यह वक्त बदलाव का है । पुराने खयालात बदल रहे है और नये विचार अपनी जगह बना रहे है । लोग आजकल भौतिक सुधार की बातें ज्यादा करते है और आत्मिक उन्नति की उपेक्षा हो रही है । यह बात अपने आप में चिंताजनक है । बुद्धिमान लोग ये मानने लगे है की इश्वर जैसा कुछ नहीं है । जो धर्म में आस्था रखते है और अपने आप को धार्मिक कहलाते है, उनमें से बहुत थोडे एसे है जो सत्य धर्म का पालन करके ईश्वर का साक्षात्कार करने के लिये उत्सुक है । साधारण आदमी को जितनी दिलचस्पी घर, खानेपीने, धन-वैभव, शारिरीक सुखोपभोग, दारु-शराब-जुआ, बीजली या यंत्रो में है, उतनी धर्म, इश्वर या आत्मोन्नति में नहीं है । एसी हालत में इस आत्मकथा का प्रसिद्ध होना स्वयं एक उपलब्धि है ।
जीवन को पूर्ण, मुक्त और प्रभुमय करने के लिए की गई मेरी साधना से कतिपय बुद्धिजीवियों को आश्चर्य होगा, उनके मन में शंका उठेगी, और वो सोचने पर मजबूर होंगे । मगर उन्हें ये याद रखना होगा की ये कोई कल्पनाकथा नहीं है, ये मेरे जीवन की हकीकत है । तभी उनको जीवन-विकास की प्रेरणा मिलेगी ।
इस आत्मकथा में सभी के लिये कुछ-न-कुछ उपयोगी सामग्री भरी पडी है । जो आत्मोन्नति के मार्ग पर चलना चाहते है, उनके लिये जीवनविकास की प्रेरणा है । पथभ्रांत और हताश साधकों को लिये इसमें नवजीवन की राह है । इस आत्मकथा के प्रसिद्ध होने से संसार की आध्यात्मिक संपदा में थोडी भी वृद्धि होती है, तो मेरा लेखन का श्रम सार्थक है ।
मेरे लिये यह आत्मकथा, मेरे अक्षरदेह से की गई विविध तीर्थों की महामूल्यवान मंगल यात्रा है । जैसे कोई पथिक पीछे मुडकर, अपनी प्रगति को देखकर, संतोष का अनुभव करता है, वैसे ही मैं अपने जीवन के बीते हुए लम्हों के बारे में सोचकर गहरे आत्मसंतोष का अनुभव करता हूँ । बचपन से मुझे रोजनीशी लिखने की आदत थी । इससे मुझे बहुत लाभ हुआ और यही कारण है की ये प्रवृत्ति लंबे अरसे तक जारी रही । जीवन का तटस्थ मूल्यांकन करके उसे शब्दों में बयाँ करने की मेरी प्रिय प्रवृत्ति आज ईश्वर की प्रेरणा का पुरस्कार पाकर इस आत्मकथा के रुप में प्रस्तुत होने जा रही है । मेरी रोजनीशी मेरी आत्मकथा में परिवर्तीत हो रही है, इसका मतलब ये नहीं है की इसमें मेरे जीवन की सभी बातें है । इसमें सिर्फ वो बातें शामिल की गई है जो मुझे प्रसिद्ध करने योग्य लगी । आत्मकथा का लेखन करनेवाले व्यक्ति को अपने जीवन की सभी बातें प्रसिद्ध करने की जरूरत नहीं है । जो लोगों के लिये उपकारक और प्रेरणादायी हो, उसे ही लोगों के आगे रखना चाहिए, एसा मेरा मानना है । फिर भी इसमें मेरे जीवन की लगभग लगभग सभी बातें है, एसा कहूँ तो वो गलत नहीं होगा ।
इस कथा की ज्यादातर बातों का तालुक्क आध्यात्मिकता से है । इससे किसीको हैरानी नहीं होनी चाहिये । मेरा अब तक का जीवन आत्मिक उन्नति के प्रयासों में खर्च हुआ है इसलिये आत्मकथा में इसका प्रतिबिंब नहीं होगा तो और क्या होगा ? हमारे यहाँ कहावत है की जो भीतर होता है वो ही बाहर आता है । इसके मुताबिक जो मेरे जीवन में है, वो मेरी आत्मकथा में होगा । गुलाब के बगीचे से गुलाब की महेंक आयेगी । आम्रवृक्ष पर आम ही लगेंगे । सरिता में जल के अलावा और क्या होगा ? जैसे एक राजनीतिज्ञ का जीवनवृतांत सियासत की बातों से भरा होता है, सैनिक की जीवनकथा में सेना, युद्ध और शूरवीरता की बातें होती है, इसी तरह एक साधक या अध्यात्म-पथ के पथिक की जीवनकथा में साधना और आध्यात्मिक बातों के अलावा और क्या होगा ?
कुछ लोगों का मानना है की आध्यात्मिक अनुभव तथा साधना की बातों को गुप्त रखनी चाहिये, उसे सार्वजनिक करना ठीक नहीं है । ये बात कुछ हद तक ठीक है, मगर उसे पकडकर बैठे रहना मुझे अच्छा नहीं लगता । साधना की गुह्यता में विश्वास करनेवाले संतो ने भी अपने अनुभवों को मानवजाति के मंगल के लिये अपने भक्तों से बाँटे थे । फिर ये बातें, किसी-न-किसी रूप में प्रसिद्ध हुई है । इशु, बुद्ध, रामकृष्ण परमहंस, रमण महर्षि या अरविंद जैसे महापुरुषों की एसी बातों से लोगों का भला हुआ है, उनको प्रेरणा मिली है । आत्मोन्नति और धर्म की ज्योत प्रज्वलित रखने में इसने अहम भूमिका अदा की है । जो निराश, नाउम्मीद या निरुत्साह हो चुके थे, उनके जीवन में नया जोश, उत्साह तथा प्राणों का संचार किया है । इसलिये मेरा मानना है की एसी अनुभवकथा को प्रसिद्ध होना चाहिये । इसका परिणाम अच्छा ही आयेगा, इससे संसार को लाभ होगा और आत्मिक पंथ के प्रवासी को आगे बढने में सहायता मिलेगी ।
फिर भी ये बात इश्वरी प्रेरणा और व्यक्तिगत रुचि पर आधारित है । मैं मानता हूँ की इश्वरी प्रेरणा मिलने पर कोई व्यक्ति अपने अनुभवों को लोगों के आगे रखना चाहें तो इसमें कुछ बुरा नहीं है । जो इश्वर की इच्छा के मुताबिक चलता है, उसे किसी भी बात की कोई चिंता करने की आवश्यकता नहीं होती । हाँ, ये जरूरी है की एसा करने के पीछे उसका मकसद धनप्राप्ति, कीर्ति या लौकिक हेतुओं की सिद्धि न हों । किसीको मददरूप होने की भावना से कोई अपने अनुभवों को बाँटे, इसमें कोई बुराई नहीं है । केवल लोकोपवाद का विचार करके बैठे रहने से कुछ लाभ नहीं होता । कुछ लोग ये कहते है की एसा करने से बहुत सारी विद्या और साधना पद्धति विलुप्त हो गयी और इससे संसार को पारावार नुकसान हुआ है । लोगों की बातों को सुनने की या ज्यादा महत्व देने की जरूरत नहीं है । जरुरत है अपने दिल को पूछकर या इश्वरीय प्रेरणा को जानकर उसका अमल करने की । यही मान्यता से प्रभावित होकर मैं इस कथा की शुरुआत करने जा रहा हूँ ।
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इस दफा जब मैं गुजरात गया तो अहमदाबाद में एक अफसर मुझे मिलने आये । उन्होंने विदेश में अभ्यास किया था । उनके साथ हुई बातचीत के दौरान उन्होंने कहा की हमारे यहाँ पढेलिखे लोगों का एक बडा तबका एसा है जो इश्वर के अस्तित्व में विश्वास नहीं रखता । वो इश्वर-दर्शन तथा अन्य आध्यात्मिक अनुभवों को कल्पना या भ्रम समजता है । इसके बारे में आपका क्या कहना है ? क्या उनकी बातें सच है ? एसे घोर कलियुग में आप इश्वर की बातें करते हो, क्या ये आश्चर्यजनक नहीं है ?
मैंने कहा की मुझे इसमें कुछ आश्चर्यजनक नहीं लगता । ईश्वर और आध्यात्मिकता के बारे में पढेलिखें लोगों की जो राय है, वो ठीक नहीं है । वे सच्ची समज और योग्य शिक्षा से दूर है । हमारे यहाँ बहुत सारे लोग एसे है जो आध्यात्मिक साधना के बारे में कुछ नहीं जानते । फिर भी जब वक्त आता है तो 'मैं भी कुछ जानता हूँ' एसा बताने के लिये चर्चा या विवाद में अपने मिथ्या ज्ञान का प्रदर्शन करते है । एसे लोगों ने आध्यात्मिकता को भारी नुकसान पहूँचाया है ।
जिन्होंने जीवनभर शरीरशास्त्र के बारे में कुछ नहीं जाना, वो दाक्तरी सलाह देने लगेंगे, तो उनकी सलाह का मूल्य क्या होगा ? जिसे संगीत से सूरों की समज नहीं है, वो किसीकी गायकी के बारे में अपना अभिप्राय देगा, तो उसे कौन सुनेगा ? साधना और आध्यात्मिकता के क्षेत्र में भी ये हाल है । जिन्होंने आत्मिक पथ पर कदम नहीं रक्खे, वे इसके बारे में अपनी राय बतानें लगे है, ये ठीक नहीं है । एसा करने से पहले उनको बहुत कुछ सोचने की आवश्यकता है ।
साधनात्मक अभिप्राय देने के पहले उन्हें खुद साधना करनी होगी । लंबे अरसे तक प्रामाणिकतापूर्वक साधना करके उन्हें अपने आप को तैयार करना होगा । अनुभवी महापुरुषों और शास्त्रों के मुताबिक अपना जीवन निर्गमन करना होगा । तब जाकर वो इसके बारे में कुछ कहने के काबिल हो सकेंगे । साधना करते-करते जब तक वो खुद सिद्ध नहीं हो जाते, अपने निर्धारित लक्ष्य की प्राप्ति नहीं कर लेते, उन्हें मौन रहना होगा । सिद्ध महापुरुषों की वाणी में जो बल होता है, वो उनके अनुभव के कारण होता है ।
कभीकभी एसा भी होता है की खुद की लापरवाही या कमजोरी की वजह से साधना करने के बावजूद सिद्धि हासिल नहीं होती । एसी परिस्थिति में उन्हें अपनी गलतीओं को सुधारना होगा, अत्याधिक प्रयास करना होगा । एसा करने के बजाय अगर वो इश्वर और साधना को मिथ्या बताने की कोशिश करने लगेंगे तो इससे किसीका भला नहीं होगा । साधना का यह सबसे बडा भयस्थान है, और प्रत्येक साधक को इससे बचना है ।
ये भी सोचनेलायक है की जिसे साधना का कुछ अनुभव नहीं है, वो साधना और इश्वर के बारे में कुछ कहें, तो हम उनकी बातों को क्यूँ महत्व दें ? इससे बहेतर तो हम उनकी बातें सुनें, जिसने लंबे अरसे तक प्रामाणिक प्रयास करके कुछ हासिल किया है । अनुभवी व्यक्ति की बातें सुनना और उनकी बातों पर अमल करना बुद्धिमानी है ।
मेरी बात सुनकर उस अफसर को तसल्ली हुई । मैं कई साल से साधना के मार्ग पर सफर कर रहा हूँ । इश्वर का शरण लेकर, उसका नम्रातिनम्र शिशु बनकर अपना जीवन निर्गमन कर रहा हूँ । एसा करने से मुझे अनेक अनुभव मिले है । मेरे स्वानुभवों से मेरी श्रद्धा और समज पुख्ता हुई है । तभी तो तर्कवाद के इस जमाने में, मैं इश्वर के साथ प्रेम की अतूट डोर से बँधा हुआ हूँ । इसमें हैरानी की कोई बात नहीं है । अगर किसीको एसा लगें तो ये उनकी कमनसीबी है, यह समज लेना चाहिये ।
बाकी जो कुछ कहना है, वो मेरी आत्मकथा बतायेगी । उसे ठंडे दिमाग से पढने से आपकी काफि सारी शंकाओं का समाधान हो जायेगा । जब ये किताब आपके हाथ में है तो मुझे ज्यादा कुछ कहने की जरूरत नहीं है । जो प्यास कुएँ के पानी से बुझती है, वो सरिता के निर्मल जल से अवश्य बूझेगी, ये बताने की क्या जरुरत है ?