बदरीनाथ की यात्रा पूर्ण करके, तकरीबन एक महिने के बाद मैं देवप्रयाग लौटा । देवप्रयाग आने के बाद मेरी तबियत ठीक हुई और पतले दस्त की बिमारी से छुट पाया । बिमारी से मुझे एक बात सिखने को मिली की साधना में पूर्णता हासिल करने के लिये योगी को मन और ईन्द्रियों के अलावा अपने शरीर पर भी काबू करना चाहिए । शरीर पर काबू करने का मेरा मतलब है की शरीर को व्याधि, वार्धक्य और मृत्यु के मुक्त करना । साधारण आदमी यही बंधनों का शिकार हो जाता है । मगर योगी चाहे तो व्याधिमुक्त, नित्य युवा एवं मृत्युंजय हो सकता है । वैसे तो योग का परम लक्ष्य पूर्णता, आत्मदर्शन और सर्वत्र ईश्वरदर्शन है, जिसे आप मुक्ति, निर्वाण या परमशांति का नाम दे सकते है । फिर भी शरीर का जय अपने आप में महत्वपूर्ण है । खास करके हठयोग के साधक एवं नाथ संप्रदाय के साधुओंने शरीरजय को काफि महत्व प्रदान किया है । उन्होंने शरीरजय के लिये आवश्यक क्रियाओं का जीक्र भी किया है । सबकुछ ठीक था मगर पतले दस्त की बिमारी के कारण मुझे बदरीनाथ से लौटना पडा, यह बात मुझे खाये जा रही थी । मुझे अपने शरीर का पूर्ण जय करना था, स्वामी बनना था ।
गीता में कहा गया है की हमारी सभी समस्याओं का मूल हमारा मन है । इसलिये हमें अपनी गलतियों को खोजकर उससे बचना चाहिए । स्वयं का दोषदर्शन साधक के लिये अति आवश्यक है । अगर वह अपनी कमीयों को नहीं ढूँढ पाता, तो उससे मुक्त होने का प्रयास कैसे करेगा ? इसलिये उसे चाहिये की वो अपनी छोटी-से-छोटी गलती को परखे, और उसके निर्मूलन का प्रयास करें । ईश्वरकृपा से मैं अपनी कमीयों को शुरु-से ढूँढता आया हूँ और उसे दूर करने के आवश्यक प्रयास करता रहा हूँ । तभी मेरा इतना विकास हो पाया है । साधनापथ पर मिलनेवाली सिद्धिओं से संतुष्ट होकर रुक जाने के बजाय पूर्णता के पथ पर अविरत चल सका हूँ । साधक के लिये आत्मश्लाघा और आत्मवंचना - दोनों आत्मघातक है, उसे इससे बचना होगा ।
मैं अपनी असमर्थता के बारे में सोचता रहा । चाहता तो ये भी था की आजादी की जंग में मैं गांधीजी की सहायता करुँ, भारत और सारे संसार का आध्यात्मिक पथप्रदर्शन करुँ, लोगों को पूर्णता का मार्ग दिखाउँ, शांति का संदेश दूँ । मगर कब पूरी होगी मेरी यह तमन्ना ? मैं अपने देह पर विजय नहीं पा सका, तो पूर्णता मिलों दूर की बात है । इतनी कोशिशों के बावजूद मैं कुछ बन नहीं पाया ! एसे-एसे खयालों में खोया था की मुझे एक अदभुत अनुभव मिला ।
मध्यरात्रि का वक्त था । मेरा देहभान चला गया । मैं देखता हूँ तो जंगल में एक कुटिया है और उसमें कोई महापुरुष है । अंतःस्फुरणा से ज्ञात हुआ की वे देवर्षि नारद है । मैंने उनसे बातचीत की और चिंता जताई की मैं अभी कुछ बन नहीं पाया ।
नारदजी ने कहा: 'आपको पता भी है की आप कौन है ? आप अपने पूर्वजन्म के बारे में जानते हो फिर भी दुःखी हो, असंतुष्ट हो ?'
मैंने कहा, 'हाँ उसे याद करता हूँ तो लगता है की मुझ में कुछ भी नहीं ।'
नारदजी ने कहा, 'एसा नहीं है । आपके आगे बडे-बडे सम्राट भी कुछ नहीं है । वक्त आने पर लोग आपको पहचानेंगे, आपका सन्मान करेंगे ।'
यह सुनकर मुझे हर्ष हुआ, मेरा आत्मगौरव जाग उठा ।
मैंने नारदजी को आलिंगन देते हुए कहा, 'मुझे वचन दो की जब मैं आपके दर्शन करना चाहूँ, तब आप मेरे सामने प्रगट होंगे ।'
वे हसते हुए अदृश्य हो गये ।
देवर्षि नारद की जय हो !
जाते-जाते संकेत करते गये की जिस तरह वर्षाऋतु में दिखनेवाले काले-घने बादल हमेशा के लिये नहीं रहते इसी तरह मेरी चिंता और तकलीफों का अंत होगा । यह जीवन का संक्राति काल है, जो वक्त के चलते खत्म होगा और सबकुछ ठीक हो जायेगा ।
हरेक साधक के जीवन में एसा वक्त आता है, जब वो नाउम्मीद और निराश हो जाता है । एसे हालात में उसे प्रार्थना का आधार लेना चाहिये । इससे चिंता, भय और विषाद दूर होता है, और उसे सिद्ध महापुरुषों की सहायता मिलती है ।
२४ जून १९४७ को मंगलवार के दिन देवर्षि नारदजी ने शांताश्रम में मुझे दर्शन दिया । उनके प्रेरक और उत्साहवर्धक वचनों से मुझमें जोश आया । मुझे लगा की चाहे मैं आज पूर्ण नहीं हूँ, मगर उनके जैसे सिद्ध महापुरुषों की कृपा से अपनी मंझिल पाके रहूँगा । मैं भारत और विश्व के कल्याण हेतु आवश्यक योगदान दे सकूँगा । बेशक, पूर्णता हासिल करना मेरा पहेला लक्ष्य था, मगर उसके बाद देश और दुनिया को काम आना मेरा सपना था ।
नारदजी के अनुभव के बाद मेरी सोच पुख्ता हुई । अब मुझे जल्दी-से-जल्दी पूर्णता हासिल करनी थी । मुझे रिद्धि-सिद्धि मिली थी मगर इससे क्या ? मैं तो चौबीसो घण्टे ईश्वर के दर्शन करना चाहता था । इसके बिना मेरे दिल को चैन या करार नहीं मिलेगा । दक्षिणेश्वर से लौटने के बाद यही विचार मन में चल रहा था । मुझे लगा की मुझे फिर दशरथाचल जाना चाहिये । फिर एक बार आसन जमाकर इश्वर की कृपा के लिये तडपना होगा । जब ईश्वर साधारण संसारीओं की कामना पूर्ण करता है तो मेरी क्यूँ नहीं करेगा ? अपने प्रेमी भक्त को क्यूँ तडपायेगा ? सारे संसार की सुखशांति के लिये समर्पित होनेवाले मेरे जैसे भक्त की पुकार क्यूँ नहीं सुनेगा ?
देवर्षि नारद के दिव्य दर्शन-से मैं लाभान्वित महेसूस करने लगा । मुझे यकीन हो गया की अब मेरा जीवनपथ प्रशस्त होगा । और यह विश्वास भी दृढ हुआ की देवर्षि नारद जैसे स्वनामधन्य संतपुरुष मेरे जैसे साधकों की सहायता करने के लिये तत्पर है । यह भौतिक जगत, जो हम आँखो से देखते है, इसके अलावा भी एक सूक्ष्म और ईन्द्रियातीत जगत विद्यमान है, जिसके बारे में जानना अभी बाकी है । जब हमें दिव्य अनुभव मिलते हैं तो इसके बारे में पता चलता है ।
इस अलौकिक अनुभूति मिलने पर मैंने देवर्षि नारदजी का स्तुति लिखकर आभार प्रकट किया ।