रमणाश्रम में श्री रमण महर्षि के दर्शन करके मैं सन १९४४ के अप्रैल में हिमालय गया । मेरी ईच्छा देवप्रयाग जाने की थी क्योंकि वहाँ मुझे कई दैवी अनुभव तथा आत्मिक शांति की प्राप्ति हुई थी । मैं देवप्रयाग के माहौल से परिचित था । वहाँ कोई अन्नक्षेत्र नहीं था इसलिये साधु-संत निवास नहीं करते थे । साधुओं की दख़लअंदाजी न होने के कारण मेरा साधनाकार्य निर्विघ्न होगा, एसा मेरा मानना था । मैंने सोचा की अगर देवप्रयाग में रहने का कुछ बंदोबस्त हो जाता है तो वहाँ ही रहकर साधना करूँगा वरना उत्तरकाशी चला जाउँगा ।
ईश्वर ने मेरे साधनात्मक अभ्यास के लिये देवप्रयाग को पसंद किया था । पंडित चक्रधरजी ने आग्रहपूर्वक कहा की मैं उत्तरकाशी न जाउँ और देवप्रयाग में ही रहूँ ताकी उनको मेरा लाभ मिलता रहे । वहाँ रहने के लिये उन्होंने गाँव के बाहर एकांत जगह बताई, जो मुझे देखते ही भा गयी । चारों ओर उँचे-उँचे पर्वत, आसपास फैली हुई आम्रवृक्षों की घटा, निरंतर बहता हुआ झरना तथा नितांत एकांत – एसी जगह भला मुझे क्यूँ पसंद नहीं आती ? मेरी संमति मिलने पर चक्रधरजीने झरने के उपरी हिस्से में लगी झाँडीयों को साफ करवाया और पथ्थरों से बनी छोटी-सी कुटिया का निर्माण करवाया । झरने के रूप में निरंतर बहनेवाली शांता नदी को लेकर मैंने कुटिया का ‘शांताश्रम’ नामाभिधान किया । तीस-चालीस साल पहले इसी जगह में भारतीबाबा नामक साधुपुरुष रहते थे । उन्होंने बडी महेनत करके आम के पैड लगाये थे, इसलिये इस जगह को ‘भारतीबाबा का बगीचा’-के नाम से लोग जानते थे । भारतीबाबा की समाधि पश्चात ये जगह कुछ निर्जन-सी हो गई थी । अब यहाँ शांताश्रम का निर्माण हुआ ।
चक्रधरजी ने कुटिया के प्रांगण में भिक्षा के लिये झोली रखने का सुझाव दिया मगर मुझे गाँव जाकर भिक्षा करने की इच्छा नहीं थी । मैंने शांताश्रम में खुद खाना पकाना प्रारंभ किया । दिन में एक दफा, दाल-चावल से बनी खीचडी पका लेता था । हाँलाकि मुझे खाना पकाना अच्छी तरह से आता नहीं था फिर भी मैं खा सकूँ एसा बनता था । खिचडी के साथ न तो घी था, न दहीं, न दूध-शाक-चटनी या आचार । कई दफा पकाने के बाद मालूम पडता की खीचडी ठीक तरह से पकी नहीं है तो उसे मजबूरन फेंक देना पडता था ।
देवप्रयाग के लोगों में सेवा की भावना कम थी । शायद यहाँ के लोग आर्थिक रीत से सक्षम नहीं थे । मगर ईश्वर की अनंत कृपा से मुझे कभी भी, किसी भी प्रकार की परेशानी का सामना नहीं करना पडा । किसी न किसी के दिल में प्रेरणा करके ईश्वर ने मुझे निरंतर सहायता पहूँचायी । ईश्वर अपने शरणागत भक्तों का हमेशा खयाल रखते हैं – यह बात मैं अपने अनुभव से कह सकता हूँ ।
शांताश्रम का निवास मेरे लिये अत्यंत आशीर्वादरूप सिद्ध हुआ । यहाँ मैंने साधनात्मक अनुभव प्राप्त किये तथा सनातन शांति का अनुभव किया । मैं शांताश्रम को एक तीर्थस्थान मानता हूँ । मेरे दिल में इसके लिये अपार आदरभाव है और हमेशा रहेगा । साधनात्मक जीवन के दौरान हुए कठिन और तीव्र हृदयमंथन तथा उसके फलस्वरूप मिलनेवाले अनुभवों का अमृत – दोनों वजह से, शांताश्रम मेरे लिये अविस्मरणीय रहेगा । शांताश्रम में आकर मैं अपने घर में आया हूँ, एसा महसूस करता हूँ ।
शांताश्रम के प्रारंभ के दिनों में मेरे मन में मंथन चल रहा था । मैं अक्सर सोचता की मेरे शरीरधारण का उद्धेश क्या है ? अन्य साधकों की भाँति मैं ईश्वर-प्राप्ति को जीवनध्येय के रूप में स्वीकार कर चुका था । मगर फिर मुझे जो अनुभव मिले, (जिसका उल्लेख मैं पूर्व प्रकरणों में कर चुका हूँ) उससे यह सिध्ध हुआ की मैं अपने पूर्वजन्म में एक जीवनमुक्त महापुरुष था । तो फिर मेरे वर्तमान जीवन का क्या प्रयोजन हो सकता है ? काफि सोच-विचार करने पर मुझे लगा की शायद जनकल्याण मेरे वर्तमान जीवन का मकसद होना चाहिए । ईश्वर शायद यह चाहता है मैं साधना द्वारा अवनवीन अनुभवों की प्राप्ति करुँ और तत्पश्चात लोकहित के कार्यों में जुट जाउँ । मगर ईश्वर की यही योजना है तो फिर मेरे तथाकथित युगकार्य का स्वरूप कैसा होगा ?
तब भारत में आज़ादी की लडाई पूरजोश में चल रही थी । देश के राजकीय हालात तंग थे । कोई समर्थ महापुरुष जनकल्याण हेतु कार्यान्वित हो तो देश जल्दी आज़ाद हो सकता था । मगर एसा कर पाने के लिये उसके पास असाधारण शक्ति होना आवश्यक था । तभी वो अपना कुछ योगदान दे पाता ।
मैंने भगवान कृष्ण, बुद्ध, इशु, रामकृष्ण परमहंसदेव जैसे कई विभूतिओं के जीवन पढे थे, या उनके बारे में सुना था । भगवान कृष्ण को छोडकर सभी महापुरुषोंने साधना का आधार लेकर परम सत्य का साक्षात्कार किया था । तब जाकर उन्होंने अपूर्व आध्यात्मिक शक्तियाँ हासिल की थी और परमात्मा से अपना संपर्क बनाया था ।
बाइबल में मैंने पढ़ा की ईशुमसिह ने किसीको कहा की तू पूर्ण होगा, और वह पूर्ण हो गया, किसी व्याधिग्रस्त को कहा की तू ठीक हो जायेगा और वह निरोगी हो गया । कई अन्य महापुरुषों के जीवनप्रसंगो का मुझे स्मरण हुआ । समर्थ महापुरुष ज्यादातर एकांत में रहकर अपना जीवन निर्गमन करतें है, इसीलिये उनकी असाधारण शक्तियों का लाभ जनसमाज को उतना नहीं मिल पाता जीतना मिलना चाहिए । अगर एसे महापुरुष जनहित में कार्य करें तो देश व दुनिया को कितना लाभ हो सकता है? हाँ, उन्हें निर्रथक शक्ति-प्रदर्शन नहीं करना है, मगर अपने ज्ञान, अनुभव, तथा शक्तिओं का लाभ जरुरतमंदो को देना चाहिए ।
मेरा मानना था की भारत में एसी लोकोत्तर विभूति प्रकट होगी जो की न केवल भारत को आझाद करेगी बल्कि दुनिया के सभी लोगों के दुःखदर्द मिटाकर शांति का राह दिखलायेगी, महासत्ताओं की बिच की कडवाहट मिटायेगी, तथा विभिन्न धर्मो के बीच भाईचारा तथा एकता की स्थापना करेगी । विचारों के जोश में मुझे लगने लगा की शायद ईश्वर ने इसी हेतु की पूर्ति के लिये मुझे पसंद किया है । और अगर सचमुच एसा है, ईश्वरने मुझे युगकार्य के लिये निमित्त बनाना चाहा है, तो इससे अधिक खुशी की बात मेरे लिये ओर क्या हो सकती है ? मैंने अत्यंत भावविभोर होकर प्रभु से प्रार्थना की, 'हे प्रभु, मेरे गुणदोष को नजरअंदाज करो, मुझे अपने युगकार्य के लिये तैयार करो । मुझसे आवश्यक साधना करवाओ । मैं आध्यात्मिक पूर्णता हासिल करके देश तथा दुनिया के काम आ सकूँ एसा आशीर्वाद दो ।'
मगर सोचने से क्या होता है ? उसे साकार करने के लिये कठिन परिश्रम आवश्यक है । पूर्ण आध्यात्मिक विकास करके शांति और शक्ति की संप्राप्ति करना मेरा लक्ष्य बन गया । मुझे लगा की अब मुझे किसी अन्य हेतु के लिये जीना नहीं है । मुझे साधना में जुट जाना है, समाधि पर पूर्ण काबू पाना है, सिद्धिओं का स्वामी बनना है । मगर समाधि में महारथ हासिल करने के लिये केवल ध्यान काफि नहीं होता, किसी समर्थ महापुरुष का मार्गदर्शन तथा कृपाप्रसाद भी आवश्यक है । मैंने इसी हेतु को लेकर प्रार्थना करना प्रारंभ कीया, व्रत और उपवास भी किये । लोकोत्तर हेतु के लिये साधना तथा उसके लिये आवश्यक व्यक्तिगत विकास का संकल्प करने से मुझे अप्रतिम उत्साह की प्राप्ति हुई ।