देवप्रयाग के जो मकान में हम ठहरे थे वो पुराना था मगर भीडभाड से दूर था । मकान के उपरी हिस्से में दो कमरे थे जिसमें हम रहते थे । मकान से कुछ दूरी पर पानी का झरना था । नीचे गंगा के दर्शन होते थे और कीर्तिनगर का रास्ता दिखाई पडता था । नैसर्गिक सौंदर्य से भरे उस मकान में हम काफि अरसे तक रहें ।
उन दिनों मैं ज्यादातर कौपीन धारण करता था । हाँ, गाँव में जाते वक्त मैं वस्त्र पहनता वरना लंगोटी से मेरा काम चलता था । जब दशरथाचल पर था तब मैंने सोचा की अब हमेशा के लिये वस्त्रों का त्याग करके सिर्फ लंगोटी पहनूँगा, मगर बाद में मैंने एसा नहीं किया । मुझे लगा की निर्जन प्रदेश में एसा करना शायद ठीक है मगर लोगों के बीच रहने के लिये मर्यादानुसार स्वच्छ और सादगीपूर्ण वस्त्र अवश्य धारण करने चाहिए । अतः विवेक से प्रेरित होकर मैंने आजीवन कौपीन धारण करने का विचार त्याग किया । मेरा निर्णय समजदारी से भरा था ऐसा मैं आज मेरे अनुभव के आधार पर कह सकता हूँ ।
हमारे भारतदेश में ऐसे कई साधुसंत है जो केवल कौपीन पहनते है, कई तो सिर्फ नग्न दशा में रहते है । जब तक वे बस्ती से दूर वन्य या एकांत प्रदेश में रहते हैं, तब तक ठीक है, मगर लोगों की भीड के बिच इस तरह रहना उत्तम, आदरणीय या अनुकरणीय नहीं कहलायेगा । कौपीनधारी पुरुषों से ज्यादा गंभीर प्रश्न बिल्कुल नग्न अवस्था में घूमनेवाले साधुसंतो का है । ऐसे साधुओं का आचार बीभत्स लगता है, और समाज पर उनकी अच्छी असर नहीं होती है । धर्म या साधना के नाम पर ऐसे आचार साधुसमाज में किस तरह फैले और दृढ हुए ये तो मालूम नहीं मगर धर्म, ज्ञान, वैराग्य और साधना के नाम पर उसे महत्व देनेकी कोई आवश्यकता नहीं है ।
हमारे भारतदेश में ऐसे कई साधुसंत है जो केवल कौपीन पहनते है, कई तो सिर्फ नग्न दशा में रहते है । जब तक वे बस्ती से दूर वन्य या एकांत प्रदेश में रहते हैं, तब तक ठीक है, मगर लोगों की भीड के बिच इस तरह रहना उत्तम, आदरणीय या अनुकरणीय नहीं कहलायेगा । कौपीनधारी पुरुषों से ज्यादा गंभीर प्रश्न बिल्कुल नग्न अवस्था में घूमनेवाले साधुसंतो का है । ऐसे साधुओं का आचार बीभत्स लगता है, और समाज पर उनकी अच्छी असर नहीं होती है । धर्म या साधना के नाम पर ऐसे आचार साधुसमाज में किस तरह फैले और दृढ हुए ये तो मालूम नहीं मगर धर्म, ज्ञान, वैराग्य और साधना के नाम पर उसे महत्व देनेकी कोई आवश्यकता नहीं है ।
नग्नता का आत्मिक उन्नति, धर्म, वैराग्य और साधना के साथ दूर तक कोई संबंध नहीं है । धर्म और वैराग्य के नाम पर साधुसमाज में जो कुछ गलत घुस गया है उसमें से यह भी एक है । समजदार लोगों को उसका अनुमोदन या समर्थन नहीं करना चाहिए । सामाजिक स्वास्थ्य के बारे में सोचकर उन्हें मर्यादा के अनुरूप पोषाक पहनना चाहिए । साधुसंतो को यह समज लेना चाहिए की सच्ची साधुता नग्न रहने में नहीं मगर सात्विक होने में हैं और सच्चा वैराग्य मन को विषयों से निकालकर परमात्मा में जोड़ने में है । नग्न रहने से कुछ हासिल नहीं होता, मगर जीवन को उन्नत करने की साधना करने से शांति और मुक्ति के द्वार खुल जाते हैं ।
जिनका विवेक जाग्रत है, उन्हें अपनी मर्यादा को बनाये रखना चाहिये । जो साधु अपने साथ खानेपीने और पहनने-ओढने का सामान रख सकता हैं, वह कौपीन और छोटा-सा कटिवस्त्र क्यों नहीं रख सकता ? ऐसा करने से उनके ज्ञान, वैराग्य और त्याग में कोई बाधा नहीं होगी । मगर ज्यादातर लोग आंतरिक साधना के बजाय बाह्य दिखावे को ज्यादा महत्व देकर अपना जीवन बरबाद करते हैं । ईश्वर की कृपा के बिना इस भ्रमणा से छूटना मुश्किल है ।
हाँ, तैलंग स्वामी, जो की हमेशा नग्न रहते थे, जैसे कुछ महापुरुष इसमें अपवाद हो सकते हैं । मगर हमें उनका अनुसरण नहीं करना चाहिए । उनकी महानता और महत्ता उनकी नग्नता के कारण नहीं परंतु उनके ज्ञान, योगबल और उनकी पवित्रता के कारण थी यह हमें याद रखना चाहिए और इससे प्रेरणा लेनी चाहिए । ऐसा करने से ही हम अपना मंगल कर सकेंगे और सही मायने में महान हो सकेंगे ।
जिनका विवेक जाग्रत है, उन्हें अपनी मर्यादा को बनाये रखना चाहिये । जो साधु अपने साथ खानेपीने और पहनने-ओढने का सामान रख सकता हैं, वह कौपीन और छोटा-सा कटिवस्त्र क्यों नहीं रख सकता ? ऐसा करने से उनके ज्ञान, वैराग्य और त्याग में कोई बाधा नहीं होगी । मगर ज्यादातर लोग आंतरिक साधना के बजाय बाह्य दिखावे को ज्यादा महत्व देकर अपना जीवन बरबाद करते हैं । ईश्वर की कृपा के बिना इस भ्रमणा से छूटना मुश्किल है ।
हाँ, तैलंग स्वामी, जो की हमेशा नग्न रहते थे, जैसे कुछ महापुरुष इसमें अपवाद हो सकते हैं । मगर हमें उनका अनुसरण नहीं करना चाहिए । उनकी महानता और महत्ता उनकी नग्नता के कारण नहीं परंतु उनके ज्ञान, योगबल और उनकी पवित्रता के कारण थी यह हमें याद रखना चाहिए और इससे प्रेरणा लेनी चाहिए । ऐसा करने से ही हम अपना मंगल कर सकेंगे और सही मायने में महान हो सकेंगे ।