ही रहिएगा, इसी मकान में । मकान बहुत बडा है, मुझे कोई तकलीफ नहीं होगी।’
मैंने कहा, ‘मकान बडा है यह सच है पर कल से मैं मौनव्रत रखनेवाला हूँ ।’
उन्होंने कहा, ‘इसमें क्या ? मैं दिन में एकाध बार आपके दर्शन कर लूँगा तो भी मुझे आनंद होगा।’
आखिरकार मैंने उनकी बात स्वीकृत कर ली । उन्होंने एक फर्नीचरवाला कमरा मेरे लिए खाली करवाया । उनके नोकर को भेज मेरा सारा सामान मँगवा लिया । उसी रात से मैं वहाँ रहने लगा ।
कितनी अजीब है इश्वर की शक्ति ! वह किस स्थल पर, कब, किसके लिए काम करती है यह एक पहेली है । बुद्धि उसे समज सकती है पर उसका हल नहीं कर पाती । यह ऐसी पहेली है जिसे इश्वर-भक्त के सिवा कोई नहीं बुझा सकता । इस कृपा का लाभ उठाना चाहें तो पहले ईश्वर के भक्त, प्रेमी व शरणागत बनिये और उसीके लिए जिन्दगी बसर कीजिए । केवल बातों से कुछ नहीं होगा । जीवन को उसी के और रंग से रंग दें । इतना करने पर आपकी सभी चिंताओं को वह सम्हालेगा । यही मेरा अनुभव है ।
शारदादेवी की सुचनानुसार काश्मिरी सज्जन के साथ मैं उस मकान में देढ महिना रहा, नवरात्री के मेरे उपवास भी वहीं पूरे हुए ।
- श्री योगेश्वरजी