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Swargarohan | સ્વર્ગારોહણ

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आँख फरकने की बात क्या सच है ? मैं यह दावे से तो नहीं कह सकता मगर जब मैं हरिद्वार था तो मेरी दाहिनी आँख बार बार फरक रही थी । ऋषिकेश आने पर पता चला की लक्ष्मीबाई दो दिन पहले इस दुनिया को अलविदा कर चुकी थी । विशेषतः मेरे प्रति बुरे बर्ताव के लिये वह दुःखी थी । लक्ष्मीबाई चल बसी और वह जिस धर्मशाला को अपनी कहेने का दावा कर रही थी वो यहाँ-की-यहाँ पडी रही । दुनिया में अपना कुछ है ही नहीं, बडे-से-बडे महीपति को भी यहाँ से खाली हाथ जाना पडता है । यह जानते हुए भी इन्सान अहंकारी होकर ऐसे काम करता है जो उसे नहीं करने चाहिए । वह बुद्धिमान है जो सावधान रहकर कर्म करता है, जीवनपर्यंत शुद्धि की साधना करता है, ताकि जब यहाँ से चलने का वक्त आऐ तब वह हँसता हुआ जा सके, शांतिपूर्वक जा सके ।

यह ईश्वर की कृपा और लक्ष्मीबाई का सौभाग्य था अंतिम क्षणों में उसे अपनी गलती के लिए पछतावा हुआ । पश्चाताप के अग्नि में झुलसकर, पवित्र होने से आत्मा अगले जन्म में सुबुद्धि और अच्छी गति प्राप्त कर सकता है । पश्चाताप आत्मा का मंगल करता है । मैने यह भी सुना की मेरे प्रति बुरे बर्ताव के लिए उसके मन में माफि माँगने का खयाल आया था । हालाकि मेरे मन में उसके प्रति किसी भी तरह का द्वेषभाव नहीं था । मेरे दिलमें उसके लिए अनुकंपा थी । उसे सदबुद्धि मिलें और वह अच्छा बर्ताव कर सकें इसके लिए मैं ईश्वर से प्रार्थना करता था । मैं जानता हूँ के आम आदमी के लिए एसा कर पाना अत्यंत कठिन है । ऐसे वक्त में सामान्यतः आदमी गालीगलोच और बदले की भावना का शिकार हो जाता है । विरोधी व्यक्ति को किसी भी प्रकार से पाठ पढाने की सोचता है । मगर प्रार्थना, सतत जागृति एवं ईश्वर की परम कृपा से मैं इससे पूर्णतया बच सका । मेरे लिये ये बड़े सौभाग्य की बात है । लक्ष्मीबाई के विरोधी बर्ताव से मुझे एक प्रकार से लाभ ही हुआ – मेरी सहनशक्ति की परीक्षा हुई । साथ में धर्मशाला के काम में से दिल निकलकर ईश्वर की आराधना में लगा ।

लक्ष्मीबाई के प्रति मेरे मन में कटुता की भावना क्यूँ हो भला ? किसी के प्रति प्यार या वैर होने के कई कारण है, जिनमें से एक प्रारब्धकर्म भी है । मैं यहाँ एसा क्यूँ हुआ उसके संभवित कारणों के बारे में बहस नहीं करना चाहता । मैं तो सिर्फ यह कहना चाहता हूँ की अध्यात्म पथ के पथिकों को वैर से बचना है और सबको प्यार करना है । और ऐसा करते हुए अंत में राग और द्वेष - दोनों से परें होना है । यह काम कठिन अवश्य है, मगर नामुमकिन नहीं । ईश्वर की कृपा और सतत साधना से कुछ करना असंभव नहीं है ।

लक्ष्मीबाई की मौत होने से धर्मशाला का मेरा काम आसान हुआ । हालाकि ट्रस्टीओं ने वकील नियुक्त करके कोर्ट में केस दाखिल करने की तैयारी की थी और लक्ष्मीबाईने पंडो की सहायता से लडने की हिंमत भी जुटायी थी । धर्मशाला का प्रश्न आसानी से सुलझने वाला नहीं था, कम-से-कम मुझे ऐसा लगता था । मगर धर्मशालाकी चिंता ट्रस्टीओं को थी, मुझे नहीं । मेरे लिये तो धर्मशाला में लक्ष्मीबाई की गैरमौजूदगी सभी कठिनाईयों का अंत था । यह खयाल से मैं उत्साहित था ।

जब मैं सर्वप्रथम ऋषिकेश आया था तो मेरा प्रमुख ध्येय यहाँ रहकर माताजी को आर्थिक रीत से सहायभूत होने का था । ये भी सोचा था की माताजी को साथ रहने के लिये बुलाउँगा और उनकी देखभाल करूँगा । धर्मशाला में सानुकूल वातावरण हुआ और ऋषिकेश में मेरा दिल लग गया था इसलिये अब होना तो यही चाहिए था कि मैं माताजी को मेरे साथ रहने के लिये आमंत्रित करुँ । मगर तुलसीदासजी कहा है, होवत सोई जो राम रची राखा । बिल्कुल वैसे ही मेरे जीवन में परिवर्तन का योग उपस्थित हुआ । पिछले कुछ सालों में जीवन कई आकस्मिक लगनेवाले परिवर्तनों से गुजर चुका था । इसी घटनाक्रम को आगे बढाते हुए एक ओर परिवर्तन मेरे जीवन के द्वार को खटखटा रहा था ।


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