शादी-ब्याह सभी मनुष्य के जीवन में, फिर चाहे वो पुरुष हो या स्त्री, काफि अहम भूमिका निभाती है । गाँव से लेकर शहर तक सब लोगोंने जीवन की अनिवार्य आवश्यकता के रूप में उसका स्वीकार किया है । वे मानते है की शादी के बिना जीवन बेमतलब है । मेरा छोटा-सा गाँव, सरोडा उससे अछूत नहीं था । अपने बच्चों को शादी करके ठिकाने लगाने की फिक्र सभी माँ-बाप को रहा करती थी । इसी कारणवश बहुत कम उम्र में बच्चों का विवाह करना और फिर जल्दी से शादी निपटा लेना आम बात बन गई थी । जितनी फिक्र वे लोग अपने बच्चों के शादी-ब्याह की करते थे उनसे अगर आधी भी उनकी पठाई और सुधार के लिए करते तो क्या कहेना ? मगर परिस्थिति कुछ उल्टी थी । बच्चों को अच्छे संस्कार देना, पढाकर बड़ा आदमी बनाना, औऱ बाद में पुख्त उम्र पर उनकी शादी करना – सामान्यतः ऐसा नहीं होता था । इसी वजह से जब मै बंबई में पढाई कर रहा था तब गाँव के बड़े-बुझूर्ग और रिश्तेदारों ने मेरी शादी की बात छेडी । मेरी अच्छी पढाई और मेरे शालीन स्वभाव से परिचित लोगों ने अच्छे खानदान से न्यौते लाने शुरु किये, लेकिन जब उनको पता चला कि मुझे शादी करने में कोई दिलचस्पी नहीं है तब उन्हें बड़ा आश्चर्य हुआ । मेरी सोच गाँव के अन्य लोगों से बिल्कुल अलग थी । गाँव में अब तक किसीने शादी से ईन्कार नहीं किया था । लोग तो कर्ज लेकर, पहचानवालों से बिनती करके, किसी भी तरह शादी निश्चित करने में अपना बडप्पन समझते थे उनको मेरा यह रुख समझ में न आये ये बड़ा स्वाभाविक था ।
शादी के बगैर जीवन निरर्थक है एसा सोचनेवाले सभी लोगों को मेरी बात से बड़ा धक्का लगा । अपनी मनपसंद युवती न मिलने पर लडके कंवारे रहते है, या तो अच्छा लड़का न मिलने पर लड़की को थोडा ईंतजार करना पड़ता है, ये बात उनकी समझ में आती थी, मगर एसी किसी मजबूरी न होने पर मेरा शादी के लिए मना करना उन्हे विचित्र लगा । मैंने शादी का साफ ईन्कार किया तो लोगों में तरह-तरह की बातें होने लगी । कोई कहने लगा कि 'वो तो बंबई चला गया और अंगरेजी पढने लगा इसलिए उसे गाँव की कन्या थोडी पसंद आयेगी ? देखना, वो तो कोई शहरी लडकी से शादी बनायेगा ।' तो ओर कोई अंग्रेजी पढाई को दोष देने लगा, 'अंग्रेजी पढने से सबकी बुद्धि भ्रष्ट हो जाती है, तो इस में भला उसका क्या दोष ?' कोई बुझूर्ग कहने लगा, 'शहर जाकर पढने में यही बुराई है, मगर मैं मानता हूँ कि कुछ देर तक ना कहने के बाद ये अपने आप मान जायेगा और शादी के लिए राजी हो जायेगा ।' कई लोग तो यहाँ तक कहने लगे कि 'हमें शायद पता नहीं, मगर उसको कोई गुप्त रोग हुआ होगा, वरना वो शादी से मना क्यूँ करेगा ?' कुछ समझदार लोग कहने लगे, ''उसका मन अभी पढाई में है इसलिए वो शादी से मना कर रहा है, शादी करेगा तो फिर पढाई कैसे करेगा ?' तर्क जो भी हो, मगर एक या दूसरे वजह से मेरी शादी की बात पूरे गाँव में फैल गई ।
मेरी आंतरदशा से सब अज्ञात थे । चौदह साल की छोटी उम्र से मेरे जीवनमें जागृति की लहर चल पडी थी और मेरे सुषुप्त आत्मिक संस्कार जाग्रत हो उठे थे । पीछले चार साल में मानो मेरा पूरा क्लेवर बदल गया था । पवित्र और संयमी जीवन बीताकर ईश्वर का साक्षात्कार करने की मैंने ठान ली थी । उस वक्त आत्मिक उन्नति के अलावा ओर कुछ मुझे नहीं भाता था । जब शहर के पढे-लिखे और समझदार लोगों को मेरी अवस्था से विस्मय होता था तो गाँव के अनपढ लोग उसे कैसे समझ पाते ? उनकी उल्टी-सीधी बातों को मैं ज्यादा महत्व नहीं देता था और जब भी मौका मिले तब अपनी बात समझाने की कोशिश करता, फिर भी मेरी बात उनकी समझ में नहीं आई । उनकी विचारधाराएँ अलग थी, उन पर सांसारिक व्यवहार का गहरा असर था । अत्यंत सीमित और संकुचित दृष्टिकोण से वे मेरी बातें कैसे हजम कर पाते ?
मगर मेरी आत्मकथा के पन्नों को पढ चुके वाचकों को मेरी मनोस्थिति का थोडा-बहुत अंदाजा होगा । जैसे की मैंने पहले बताया, स्त्रीमात्र में माँ जगदंबा के दर्शन करना मेरा स्वाभाविक क्रम बन गया था । विशेषतः, वो ब्राह्मण युवती, जिसके बारे में मैंने पूर्व प्रकरणों में जीक्र किया है, उसने मेरे विशुद्धि के प्रयत्नो में काफि सहायता की । ज्यादातर लोग शरीरसुख की कामना से विवाहित जीवन में प्रवेश करते है । वो अपनी ईन्द्रियों पर काबू पाना नहीं जानते, एसे प्रयत्न भी नहीं करते । एसी परिस्थितियों में शादी अनिवार्य हो जाती है । शारीरिक आवेगों की पूर्ति के लिए लग्नजीवन में प्रवेश करने की मुझे कोई आवश्यकता नहीं थी । अगर व्यक्ति संयमी और प्रभुपरायण बनने की कोशिश करेगा तो उसे शादी की उतनी जरूरत महसूस नहीं होगी । ज्यादातर लोगों के लिए एसा कर पाना मुश्किल है मगर जो प्रयत्नशील है उन्हें जरूर सफलता मिलेगी ।
व्यक्ति के अंदर विषयसुख की ईच्छा प्रबल हो तो भी वो शादी किये बिना रह सकता है, अगर वो हिम्मत से अपनी इन्द्रियों पर काबू पाने के अपने प्रयास जारी रखे । अगर कामवासना प्रबल न हो तो समान विचारधारा वाले लोग वैवाहिक जीवन में प्रवेश करने के बाद पवित्र जीवन व्यतीत करने के प्रयास कर सकते है और सफल हो सकते है । कई लोग संतान-प्राप्ति की कामना से लग्नजीवन में प्रवेश करते है । विवाहित जीवन में प्रवेश करने के लिए ऐसे कई आकर्षण है, मगर वे मुझे प्रभावित करने में असमर्थ रहे । मेरा सभी ध्यान काम और क्रोध पर विजय पाकर जीवनशुद्धि के प्रयास करने में लगा हुआ था । स्त्रीमात्र में माँ जगदंबा का दर्शन करना मेरा सहज स्वभाव बन गया था । ये पार्श्वभूमिका की वजह से शादी की बात मुझे न जची । मेरी मनोदशा से अनभिज्ञ और पूर्णतया अज्ञात ग्रामजन उसे समझ न पायें उसमें उनका क्या दोष ?
ईश्वरकृपाप्राप्त महान योगीपुरुष बनने की मैंने गाँठ बाँधी थी । उस उद्देश की पूर्ति के लिए वैवाहिक जीवन में प्रवेश न करने की और आत्मोन्नति की साधना में जुट जाने की आवश्यकता थी । शादी करने के बाद आदमी स्त्री, घर, संतान, कुटुंब आदि में फँस जाता है और जीवन का बहुमूल्य समय बरबाद कर देता है । बहुमूल्य मनुष्य-जीवन को व्यर्थ गवाँने की मुझे कोई दिलचस्पी नही थी । मैं तो उसकी हर क्षण को आत्मोन्नति में खर्च करना चाहता था और ध्येय प्राप्त करने के पश्चात अन्य साधको कों साधना में सहायता करना चाहता था । ईसलिए मैंने लग्नजीवन में प्रवेश नहीं किया । हाँ, ये सही है की कई लोगों ने लग्नजीवन में प्रवेश करके आत्मिक उन्नति की साधना की है और सफलता पायी है, मगर मेरे लिये माँ जगदंबा ने भिन्न जीवनपथ निश्चित किया था ।
कुछ साल बाद जब मैं योगसाधना में जुटा तब लंबे अरसे तक एकांतसेवन करने की और किसी महापुरुष की संनिधि में साधना करने की जरुरत महसूस हुई । उस वक्त मेरे अविवाहित होने से मुझे कोई रुकावट का सामना नहीं करना पडा । वैवाहिक जीवन का ख्याल मुझे कभी आकर्षित नहीं कर सका । मैंने ब्रह्मचर्य का पालन करके, आत्मिक विकास के पथ पर अग्रेसर होकर, स्वामी विवेकानंद और महात्मा गाँधी जैसे महापुरुषों के नक्शेकदम पर चलना चाहा । आध्यात्मिक शक्ति से देश की उन्नति के लिए काम करने की मनीषा ने मुझे घेर लिया ।