प्राकृतिक सौंदर्य से आच्छादित दशरथाचल पर हमारे दिन आनंद और शांति से निकल रहे थे । उन दिनों शंकराचार्य रचित विवेकचुडामणी का पठन करने में मुझे बडा आनंद आता था । मैं शंकराचार्यजी के अन्य स्तोत्र भी पढता था । अब मेरा ध्यान विवेकचुडामणी के कथनानुसार आत्म-साक्षात्कार के लिये समाधि में प्रवेश करने में लगा था । शंकराचार्य ने कहा था की जिनके मन में शंका नहीं है और जिनको अपने स्वरूप का ज्ञान हुआ है ऐसे साधक को शांत एकांत स्थान में बैठकर निर्विकल्प समाधि की अनुभूति के लिये प्रयास करने चाहिए । निर्विकल्प समाधि की प्राप्ति करके उसे आत्मा का अपरोक्ष अनुभव करना चाहिए । यह ज्ञानमार्ग के पथिकों के लिये कहा गया था मगर मुझे आत्मानुभव में दिलचस्पी होने के कारण मैंने भी अपने आपको तैयार किया ।
गीता और ज्ञान के कई ग्रंथो में योगसाधना के लिये पवित्र प्रदेश पर जोर दिया गया है । पवित्र, शांत और एकांत प्रदेश में ध्यानादि करने से मन जल्दी एकाग्र होता है । मेरे लिये दशरथाचल के आध्यात्मिक परमाणुओं से भरे वायुमंडल से उचित पवित्र प्रदेश ओर क्या हो सकता था ? मैं अपना पूरा वक्त ध्यान में बीताने लगा । मुझे कुछ भी करके समाधि का अनुभव करना था । मेरी निरंतर कोशिश रही की मन को सभी विषयों से मुक्त करके ध्यान में एकाग्र करूँ ।
जिन्हें समाधि जैसे साधनात्मक अनुभवों की कामना है उन्हें यह समझ लेना चाहिए की निरंतर परिश्रम के बिना एसे अनुभवों की प्राप्ति नामुमकिन है । जिन्हें जल्दी-से-जल्दी साधना के सर्वोत्तम अनुभव-शिखर पर पहोंचना है, उन्हें अपना ध्यान दुन्यवी विषयों से हटाकर केवल साधना में लगाना होगा । उत्साह, खंत, हिंमत और श्रद्धा को बढाना होगा, और प्रमाद का संपूर्ण त्याग करना होगा । ज्यादातर साधकों में उत्साह की कमी देखी जाती है । वे साधना के लिये सर्वस्व त्याग करने को तैयार नहीं होते, और न निरंतर पुरुषार्थ के लिये उत्सुक । अतः साधनामार्ग के उत्तम अनुभवों से वे वंचित रहते है । बहुत कम साधक वहाँ तक पहूँच पाते है, और उसका प्रमुख कारण यह है ।
मगर मेरा अंतर अपूर्व उत्साह से भरा था । निरंतर प्रयास करने में मुझे कोई आपत्ति नहीं थी । आसपास का वायुमंडल सर्वप्रकार से सहायक था । दशरथाचल पर और मेरे कमरे के अंदर – सभी जगह मुझे निरंतर नाद सुनाई देता था । अनुभवी साधकों को भीतर से नाद सुनाई देता है, पर्वत और जंगलो में कई जगह बिना प्रयास और निरंतर नादश्रवण होता है । एसे स्थान संनिष्ठ साधको के लिए आशीर्वादरूप सिद्ध होते है । कुंडलिनी-जागृति के पश्चात साधक को दस तरह के नाद सुनाई देते हैं एसा योग-ग्रंथो में कहा गया है । दशरथाचल पर्वत पर मुझे निरंतर नाद सुनाई देता था, जिससे मेरा मन बिना किसी विशेष प्रयास एकाग्र हो जाता था । जिसके फलस्वरूप तथा ईश्वर की परमकृपा से समाधि का अनुभव करने में मुझे खास कठिनाईयों का सामना नहीं करना पडा । अतिन्द्रिय प्रदेश का द्वार मेरे लिये खुल गया और मेरा मन अपूर्व शांति का अनुभव करने लगा । मेरे हृदय में निरंतर आनंद का अनुभव होने लगा । शुरू में आधे घंटे से लेकर फिर चार-पांच घंटे तक शरीर की विस्मृति होने लगी । मेरे इन अनुभवों से चंपकभाइ को अत्यंत प्रसन्नता हुई ।
विवेकचुडामणी में शंकराचार्यजीने समाधि के महत्व का स्वीकार किया है मगर समाधि का अनुभव कितने समय तक होना चाहिए उसकी बात नहीं की है । उन्होंने कहा है कि, 'जिसका मन एक क्षण के लिये भी परब्रह्म परमात्मा में लीन हुआ, उसका जीवन धन्य हो गया, उसका कुल पवित्र हो गया और उसके मातापिता कृतार्थ हुए, यहां तक की पृथ्वी उसके पावन स्पर्श से लाभान्वित हुई ।' – एसा कहकर उन्होंने आत्मसिद्ध पुरुषों का गौरव किया है । यहाँ उन्होंने समाधि के वक्त पर जोर नहीं दिया मगर उसकी गुणवत्ता पर भार दिया है । समाधि का अनुभव चाहे कितने भी वक्त के लिये हो, समाधि दशा के पश्चात साधक को सर्वत्र परमात्म-दर्शन होना चाहिए । उनका कहेना है की अत्र-तत्र-सर्वत्र परमात्मा का दर्शनानुभव प्रदान करनेवाली क्षणिक समाधि एसा अनुभव नहीं देनेवाली घंटो या महिनों की समाधि से कई गुना बहेतर है । समाधि से कभीकभा सिद्धियाँ हासिल होती है मगर समाधि की मुख्य सिद्धि परमात्मदर्शन है, उसे पाने में समाधि की धन्यता है । शंकराचार्य की यह बात पर गौर करके मैंने सर्वत्र परमात्मदर्शन का घनिष्ठ प्रयास शुरु किया । उससे मुझे अवर्णनिय आनंद की प्राप्ति हुई । अद्वैत के अनुभव से मेरा हृदय भावविभोर हो गया । दशरथाचल पर जानेका एक प्रमुख ध्येय इस तरह साकार हुआ ।
गीता और ज्ञान के कई ग्रंथो में योगसाधना के लिये पवित्र प्रदेश पर जोर दिया गया है । पवित्र, शांत और एकांत प्रदेश में ध्यानादि करने से मन जल्दी एकाग्र होता है । मेरे लिये दशरथाचल के आध्यात्मिक परमाणुओं से भरे वायुमंडल से उचित पवित्र प्रदेश ओर क्या हो सकता था ? मैं अपना पूरा वक्त ध्यान में बीताने लगा । मुझे कुछ भी करके समाधि का अनुभव करना था । मेरी निरंतर कोशिश रही की मन को सभी विषयों से मुक्त करके ध्यान में एकाग्र करूँ ।
जिन्हें समाधि जैसे साधनात्मक अनुभवों की कामना है उन्हें यह समझ लेना चाहिए की निरंतर परिश्रम के बिना एसे अनुभवों की प्राप्ति नामुमकिन है । जिन्हें जल्दी-से-जल्दी साधना के सर्वोत्तम अनुभव-शिखर पर पहोंचना है, उन्हें अपना ध्यान दुन्यवी विषयों से हटाकर केवल साधना में लगाना होगा । उत्साह, खंत, हिंमत और श्रद्धा को बढाना होगा, और प्रमाद का संपूर्ण त्याग करना होगा । ज्यादातर साधकों में उत्साह की कमी देखी जाती है । वे साधना के लिये सर्वस्व त्याग करने को तैयार नहीं होते, और न निरंतर पुरुषार्थ के लिये उत्सुक । अतः साधनामार्ग के उत्तम अनुभवों से वे वंचित रहते है । बहुत कम साधक वहाँ तक पहूँच पाते है, और उसका प्रमुख कारण यह है ।
मगर मेरा अंतर अपूर्व उत्साह से भरा था । निरंतर प्रयास करने में मुझे कोई आपत्ति नहीं थी । आसपास का वायुमंडल सर्वप्रकार से सहायक था । दशरथाचल पर और मेरे कमरे के अंदर – सभी जगह मुझे निरंतर नाद सुनाई देता था । अनुभवी साधकों को भीतर से नाद सुनाई देता है, पर्वत और जंगलो में कई जगह बिना प्रयास और निरंतर नादश्रवण होता है । एसे स्थान संनिष्ठ साधको के लिए आशीर्वादरूप सिद्ध होते है । कुंडलिनी-जागृति के पश्चात साधक को दस तरह के नाद सुनाई देते हैं एसा योग-ग्रंथो में कहा गया है । दशरथाचल पर्वत पर मुझे निरंतर नाद सुनाई देता था, जिससे मेरा मन बिना किसी विशेष प्रयास एकाग्र हो जाता था । जिसके फलस्वरूप तथा ईश्वर की परमकृपा से समाधि का अनुभव करने में मुझे खास कठिनाईयों का सामना नहीं करना पडा । अतिन्द्रिय प्रदेश का द्वार मेरे लिये खुल गया और मेरा मन अपूर्व शांति का अनुभव करने लगा । मेरे हृदय में निरंतर आनंद का अनुभव होने लगा । शुरू में आधे घंटे से लेकर फिर चार-पांच घंटे तक शरीर की विस्मृति होने लगी । मेरे इन अनुभवों से चंपकभाइ को अत्यंत प्रसन्नता हुई ।
विवेकचुडामणी में शंकराचार्यजीने समाधि के महत्व का स्वीकार किया है मगर समाधि का अनुभव कितने समय तक होना चाहिए उसकी बात नहीं की है । उन्होंने कहा है कि, 'जिसका मन एक क्षण के लिये भी परब्रह्म परमात्मा में लीन हुआ, उसका जीवन धन्य हो गया, उसका कुल पवित्र हो गया और उसके मातापिता कृतार्थ हुए, यहां तक की पृथ्वी उसके पावन स्पर्श से लाभान्वित हुई ।' – एसा कहकर उन्होंने आत्मसिद्ध पुरुषों का गौरव किया है । यहाँ उन्होंने समाधि के वक्त पर जोर नहीं दिया मगर उसकी गुणवत्ता पर भार दिया है । समाधि का अनुभव चाहे कितने भी वक्त के लिये हो, समाधि दशा के पश्चात साधक को सर्वत्र परमात्म-दर्शन होना चाहिए । उनका कहेना है की अत्र-तत्र-सर्वत्र परमात्मा का दर्शनानुभव प्रदान करनेवाली क्षणिक समाधि एसा अनुभव नहीं देनेवाली घंटो या महिनों की समाधि से कई गुना बहेतर है । समाधि से कभीकभा सिद्धियाँ हासिल होती है मगर समाधि की मुख्य सिद्धि परमात्मदर्शन है, उसे पाने में समाधि की धन्यता है । शंकराचार्य की यह बात पर गौर करके मैंने सर्वत्र परमात्मदर्शन का घनिष्ठ प्रयास शुरु किया । उससे मुझे अवर्णनिय आनंद की प्राप्ति हुई । अद्वैत के अनुभव से मेरा हृदय भावविभोर हो गया । दशरथाचल पर जानेका एक प्रमुख ध्येय इस तरह साकार हुआ ।