न तो मुझे ध्यान कैसे करना उसकी समझ थी न तो उससे जो पाना है वो समाधि के बारे में कुछ पता था । मै यह मानता था कि आँख को बंद करके चुपचाप पड़े रहना और मन को निर्विचार करना उसका नाम ध्यान है । ऐसे प्रयास करने में मुझे आनंद मिलता था । सुबह जल्दी उठकर और शाम ढलने के बाद नियमित रूप से मैं उसका अभ्यास करता । उस दिन और उस क्षण के लिए मैं बेकरार था जब ध्यान में मन एकाग्र हो, देह का भान चला जाए और ईश्वर की झाँकी हो । मुझ में न तो विशेष ज्ञान था, ना कोई साधना की सूझबूझ । मैं था एक साधारण अनभिज्ञ बालक जो साधना के पथ पर अपने पहले कदम रख रहा था । मैं भलीभाँति जानता था कि समाधि में प्रवेश करना बड़े बड़े साधको व ज्ञानीयों के लिए भी कठिन है, फिर भी मन में अतूट विश्वास था कि एक दिन मेरा ध्येय अवश्य सिद्ध होगा । ईश्वर की कृपा के बलबूते पर मेरा जीवन टिका हुआ था ।
गर्मीयों की छुट्टीयों में मैं या तो बड़ौदा जाता या अपने गाँव सरोडा । सरोडा रहेना मुझे ज्यादा पसंद था । जब सरोडा जाता तो हररोज सुबह साबरमती नदी में स्नान करना मेरा नित्यक्रम बन जाता । दोपहर को गाँव से थोडी दूरी पर स्थित सिद्धेश्वरी माता के मंदिर में जाकर प्रार्थना व ध्यान करता । जब बडौदा रहेता तब शाम को राजमहल रोड पर धुमने निकल पड़ता । इन सब के पीछे एकांत में वक्त गुजारने की मेरी प्रकृति कारणभूत थी ।
ऐसी ही गर्मीयों की छुट्टी में एक दफा मैं बडौदा गया था । तब मेरी उम्र करीब सोलह साल होगी । मैं माताजी के भाई, रमणभाई के वहाँ ठहरा था, जो लोहाणा बोर्डींग के मकान में रहते थे । उन के निवासस्थान में एक छोटा सा छज्जा था, जहाँ बैठकर मैं अक्सर किताबें पढता । शाम के वक्त जब अंधेरे की चादर फैल जाती तब वहीँ बैठकर मैं प्रार्थना व ध्यान में जूट जाता । इस तरह कई घंटे मैंने वहाँ बिताये होंगे ।
एक दिन शाम का वक्त था । छज्जे की खिड़की से शाम के रंगो को निहारता मैं खड़ा था । मुझे ध्यान में बैठने का मन हुआ । मैंने अपना आसन जमाया । मुझे ध्यान में बड़ा आनन्द मिला । मेरा मन किसी विशेष प्रयत्न के बिना एकाग्रता की अवस्था में आसीन्न हुआ । शायद एक घंटे के करीब वक्त गुजर गया । ध्यान समाप्त करने हेतु मैंने अपनी आँखे खोलनी चाहि । जब आँख खुली तो सामने जो दृश्य दिखाई दिया उससे मुझे अपने आप पर यकीन नहीं आया । लगा कि शायद ये मेरे मन का भ्रम होगा, ईसलिए मैंने अपनी आँखे छटपटायी । ईससे जो दृश्य मैं देख रहा था उसमें कोई बदलाव नहीं आया, वो तो बिल्कुल वैसे ही रुका था । मेरे सामने छज्जे में प्रकाश फैल गया था ओर करीब दो फिट की दुरी पर एक महापुरुष की तेजस्वी आकृति विद्यमान थी । महापुरुष की आँखे बन्द थी और मुख पर अपूर्व शांति छलक रही थी । उन्हों ने पीले रंग का वस्त्र धारण किया था । उनके लंबे और काले बाल किसी प्राचीन ऋषिवर की तरह जटा में बंधे हुए थे । वो मेरे करीब थे और साफ दिखाई दे रहे थे । मैंने उनके कई चित्र देखे हुए थे ईसलिए ये पहेचानने में दिक्कत नहीं हुई की वो भगवान बुद्ध ही थे ।
मैंने रामकृष्णदेव के जीवनचरित्र में उनको हुए दिव्य दर्शन के प्रसंग पढे थे, अतः इस दर्शन के बारे में मुझे संदेह नहीं हुआ । त्याग व करुणा की मूर्ति और अहिंसा के साक्षात अवतार, भगवान बुद्ध, कृपा करके मुझे दर्शनलाभ देने प्रस्तुत हुए थे । त्याग व तपस्या से भरे उनके उन्नत जीवन के बारे में मैं पढ चुका था और उससे प्रेरणा पाकर आत्मोन्नति के शिखर सर करने की महत्वकांक्षा का उदय मुझ में हुआ था । क्या मुझे दर्शन देकर इस पथ पर प्रोत्साहित करने वो पधारे थे ? या उनके साथे मेरा कोई पुराना नाता था जिसकी याद दिलाने वो प्रकट हुए थे ? मैंने तो साधना के पथ पर अपने पैर रखना अभी प्रारंभ किया था । ज्ञान, भक्ति व योग के रहस्यो से मैं अनजान था । मुझमें ऐसी कोई विशेष योग्यता नहीं थी फिर भी ईश्वर की कृपा से उनके दर्शन मुझे हो रहे थे । ईश्वर कब कैसे और किस जीव पर अपनी कृपावर्षा करते है वो भला कोन जान सकता है ? जब बड़े बड़े ज्ञानीपुरुष ईसके बारे में कुछ कहने में असमर्थ है तो मैं क्या कहूँ ?
मैं तो बस उनके दर्शन में लीन हो गया । कितना अलौकिक दर्शन था ! उनके रूप को निहारते मेरी आँखे थकती नहीं थी और अंतर एक अपूर्व आनंद का अनुभव कर रहा था । करीब पाँच मिनट तक ये दर्शन जारी रहा । फिर भगवान बुद्ध के सीने पर बडे बड़े रूपेरी अक्षरो में एक के बाद एक करके यु-गा-व-ता-र लिखा गया । अक्षर गुजराती में थे और क्रमबद्ध ढंग से प्रकट होते चले । थोडी देर के बाद भगवान बुद्ध की आकृति क्षीण होने लगी और फिर धूँधली होकर आसपास के वायुमंडल में बिखर गई ।
खुली आँख से किसी महापुरुष के दैवी दर्शन का ये पहला अवसर था । मेरा उत्साह इससे कई गुना बढ गया । किसी भी साधक के जीवन में ऐसे अनुभवो से उत्साह व श्रद्धा में बढोतरी होना स्वाभाविक है । लेकिन मेरे कहने का ये मतलब नहीं है कि सभी साधको के लिए ऐसे अनुभव आवश्यक है । जिनको ऐसे अनुभव न हो उसे भी बिना निराश हुए साधना पथ पर उत्साह से आगे बढना है ।
रामकृष्णदेव ने कहीं पर बताया है कि कई पैडों को पहले फल और बाद में पुष्प आते है, अर्थात् कई साधको को पहले अनुभव होते है ओर बाद में वो साधना करते है । क्या मैं तो उनमें से एक नहीं था ? किसी विशेष साधना किये बिना मुझे ऐसा अदभूत अनुभव मिला था । शायद मेरे जन्मांतर संस्कार उनके लिए कारणभूत थे ।
आज भी भगवान बुद्ध की वो अलौकिक आकृति मेरे मनोदर्पण में साफ दिखाई पडती है । इस दर्शन के बाद उनके प्रति मेरा आदरभाव और प्यार बढ गया । मेरे दिल में उनके प्रति तब कुछ सविशेष भाव नहीं थे, फिर भी करुणा करके उन्होंने मुझे दर्शन दिया, तो जो लोग उन्हें बडे ही आशा, श्रद्धा व प्यार से पूजते है, उनको क्या वो निराश करेंगे भला ? करुणा की मूर्तिरूप भगवान बुद्ध को मेरे अनेकानेक वंदन है ।