सरोडा से हम साबरमती गये । यहाँ, पावर-हाउस के भाइयों के प्रेमाग्रह से कुछ दिन रहें । उनके साथ सत्संग किया । उन दिनों में एक घटना घटी जिसके बारे में मैं बताने जा रहा हूँ । मैं सरोडा के स्नेही शनाभाई भट्ट के बारे में पूर्व प्रकरणों में लिख चूका हूँ । उन्होंने सांकुबा के अवसान समय हमारी मदद की थी । पिछले एक साल से शनाभाई बिमार थे । उन्हें क्षयरोग हुआ था । वैसे तो १९४४ से मैंने ये नियम बनाया थी की गाँव में किसीके घर नहीं जाना, फिर भी मैं शनाभाई की खबर देखने गया ।
माताजी जब किसी कारणवश शनाभाई के घर जाती, तो वो मेरे बारे में अवश्य पूछते । अगर उनकी तबियत ठीक हो, तो वो मेरे पास आकर बैठते । अब बिमारी के कारण वो मेरे पास नहीं आ सकते थे । वो लाचार और निरुपाय थे तो मुझे लगा की मेरा फर्ज बनता है की उनकी खबरअंतर पूछने मैं उनके घर जाउँ ।
गाँव के एक परिचित व्यक्ति के साथ मैं शनाभाई को मिलने गया । वो खाट पर लेटे थे । उनका शरीर अत्यंत दुर्बल हो गया था । मैंने मना करने पर भी उन्होंने मुझे प्रणाम किया और नीचे बैठ गये । मैंने उनकी सेहत के बारे में पूछा । हमारी मुलाकात से उन्हें बहुत आनंद हुआ ।
इसके कुछ दिन बाद मैं साबरमती आया । वहाँ एक रात, शनाभाई ध्यानावस्था में मेरे पास आये । उन्होंने मुझे प्रणाम किया ।
मैंने पूछा, 'क्यूँ अचानक ?'
शनाभाई बोले : 'मेरा जाने का वक्त हो गया है । मरने से पहले आपके दर्शन की इच्छा थी । ईश्वर की कृपा से वो पूरी हो गई । अब मैं चलता हूँ ।'
कुछ देर तक वो खडे रहे । फिर मुझे प्रणाम करके चले गये । सुबह मैंने माताजी को इसके बारे में बताया । मैंने कहा, मेरा मानना है की शनाभाई भट्ट चल बसे है । फिर तपास करने से खबर मिली की उनका देहांत हो गया है । मेरी इन बातों से हैरान होने की आवश्यकता नहीं है ।
यह प्रसंग ने मुझे सोचने पर मजबूर किया । जब मैं बंबई था तो रमण महर्षि ने मुझे दर्शन देकर अपनी समाधि लेने की बात कही थी । इसके बारे में मैंने बंबई के प्रेमीजनों को बताया भी था । ये भी कहा था, 'महर्षि अब वृद्ध हो गये है । उनके जीवन का कोई भरोसा नहीं है । जिसको महर्षि का दर्शन करना हो, कर आओ । एसी विभूति के दर्शन करने का मौका फिर आपको नहीं मिलेगा ।'
रमण महर्षि सिद्ध योगी थे, वो अपनी मरजी के मुताबिक कहीं पर भी आ-जा सकते थे । वे स्थूल या सूक्ष्म रूप में किसीको दर्शन देने के काबिल थे । अध्यात्म मार्ग के कई रहस्य आम आदमी की समज से परें है क्यूँ की ये केवल अनुभवगम्य है । उसे तर्क से समजना मुश्किल है । जो अध्यात्म मार्ग का पथिक है वो कठिन साधना के बाद इसके बारे में कुछ जान सकता है । मगर ज्यादातर देखने में आता है की आदमी अनीति, अधर्म, वासना तथा अहंता-ममता का दास होकर एसी अनुभूति से वंचित रह जाता है । मानवजीवन अपार शक्यता से भरा है । जरूरत है नीति और सदाचार के पथ पर चलकर ईश्वरप्राप्ति के लिये पुरुषार्थ करने की ।
मेरे लिये ये समजना मुश्किल नहीं था की महर्षि अपनी इच्छा से मुझे आकर दर्शन दे और अपनी समाधि के बारे में बतायें । मगर शनाभाई एक साधारण जीवात्मा थे । शायद मुझसे मिलने की उनकी प्रबल इच्छा रही होगी तभी भगवान ने उसे स्वप्नावस्था में पूर्ण की । आपमें से कई लोगों को एसा अनुभव हुआ होगा की स्वप्नावस्था में आपकी इच्छा पूर्ण हुई हो ।