उत्तरकाशी नैसर्गिक सौंदर्य से भरपूर, शांत और साधना के लिये अत्यंत सानूकुल स्थान है । उत्तराखंड में ऋषिकेश और उत्तरकाशी जैसे स्थान बहुत कम हैं । उत्तरकाशी में मैदान और पहाड़–दोनों हैं । अन्य पर्वतीय गाँवो की तुलना में उत्तरकाशी बड़ा है । उसका एक ओर नाम बारहाट भी है । उत्तरकाशी में गृहस्थ और त्यागी दोनों की बस्ती है, हाँलाकि दोनों के रहने के स्थान अलग-अलग है । जब हम उत्तरकाशी पहूँचे तब ग्रीष्म ऋतु चल रही थी मगर ठंड बनी हुई थी । रात को कम्बल ओढ़ना पडता था । ज्यादातर लोग सुबह का स्नान सूरज निकलने के बाद करते थे ।
उत्तरकाशी में कोटेश्वर नामक स्थान था, यहाँ के महंत गुजराती थे । उनके अधिकारक्षेत्र में एक ओर स्थान था, जो की उजेली क्षेत्र में पडता था । वहाँ मुझे रहने के लिये एक कमरा मिल गया । वह स्थान कैलास आश्रम के पास था । दो-तीन दिन कुछ संन्यासी महात्माओं के साथ मैं वहाँ रहा । वह आश्रम दसनामी संप्रदाय का था ।
रहने का प्रश्न इस तरह सुलझ गया मगर भोजन की समस्या अब भी थी । कमरे में खाना बनाने के लिये आवश्यक सुविधा का अभाव था । पास में कोई भोजनालय भी नहीं था । मगर इस समस्या का भी समाधान मिल गया । उत्तरकाशी में बाबा काली कमलीवाला तथा पंजाबी क्षेत्र में से भिक्षा दी जाती थी । वहाँ दंडी स्वामी तथा ब्रह्मचारीओं के लिये अलग से रसोई बनती थी, तथा स्वच्छता पर आवश्यक ध्यान दिया जाता था । इसलिये वहाँ से भिक्षा लेने में कोई दिक्कत नहीं थी । दोनों क्षेत्रों को मिलाकर आठ रोटी, भात, दाल और सब्जी मिलते थे । भिक्षा सुबह नौ बजे से दी जाती थी इसलिये स्नानादि तथा व्यायाम से निवृत्त होकर सीधे भिक्षा के लिये जाने का क्रम रक्खा था । उजेली से क्षेत्र के बीच तकरीबन एक मील की दूरी थी । सुबह में चलने-से कसरत अच्छी हो जाती थी । कैलास आश्रम में चिदघनानंद नामक गुजराती महात्मा रहते थे । मैं उनके साथ भिक्षा लेने जाता था । बाद में हम गंगातटवर्ती किसी खडक पर बैठकर भिक्षा को ईश्वरार्पण करते थे, और उसे प्रसादी मानकर खाते थे । कई दफा समडी आकर, हमारे हाथ से रोटी छिनकर, चली जाती थी ।
मेरे पास पितल का एक डिब्बा था । एक दिन भोजन करते समय उसका ठ़क्कन पानी में गिर गया । मैंने ढूँढा मगर वह नहीं मिला, मानो उसने जलसमाधि ले ली । सुबह जो भिक्षा मिलती थी उसमें-से चार रोटी शाम के लिये रखता था, क्योंकि शाम को भोजन के लिये कुछ बंदोबस्त नहीं था । शाम को रोटी के साथ पानी पी लेता था । कभीकभा दोपहर को, गाँव में जाकर दूध पी लेता था । खाने की समस्या इस तरह सुलझ गई ।
उत्तरकाशी में पंजाबी क्षेत्र के बगल में माता आनंदमयी का छोटा-सा आश्रम था । उसकी बगल में जडभरतजी की समाधि थी । हाँ, मैं वही ज्ञानीशिरोमणी जडभरतजी की बात कर रहा हूँ जिनके बारे में श्रीमद भागवत में लिखा गया है । राजा भरत अपनी उत्तरावस्था में सिंहासन त्याग करके वन में गये थे । कुछ वक्त साधना-रत रहने के बाद उनकी ममता की डोर मृगशावक के साथ बंधी थी । देहत्याग के वक्त इसी ममता के कारण उन्हें दूसरे जन्म में मृग होना पडा था । उनका अगला जन्म एक ब्राह्मण के घर हुआ था । पूर्वजन्मों की स्मृति होने के कारण उन्होंने शुरू से ही परमात्मा में प्रीति बनायी थी और युवानी में संसार का त्याग किया था । वे महाज्ञानी और जीवनमुक्त थे मगर बाह्य दृष्टि से अज्ञानी और जड़ मालूम पडते थे । इसलिये उनको जडभरत कहा गया था । उन्होंने राजा रहूगण को जो उपदेश दिया था, वह आज भी अमर है । जडभरतजीने जीवन की अंतिम अवस्था में हिमालय आकर उत्तरकाशी में देहत्याग किया होगा । उसमें किसी को आश्चर्य नहीं होना चाहिए ।
जडभरतजी की स्मृति से मुझे प्रेरणा मिली - संसार की किसी भी चिज में या किसी भी व्यक्ति में ममता या आसक्ति नहीं करनी चाहिए । अगर आसक्ति करनी ही है तो ईश्वर की करनी चाहिए । अनुभवी पुरुष को सदैव आत्मानंद में मग्न रहना है, संगदोष से दूर रहना है और सबमें परमात्मा का दर्शन करना है । मोह का त्याग करके प्रेम को अपनाना है तथा ममता की डोर में न बंधकर निर्भय होना है ।
हिमालय में साधना करने का मेरा स्वप्न प्रभुकृपा से साकार हो रहा था । बंबई के सुविधापूर्ण जीवन की तुलना में हिमालय का यह जीवन कठिनाईयों से भरा था मगर त्यागी और तपस्वीओं का जीवन एसा ही होता है । इन कठिनाईयों में जो अपने आप को सम्हाल सकता है उसके लिये सफल होना मुश्किल नहीं होता । उत्तरकाशी के मेरे निवास से मुझे बेहद शांति और आनंद का अनुभव हुआ । भिक्षा लाकर खाना और स्वैच्छाविहार करना मेरे नसीब में था । भर्तुहरी ने वैराग्य-शतक में लिखा है की
यदेतत्स्वच्छन्दं विहरणमकार्पण्यमशनं ।
सहार्यैः संवासः श्रुतमुपशमैकव्रतफलम् ॥
मनो मन्दस्पन्दं बहिरपि चिरस्यापि विमृशन् ।
न जाने कस्यैष परिणतिरुदारस्य तपसः ॥
'बहोत सोचने पर भी मुझे यह ज्ञात नहीं होता की यह स्वैच्छाविहार, यह दीनता रहित भोजन, यह सज्जनों का संग, यह चित्त को प्रसन्नता और शांति देनेवाला शास्त्रश्रवण तथा यह बाह्य विषयों से उपराम मन–मुझे किस उदार तप के फलस्वरूप मिला है !'
उत्तरकाशी के मेरे निवास के दौरान मैं भी एसा भावानुभव कर रहा था । जैसा की मैंने पूर्व प्रकरणों में बताया था, ज्ञान, योग और भक्ति के प्रवाह मेरे जीवन में शुरु से थे और परस्पर पूरक होकर चल रहे थे । उत्तरकाशी में ज्ञान और ध्यान के प्रवाह प्रबल हुए थे । मैं सर्व जीवों में परमात्मा का दर्शन करता था । ध्यान के वक्त देहभान भूलना मेरे लिये सहज हो गया था । ज्ञान और ध्यान की उच्च अवस्था में स्थित मेरा हृदय अपूर्व धन्यता का अनुभव कर रहा था ।