आत्मकथा लिखने की प्रवृत्ति बढ़ रही है । अपने आप में यह एक अच्छी बात है । अलग-अलग विषयों पर लिखी ऐसी किताबें मनुष्य के जीवन-संघर्ष व निज स्वभाव की विशेषताएँ निकालकर बाहर लाती है । मैं उसका स्वागत करता हूँ । बहुत सारे लोग ये मानते हैं कि जिसने अपने जीवन में कुछ हासिल किया हो वो ही अपनी जीवनकथा लिख सकता है, आम आदमी नहीं । ये बात गलत है । आम आदमी के जीवन में भी विशेषताएँ होती है जो ओरों के लिए प्रेरणा की सामग्री बन सकती है । इसी वजह से अगर आम आदमी अपनी जीवनी लिखने की कोशिश करें तो उसका स्वागत होना चाहिए ।
जीवनकथा का लेखन कोई खेल या मनोरंजन की चीज नहीं, उसका उपयोग दिलबहलाव या आत्मविज्ञापन के लिए नहीं होना चाहिए । वह तो अपने आप में एक तपस्या है, जीवन-शुद्धि की साधना है । जीवन को उच्च बनाने के लिए उसका उपयोग होना चाहिए । जो आदमी अपने बीते हुए जीवन के बारे में नहीं सोचता, उससे सिखने का प्रयत्न नहीं करता, वह कदाचित ही ऊपर उठ सकेगा । चिंतन करना अत्यंत लाभदायी है । हाँ, उसे शब्दों में व्यक्त करना आवश्यक नहीं है, वह आदमी की रुचि पर निर्भर करता है । जीवन के समुचे विकास के लिए हमें चिंतन-मनन की प्रक्रिया में जुट़े रहना चाहिए ।
आत्मकथा लिखना अपने आप में एक कला है । लेखक को सावधान रहके उतना ही पेश करना है जो सच हो । अपने आप को बड़े या छोटे बताने से उसको बचना है । उसे न तो आत्म-प्रशस्ति करना है, न आत्मनिंदा । वास्तविकता से जुड़े रहेकर, स्वयं का विवेचक बनना है और अपनी बात कहनी है । मैं भी कुछ ऐसी ही दृष्टि से यहाँ अपनी जीवनकथा प्रस्तुत कर रहा हूँ ।
जैसे की मैने बताया कि आश्रम में हमे अपने बरतन व कपड़े खुद धोने पडते थे, सुबह में पांच बजे उठकर ठंड़े पानी से नहाना पड़ता था, ये सब मुझे उस वक्त अच्छा नहीं लगता था लेकिन बाद में वे आदतें मेरे लिए लाभदायी सिद्ध हुई । आश्रमजीवन के बाद मेरे नसीब में हिमालय में रहना मुकर्रर हुआ था और अगर ये आदतें मैंने न ड़ाली होती तो वहाँ रहना निश्चित ही कठिन हो जाता । आश्रम-जीवन की आदतें मुल्यवान साबित हुई इसलिए मुझे कभी-कभी लगता है कि आश्रमजीवन की तालिम सभी के लिए आवश्यक होनी चाहिए ।
जिसे साधना करनी है उसे सुबह जल्दी उठना चाहिए । आश्रम के दिनों में सुबह जल्दी उठने की आदत ने यहाँ मेरा काम आसान कर दिया । स्वच्छता की ओर मेरे लगाव की वजह भी आश्रम के दिनों ड़ाली गइ नींव थी । मेरे हिमालय-निवास के दौरान लोग अक्सर ये बात करते कि साधु गंदा रहें या स्वच्छ क्या फर्क पडता है ? मुझे देखकर लोग सोचते कि मैं श्रीमंत हूँ इसलिए स्वच्छ रहना पसंद करता हूँ । हकीकत तो ये थी कि आश्रम-जीवन के दौरान मुझमें ये आदतें डाली गई थी और वहाँ गंदगी के लिए हमें दंड मिलता था । ऐसे माहोल में मैंने जीवन के कई साल व्यतीत किये थे इसलिये हिमालय जाकर मैं स्वच्छता की उपेक्षा कैसे कर सकता था ? मैं नहीं मानता कि साधु गंदगी में रहता है और उसे गंदा ही रहना चाहिए ऐसा । जो शुद्धि के स्वामी परमात्मा की उपासना करता है वह खुद कैसे अस्वच्छ रह सकता है ? साधना और साधुजीवन के बारे में लोगों में जो गलत ख्याल है उसे बदलने की आवश्यकता है ।
केवल धनवान लोग ही स्वच्छ रह सकते है ऐसा थोडा है ? गरीब स्वच्छ रह सकता है और श्रीमंत गंदा भी । स्वच्छता कोई श्रीमंत की जागीर नहीं, यह तो सबकी सहचरी होनी चाहिए । हाँ, इसके लिए रुचि और प्रयत्न आवश्यक है । विशेषतः हिमालय के इस प्रदेश में जहाँ गंगा बहती है, लोग नहाने व कपड़े धोने का काम भी हररोज नहीं करते । यहाँ प्रश्न आलस का है नहीं के अमीर या गरीब होने का । लोग चाहे मेरे बारे में कुछ भी सोचे, मैं हमेंशा स्वच्छता का पूजारी रहा हूँ और मुझे इस बात का आनंद और गर्व है । स्वच्छता की भेंट आश्रम-जीवन की देन है ।
आश्रम के दिनों में मुझे क्रिकेट का शौक था लेकिन इतना ज्यादा भी नहीं । कभी-कभी फुरसत के समय में खेला करता था । कसरत सिखाने के लिए हररोज सुबह व्यायाम-शिक्षक आते थे । वो कसरत के अलावा दंड-बैठक, भालाफेंक, गोलाफेंक, लेजीम, लकडीपट्टा, बोक्सिंग व शूटिंग की तालीम देते थे । करीब चौदह साल की आयु तक मेरी व्यायाम में ज्यादा दिलचस्पी नहीं थी । तब तिलक महाराज के जीवन का एक प्रसंग मेरे पढ़नेमें आया । तिलक महाराज का शरीर दुर्बल था मगर उन्होंने ठान ली और दंड-बैठक करना शुरु किया । फलतः कुछ ही समय में उनका शरीर मजबूत व निरोगी हो गया । इससे मुझे प्रेरणा मिली । उन दिनों महर्षि दयानंद सरस्वती की जीवनकथा 'झंडाधारी' मेरे पढ़ने में आयी । उसमें महर्षि के अदभूत शरीर-सौष्ठव व सामर्थ्य की रोचक बातें थी । यह सब पढ़कर मुझे लगा की शरीर की उपेक्षा करना ठीक नहीं है । अगर जीवन में कुछ बनना है और किसी और की सेवा करनी है तो खुद का आरोग्य अच्छा होना चाहिए । आरोग्य न केवल शरीर को सुंदर बनाने के लिए जरुरी हैं मगर आत्मिक साधना के लिए भी उतना ही आवश्यक है । स्वास्थ्य का अनादर करके आत्मिक उन्नति हासिल करने का प्रयत्न करना मूर्खता होगी ।
यह सब सोचकर मेरे मन में कसरत के लिए उत्साह पैदा हुआ । वैसे भी मेरा शरीर दुबला-पतला था और मुझे सरदर्द रहता था । तब मैंने योग के कुछ ग्रंथ पढे । योगिओं के बारे में जानकर मैंने मन-ही-मन महापुरुष बनने का संकल्प किया । कुछ बनने के लिए शरीर को मजबूत करना अति आवश्यक लगा । फिर तो क्या कहना ? मैंने आसन-प्राणायम व दंड-बैठक का प्रारंभ किया । सूर्यनमस्कार व शीर्षासन भी शुरु किया । कसरत के प्रति मेरी जो उदासीनता थी, वो हमेंशा के लिए चली गई । नतीजा यह निकला की मेरे शरीर का पूरा ठांचा ही बदल गया और मेरा सरदर्द हमेशा के लिए गायब हो गया । कसरत करने से न केवल तन बल्कि मन को भी लाभ हुआ । शरीर और मन आपस में जुड़े हैं यह सर्वविदित है । मुझे पहलवान होने की, हाथी जैसे असाधारण बल की, या ज्यादा खाने की इच्छा नहीं थी । मेरी दिलचस्पी तो स्वस्थ और निरोगी शरीर में थी और मुझे कसरत से लाभ हुआ । इसलिए मेरा सब भाई-बहनों को नम्र निवेदन है की अपने आरोग्य को कभी नजरअंदाज मत करो और अपने शरीर को स्वस्थ व निरोगी रखने के लिये पुरुषार्थ करो ।
मैं तो यहाँ तक कहूँगा कि जहाँ जहाँ छात्रालय व छात्रों के रहने की व्यवस्था है वहाँ व्यायाम शिक्षा का प्रबंध अवश्य होना चाहिए । छात्रालय केवल छात्रों का निवास-स्थान नहीं है मगर उनके समुचे विकास का स्थल है । इसीलिए छात्रालय के संस्थापक और छात्रों के मातापिता का यह कर्तव्य है कि वे बच्चों में आरोग्य और कसरत की नींव ड़ाले । इससे केवल वे ही लाभान्वित होंगे ।