दूसरों की सेवा का धर्म सबसे बडा
गुरु नानकदेव के जीवन के जीवन की एक छोटी-सी पर प्रेरणात्मक घटना है । उस वक्त उन्होंने भारत की कई बार यात्राएँ की थी । अपने सुंदर, सारवाही उपदेशों से लोगों के दिलों को जीत लिया था, तथा बडे ही लोकप्रिय हो गये थे । कई लोग उन्हें गुरु मानते और उनका अत्यंत आदर करते थे ।
भारत की यात्रा के दौरान एक बार दयालपुर के निकट के गाँव के किसी मुसलमान किसान को उपदेश देते हुए उन्होंने कहा, ‘भाई, सत्कर्म रूपी श्रेष्ठ हल से अपने खेत को जोतना, उसमें नाम का पवित्र बीज बोना, सत्य का जल पिलाना और इस तरह सर्वोतम किसान बनना । स्वर्ग-नर्क की चिंता किये बिना श्रद्धा को बढाना । धन या बाह्य सौंदर्य के नशे में मत रहना । केवल बहस से कुछ नहीं होगा ।’
यह उपदेश सुन एक सर्राफ बोल उठा, ‘ऐसी गहन बातें यह कैसे समझ सकेगा ?’ तब नानकदेव ने कहा, ‘जो दीन है वह दीनबंधु के पास ही है । जिस धन का संग्रह तू कर रहा है वह तेरे साथ नहीं आनेवाला । जिनके हृदय में ईश्वर का विशुद्ध प्रेम है, सेवा है, वे गरीब-जन ही ईश्वरकृपा के अधिकारी हैं, तुझ जैसे धनिक नहीं ।’
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नानकदेव को दीनहीन जनों पर अत्यधिक प्यार था । एक बार वे नासिक के गरीब आदमी के यहाँ मेहमान बने थे और जमीन पर लेटे थे । यह देख एक अमीर ने कहा, ‘देखिये, मैंने आपसे मेरे घर आनेको कहा था पर आप न आये और अब तकलीफ उठा रहे हैं ।’
नानक ने जवाब दिया, ‘भाई, मुझे कोई तकलीफ नहीं है । ईश्वर उसी पर अपने अनुग्रह-अमृत की वृष्टि करता है जो संसार के नश्वर सुखों से वंचित हो । मैं तो इस घर में ईश्वर के एक महान कृपापात्र के साथ रहता हूँ । मैं तो चाहता हूँ कि इस आदमी की तरह मुझ पर भी ईश्वर कृपा बरसायें ।’
इस उत्तर सुन अमीर कुछ न बोला ।
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एक ओर प्रसंग उल्लेखनीय है । करतारपुर में नानक एक सभा भरके बैठे थे । शिष्य, जिज्ञासु, प्रसंशक ज्यादा तादाद में थे । एकाएक एक शीख उठकर चलने लगा ।
नानकदेव ने बीच में उठकर जाने का कारण पूछा तो उसने कहा, ‘हाँ, मुझे इस तरह बाहर नहीं जाना चाहिए यह जानता हूँ, पर मैं मजबूर हूँ । दूसरा कोई चारा नहीं है । मेरा एक दोस्त बीमार है । इसके जीने की भी कोई उम्मीद नहीं । मैं उनकी सेवा में हूँ फिर भी आपके दर्शन की इच्छा का लोभ-संवरण न कर सका इसलिए यहाँ आया था ।’
गुरु नानक सहसा गंभीर बन गये । बोले, ‘अगर ऐसा है तो तू मेरे आदेशानुसार नहीं चला है । मेरी आज्ञा का पालन नहीं किया तूने ।’
‘कौन सी आज्ञा ?’
‘नहीं समझा ? बीमार की शूश्रुषा करने कि आज्ञा । यहाँ मेरे दर्शन को आने की आवश्यकता न थी । सच्ची आवश्यकता तो बीमार मित्र की सेवा करने की थी । इसलिए उसे अकेला छोड तू यहाँ आया यह अच्छा नहीं किया । मेरे दर्शन करने की अपेक्षा मेरे संदेश को जीवन में अनुवादित करने की जरुरत है । जो जीवमात्र में परमेश्वर को देख उन्हीं की सेवा में तत्पर रहता है वही धन्य है । सिक्ख को चाहिए की वह सदैव संतोषी, सत्परायण व करुणार्द्र बनें । किसी को भी अपने कर्तव्य का त्याग नहीं करना है ।’
गुरु नानकदेव के इन शब्दों ने सब पर नया प्रकाश डाला । उस सिक्ख सज्जन को भी नयी प्रेरणा मिली । उसने अपने मन को बडे प्यार से अपने बीमार मित्र की सेवा में लगा दिया ।
नानकदेव की वह घटना और उपदेश के वे शब्द पुराने हो गये है, परंतु उनका संदेश तनिक भी पुराना नहीं हुआ । वह सनातन है । इस संदेश का आचरण करने की आवश्यकता है । लोग सत्संग करते है, देवदर्शन जाते हैं, तीर्थयात्रा करते हैं, वह अच्छा है, उसका अपने स्थान में महत्व भी है किन्तु उसका आश्रय लेनेवाला यदि घर, परिवार या समाज संबंधित अपने कर्तव्य के प्रति उदासीन रहे या उसकी उपेक्षा करे तो यह आदरणीय या अभिनंदनीय नहीं है । दूसरों की सेवा का धर्म सबसे बडा है यह सदैव याद रखना है ।
- श्री योगेश्वरजी
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