आध्यात्मिक झुकाववाले व्यक्ति, यूँ कहो की जीनका जीवन-ध्येय अध्यात्म है और जो उस पथ पर चलकर कुछ हासिल कर चुके है, वे अपनी मरजी से कोई सांसारिक प्रवृति में जुडते है तो उन्हें लेपन का डर नहीं रहेता । मेरा कहने का मतलब यह है कि निर्लेप रहने के लिए उन्हें विशेष परीश्रम नहीं करना पडता । उनका तन चाहे संसार हो मगर मन का अनुसंधान किसी-न-किसी तरह परमात्मा से बना रहेता है । संसार का कीचड उन्हें मैला नहीं करता, मानो उनसे वे अछूत है । हर किसीके लिए एसा कर पाना संभव नहीं होता, मगर जो एसा कर पाता है, वो ओरों के लिए पूजनीय और आदरणीय बन जाता है ।
यद्यपि यह देखने में आता है कि घर या परिवार के प्रति अपना उत्तरदायित्व निभाने के लिए उन्हें नौकरी या व्यवसाय में जुटना पडता है । जब उनकी प्रवृति का उनके आदर्शो और भावनाओं के साथ मेलजोल नहीं होता तब हालात मुश्किल हो जाते है । मगर संसार का क्रम ही कुछ एसा है की अपनी मरजी खिलाफ हालात से समजौता करना पड़ता है । इसके अलावा उनके पास ओर कोई विकल्प नहीं होता । मेरे साथ कुछ एसा ही हुआ ।
हिमालय जाकर हमेशा के लिए निवास करना मेरे लिए मुश्किल नहीं था, मगर शांति का अनुभव होने पर मैं बडौदा लौट आया । अब बडौदा में पूरे दिन बैठे रहना भी ठीक नहीं था । मुझे मेरे और माताजी के निभाव के लिए कुछ आमदानी की जरूरत थी । हिमालय से लौटते वक्त ट्रेन में मेरी बगल में बैठे हुए मुस्लीम सदगृहस्थ ने मुझे बंबई आनेका निमंत्रण दिया था । मैं चाहता तो उसका स्वीकार कर सकता था मगर कुछ ही दिनों में चरोतर के भादरण गाँव स्थित टी. बी. हाईस्कूल में मुझे नौकरी मिल गई । वहाँ काम करने के बाद गाँव के कन्या विद्यालय में मुझे नौकरी मिली । अतः मैं वहाँ एक साल ओर रुक गया ।
कन्या विद्यालय के आचार्य जशभाई पटेल बडे सज्जन पुरुष थे । उनके आग्रह के कारण मैंने वहाँ काम करना स्वीकार किया था । तकरीबन एक साल काम करने के बाद संचालको की नीति में परिवर्तन आया । उन्होंने गाँव के स्थानिक शिक्षको को अग्रताक्रम देने का निर्णय किया । इसके फसस्वरूप मुझे भादरण छोडकर वापिस बडौदा आना पडा ।
भादरण गाँव शिक्षित और विकासशील माना जाता था । राष्ट्रहित की प्रवृत्तियों में गाँव के बहुधा लोग शामिल थे । पशाभाई जैसे कुछ लोग अपने योगदान से पूरे चरोतर में प्रसिद्ध हो चुके थे । गाँव की रचनात्मक प्रवृत्तियों में उन्हें दिलचस्पी थी । पशाभाई व्यायामप्रिय और सात्विक प्रकृति के सज्जन पुरुष थे । उनकी प्रेरणा से गाँव में व्यायाम की सुविधा के लिए अखाडा शुरु किया गया था । सुबह की समुह प्रार्थना अब वहाँ होने लगी । व्यायाम शिक्षण के अलावा चरखे से खादी बुनने की प्रवृति का वहाँ प्रारंभ हुआ । गाँव में खादीभंडार लगाया गया जहाँ खादी से बनी चिजों की बिक्री होने लगी ।
टी.बी. हाईस्कूल की बगल में कन्या विद्यालय और उसके ठीक पास अखाडे का मकान था । उसकी बगल में छात्रों के निवास के लिए बोर्डिंग की व्यवस्था थी । शुरु में मेरे रहने की व्यवस्था बोर्डिंग में की गई । जब मैं वहाँ रहता था तो छात्रो को दो दफा, सुबह-शाम समूह प्रार्थना तथा योग में रुचि रखनेवाले छात्रों को योगासन सिखाता था । पशाभाई के आग्रह पर मैंने कुछ दिनों तक अखाडे में युवको को योगासन सिखाये । पशाभाई सही मायने में एक सच्चे स्वयंसेवक तथा गाँव के हितेच्छु नेता थे । उन्हें आसन और योग पर अधिक प्रेम था । वे खुद भी कुशलता से शीर्षासन ओर कई अन्य आसन करते थे ।
छात्रालय में कुछ वक्त निवास करने के बाद गाँव के बाहर बोरसद रोड स्थित एक मकान में मैंने निवास किया । कन्या विद्यालय में पढानेवाले अंबालाल भाई भी मेरे साथ रहे । उनका स्वभाव मोजीला था । मुझे उनके साथ रहने में मजा आता था । मकान काफि बडा था और मकान-मालिक आशाभाई ने उसे बडे प्यार से हमें बिना किराये रहने के लिए उपलब्ध करवाया था । मकान का एक कक्ष ध्यान-भजन के लिए अलग रखा गया था । वहाँ बैठकर हम सुबह में ध्यान करते थे । कुछ महिने वहाँ रहने के बाद हमने गाँव में दुसरा मकान ढूँढ लिया ।
हमारे देश में शिक्षकों को कुछ कम वेतन मिलता है । जिनके सर पर राष्ट्र के भावि नागरिको को तैयार करने की जिम्मेवारी है और जिनसे राष्ट्रनिर्माण के लिए ज्यादा योगदान की अपेक्षा है एसे शिक्षको का मुआवजा बिल्कुल साधारण है । कुछ शिक्षको को इतना कम मुआवजा मिलता है कि उन्हें अपने परिवार की गुजरबसर करने में दिक्कत पडती है । कहीं एसा लगता है कि शिक्षकों को आम मजदूर से भी कम मुआवजा मिलता है । एसे हालात में आर्थिक समस्या के समाधान के लिए उन्हें ट्यूशन का सहारा लेना पडता है । सरकारी नोकर और अमलदार से शिक्षकों के वेतन असमान होने के कारण ज्यादातर लोग सरकारी नोकरी या अमलदार बनना पसंद करते है । उसका परिणाम यह आता है कि देश के निर्माणकार्य में वे अपना हिस्सा नहीं दे पाते । जो लोग शिक्षकों के मुआवजे की समीक्षा करते है उनसे मेरा अनुरोध है कि पढाने के उमदा कार्य में जुटे सब शिक्षको को देश की तरक्की का महत्वपूर्ण हिस्सा समझकर उचित मुआवजा दें ।
मेरी हालत अन्य लोगों से कुछ खास अलग नहीं थी । मैंने कई दफा भादरण छोडकर कहीं ओर जाने की कोशिश की । पेटलाद में उन दिनों एक नया छात्रालय खुलनेवाला था । मैंने गृहपति के स्थान के लिए वहाँ अपनी अरजी भेजी । छात्रालय के ट्रस्टीओंने मुझे नियुक्तीपत्र दीया मगर संजोगवश मैं वहाँ नहीं जा सका ।
भादरण के निवास दौरान मेरा प्रेरणादायी धार्मिक किताबें पढने का क्रम जारी रहा । भादरण के शांति आश्रम में साधुसंत आतेजाते रहते थे, इसलिए मुझे सत्संग का सुअवसर मिलता रहता था । सत्संग करने से मुझे लगा की अधिक विकास करना मेरे लिए आवश्यक है । इसके लिए या तो मुझे वापिस हिमालय जाना चाहिए या फिर गुजरात में रहकर सिर्फ आध्यात्मिक प्रवृत्तियों को अपना लक्ष्य बनाना चाहिए । योग में मुझे काफि दिलचस्पी थी इसलिए मेरे मन में योगाश्रम शुरु करने का विचार आया मगर उसके लिए धन की आवश्यकता थी । मेरे पास धन की कमी थी । मुझे एक बार फिर भिक्षु अखंडानंद का स्मरण हुआ । परंतु उन्ही दिनों में भिक्षुजी के देहांत होने की खबर मिली । योगाश्रम खोलने की मेरी ईच्छा अपूर्ण रही । भिक्षु अखंडानंद जैसे संतपुरुष के चले जाने से गुजरात की आध्यात्मिक संपदा मानो चली गई ।
भादरण के निवास दौरान मेरी पुरुषोत्तम भगवान के रिश्तेदारों से जान-पहेचान हुई । पुरुषोत्तम भगवान की दो पौत्रीयाँ – कमुबेन और सीताबेन, पवित्र और धार्मिक वृत्ति की थी । कमुबेन कर्वे युनिवर्सीटी में पढाई करती थी और छोटी सीताबेन हाईस्कूल में । सीताबेन कई बार पढाई के लिए मेरे पास आती । वो बडी हिंमतवान तथा पढाई में कुशल लडकी थी । दोनों बहने अपनी माता के साथ रहती थी । पिता की ओर से उन्हें किसी प्रकार का सहयोग नहीं मिलने पर भी अपनी महेनत और लगन से दोनों बहनें अच्छी पढाई करती थी । कुछ महिने तक उनके साथ मेरा परिचय रहा । उनके उत्तम चारित्र्य की छाप मेरे मानसपट पर अंकित हो गई ।
करीब देढ साल निवास करने के बाद मैंने भादरण को अलविदा कहा । भादरण जैसा संस्कारी गाँव छोडकर मैं वापिस बडौदा आया । शायद ईश्वर की यही मरजी थी । अगर मैं भादरण में रहता तो मेरा जीवन एकांगी हो जाता । ईश्वर की योजना मुझे विविध अनुभव प्रदान करने की थी । मेरे जीवन में एक बार फिर परिवर्तन का योग आया ।