वर्तमान युग में संयम की एहमियत कुछ कम हो गइ है और सभी जगह विलासीता दिखाई पड़ती है । स्वच्छंदी जीवन व्यतीत करनेवाले लोगों को संयम का महत्व जल्दी समझ में नहीं आयेगा । मगर इससे संयम के महत्व या मूल्य में कोई फर्क नहीं पडता । मैं मानता हूँ कि पूर्ण संयम कर पाना आम आदमी के लिए कठिन है, मगर इसका ये मतलब नहीं की विलास और स्वच्छंदता को बढावा दिया जाय । साधारण आदमी को चाहिए की वो अति संयम और अति विलास - दोनों से बचकर रहें और मध्यम मार्ग पर चलें तथा संयम की प्रतिष्ठा को ही अपना आदर्श मानें । साधनामार्ग के पथिको को चाहिए के वो विलास का संपूर्ण त्याग करें और पूर्ण संयम को अपना आदर्श मानें । आत्मोन्नति की साधना में सिद्धि पाने के लिए पूर्ण संयम अति आवश्यक है अतः साधक को उसकी सिद्धि के प्रयासों में जुट जाना चाहिए । आलसु, सुस्त, अश्लील चलचित्र देखने वाले तथा इन्द्रियोत्तेजक साहित्य पढनेवाले लोगो के लिए संयम कर पाना हिमालय की चोटि को छूने जैसा होगा मगर जो सदग्रंथो का वाचन-मनन करते है, खानपान में शुद्धि व सात्विकता के आग्रही है, सत्संग में रुचि रखते है, उनके लिए एसा कर पाना ज्यादा मुश्किल नहीं होगा । और अगर उनका रास्ता कठिन या रुकावटों से भरा होगा तो भी ईश्वर की कृपा से उन्हें काफि मदद मिलेगी । ईश्वरदर्शन जैसे उच्चतम ध्येय के लिए आवश्यक कठोर परिश्रम के लिए साधक को तैयार रहेना चाहिए । मै अपने स्वानुभव के आधार पर ये बात कह सकता हूँ की संयमपालन तथा प्रार्थना से साधको कों इन्द्रिय-जय करने में काफि मदद मिलेगी ।
मैट्रिक में पास होकर जब मैं गोवालिया टेन्क स्थित जी.टी. बोर्डिंग होस्टेल में दाखिल हुआ तब मेरी उम्र सत्रह साल की थी । काफि अरसे से मैं घर से दूर छात्रालय में रहता था, इसलिए नये माहौल में ठरीठाम होने में मुझे कुछ खास दिक्कत नहीं आई । विशेषतः यहाँ भी मेरा साधना और आंतरशुद्धि का क्रम जारी रहा । माँ के दर्शन की आतुरता वैसी ही बनी रही, स्थान की अदलबदल से उसमें कोई फर्क नहीं पडा । मुझे लगता है कि मेरी आतुरता की वजह कोई अवस्था, वस्तु या व्यक्ति पर निर्भर नहीं थी, मगर मेरी सोचसमझ, विवेकशक्ति पर आधारित थी । इसी कारण परिस्थिति में बदलाव आने पर भी उसकी तीव्रता पहले जैसी बनी रही । विल्सन कॉलेज, जहाँ पर मेरी पढाई हो रही थी, छात्रालय से काफि करीब थी । खास बात यह थी की स्कूल के हिसाब से कॉलेज में पढाई के लिए कम वक्त जाना पड़ता था । इसलिए मैं अपना अधिकांश समय हेन्गींग गार्डन और नरीमान पोंईट के भीडभाड से दूर शांत स्थानों में बिताने लगा ।
बोर्डिंग में सभी छात्रों को सोने के लिए पलंग दिया गया था, मगर मैं बहुधा कमरे की गेलेरी के पास चद्दर लेकर जमीन पर ही सो जाता था । कई छात्रों को मेरे एसे बर्ताव से हैरानी होती थी क्योंकि उनके लिए मौजमस्ती उड़ाने में जीवन का अर्थ निकलता था । कुछ छात्र, जो संयम, सादाई और सुविचार से भरे थे, उन्हें मेरी एसी हरकतें अच्छी लगती थी और वो मेरी प्रसंशा करते थे । संस्था में एसे गुणी छात्रों को देखकर मुझे आनन्द होता था । हमारी संस्था में ज्यादातर छात्र तेजस्वी थी और उसकी वजह ये थी की अच्छे मार्क पानेवाले छात्रों को ही उसमें प्रवेश दिया जाता था । मगर पढाई और संस्कार दो भिन्न बातें है । दोनों का समन्वय होना बहुत कम लोगों में दिखाई पड़ता है । हमारी संस्था के लिए ये बात उतनी ही सही थी ।
जी. टी. बोर्डिंग में फैला हुआ मैदान था, जिसमें टेनिस कोर्ट भी शामिल था । मैदान के एक छौर पर एक पैड था, जो छोटा होते हुए भी मुझे पसंद आया । रामकृष्णदेव की जीवनी में मैने पढा था की वो दक्षिणेश्वर स्थित पंचवटी नामक स्थान में रात होने पर ध्यान करते थे । देह से आत्मा की भिन्नता को दृढ करने के लिए कई दफा वो शरीर के सारे वस्त्र निकालकर ध्यान में बैठते थे । पिछले तीन सालों से मैं भी रात होने पर ध्यान में बैठता था । जी. टी. बोर्डिंग में प्रवेश पाने के बाद मैंने मैदान के उस वृक्ष के नीचे ध्यान करना प्रारंभ किया । रामकृष्णदेव की जीवनी से प्रेरणा पाकर, रात्रि के नीरव अंधकार में मैने वस्त्रहीन अवस्था में ध्यान करने की आदत डाली । एसा करने से मुझे शांति और आनंद का अनुभव होने लगा । रात्रि को जब सब छात्र सो जाते तब मैं ध्यान शुरू करता और करीब ढाई-तीन बजे ध्यान खत्म करके अपने कमरे में वापिस आ जाता । किसीको मेरी यह प्रवृत्ति के बारे में पता नहीं चला क्योंकि मैं जो पैड़ के नीचे बैठता वो अंधरे में था और ध्यान के लिए मैंने रात्रि का वक्त चुना था जब सारे छात्र निद्राधीन रहते थे । इस तरह नये स्थान में मैंने ध्यान के लिए अपना एकांत ढूँढ लिया ।
मैंने सुना था कि मौनव्रत धारण करने के बहुत लाभ होता है । गांधीजी हर सोमवार को मौन रखते थे उस बात से मैं ज्ञात था । इससे प्रेरणा पाकर मैंने भी सप्ताह में एक दिन मौन रहने का निर्णय किया । यूँ भी मैं किसीसे जरूरत से ज्यादा बात नहीं करता था, फिर भी संपूर्ण मौन का ये मेरा प्रथम प्रयोग था । कोलेज में तास के दौरान जब अध्यापक सभी छात्रों की हाजरी लेते थे तब यस सर बोलने की जिम्मेवारी मैंने अपने एक सहाध्यायी को दी थी । वैसे भी छात्रों का काम प्राध्यापक जो उदबोधन करते उसे चुपचाप सुनने का था इसलिए मेरे यह प्रयोग से मुझे कोई बाधा नहीं हुई ।
मौन का वह प्रयोग मेरे जीवन में लंबे अरसे तक जारी रहा । आज भी थोडे बहुत परिवर्तन के साथे उसका अमल जारी है । मौन से मुझे सचमुच काफि सहायता मिली है । मौन धारण करने से निरर्थक शक्ति का व्यय नहीं होता और अपूर्व शांति मिलती है । मौन के ओर भी कई लाभ है मगर सबसे बडा लाभ असत्यभाषण से - अपनी ईच्छा या अनिच्छा से - बच पाना है । साधकों के लिए मौन अत्यंत उपयोगी सिद्ध होता है क्योंकि उससे चित्त की एकाग्रता में मदद मिलती है । मेरे बरसों के अनुभव के बाद मैं ये नतीजे पर पहूँचा हूँ की हरएक आदमी को कम, जीतनी जरूरत हो उतना ही और सत्य भाषण करना चाहिए और किसी की बुराई करने से, निरर्थक तथा असत्य भाषण से बचना चाहिए । एसा करने पर उन्हें अवश्य लाभ होगा । इसलिए मौन को जीवन में उतारने की मेरी सबको गुजारिश है ।