शारदादेवी का अनुभव
नवरात्री के दिन समीप थे । मेरी इच्छा केवल पानी लेकर अनशन करने की थी । मगर कहाँ रहकर व्रत करूँ, यह दुविधा थी । जगन्नाथपुरी में कोई अच्छा स्थान ढूँढू या गुजरात चला जाउँ या ऋषिकेश की किसी धर्मशाला में रहूँ ? इन त्रिविध विकल्पों के बीच मेरा मन उलझ गया । मैं कुछ निर्णय नहीं कर पाया । अन्त में मैंने मंदिर में जाकर प्रभु को प्रार्थना की । हे प्रभु ! आपमें श्रद्धाभक्ति रखकर लाखों लोग आपके दर्शन करने यहाँ आते है । अगर आप में जरा-सा सत बचा है, अगर आपका महिमा यथार्थ है, तो मुझे तीन दिन के अंदर बताओ की मैं नवरात्री का व्रत कहाँ करूँ !
मामला गंभीर था । तीसरे दिन सुबह जब मैं प्रार्थना कर रहा था तो मेरे सामने यकायक शारदादेवी प्रकट हुए ।
उन्होंने कहा : 'चिंता क्यूँ करते हो ?'
मैंने कहा, 'मेरी समज में ये नहीं आता की मुझे नवरात्री में कहाँ जाना चाहिये ।'
उन्होंने कहा, 'इसमें क्या बडी बात है ? आप यहाँ से सीधे देवप्रयाग चले जाओ । वहाँ शेठ के मकान में निवास करो । वो मकान अभी खाली नहीं है, उसमें एक सरकारी आदमी रहता है । मगर वो राजीखुशी से मकान में रहने देगा । वो आपको ना नहीं कहेगा । मैं जानती हूँ की बारिश के कारण आश्रम रहनेलायक नहीं रहा ।'
इतना कहकर वो अदृश्य हो गये । मेरी खुशी का ठिकाना नहीं रहा । कौन कहेता की तीर्थस्थानों में देवत्व नहीं है ? आज भी उसकी महिमा पहले जैसी है । हाँ, ये बात अलग है की मानवी से देवत्व खत्म हो रहा है । अगर वो श्रद्धाभक्ति से भरा हो तो आज भी एसा अनुभव मिल सकता है ।
दुसरे दिन मैंने जगन्नाथ मंदिर में जाकर मेरी बनाई हुई 'श्री जगन्नाथ स्तवनमाला' का पाठ किया । मेरा मार्गदर्शन करने के लिये प्रभु को तहे दिल से शुक्रिया कहा । श्री शारदादेवी के अनुग्रह का मेरा यह प्रथम अनुभव था । माँ जगदंबा ने उनके स्वरूप में मुझे मार्गदर्शन दिया था ।
जगन्नाथपुरी के दिन विविध मुलाकात तथा एसे अनुभव में कब बीत गये, पता नहीं चला । पंद्रह दिन वहाँ रहने के बाद भादरवा वद ग्यारस, बुधवार के दिन हम जगन्नाथपुरी से निकले ।
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नवरात्री व्रत
जगन्नाथपुरी से हम कोलकता आये । बेलुर मठ का फिर-से दर्शन किया और देवप्रयाग के लिये रवाना हुए । जगन्नाथपुरी में पंद्रह दिन अच्छी तरह गुजरे उसका आनंद मन में था ।
बारीश की मौसम खत्म हो चुकी थी । शांताश्रम की हालत ठीक नहीं थी इसलिये वहाँ रहना नामुमकिन था । शेठ का घर एक रेशनींग इन्स्पेक्टर ने किराये पर लिया था । मैंने शेठ को पूछा तो उन्होंने कहा, 'अगर इन्सपेक्टर साब को दिक्कत नहीं है तो आप उनके साथ दूसरे कमरे में रह सकते हो ।'
मुझे यकीन था की माँ ने प्रेरणा करके मुझे जगन्नाथपुरी से यहाँ भेजा है, इसलिये वो जरुर कुछ इन्तजाम करेगी । वो अपने बालक को परेशान कैसे देख सकती है ? फिर मन में विचार भी आया की अगर शेठ के मकान में कमरा नहीं मिलता तो ऋषिकेश जाकर किसी धर्मशाला में रहेंगे ।
मगर माँ तो अंतर्यामी है, सर्वसमर्थ है । उसने मेरी प्रार्थना का प्रत्युत्तर दिया । शाम को जब हम शांताश्रम की ओर जा रहे थे तो इन्सपेक्टर भाई ने मेरे साथ बातचीत की तथा मुझे अपने साथ रहने का निमंत्रण दिया । प्रभु की लीला अपरंपार है । वो चाहे तो क्या नहीं कर सकता ? सबकुछ उसके अधीन है, वो जैसे चाहे, जो चाहे, बदल सकता है । ये केवल उसकी कृपा का परिणाम था की हम शेठ के मकान में कुछ दिन रह सकें । आदमी प्रभु पर विश्वास रखके चले तो उसका जीवन धन्य हो जाता है । हाँ ये भी सही है की कोई बडभागी आदमी ही एसा कर पाता है ।
देवप्रयाग में इस तरह हमारे निवास का इन्तजाम हो गया । शांताश्रम से निकलने के बाद हम हिमाच्छादित कश्मीर, अमरनाथ धाम, श्रीनगर के बागबगीचे, बेलुड मठ, दक्षिणेश्वर और जगन्नाथपुरी का समुद्रतट देखकर दो महिने के बाद लौटे थे । भारत के मेदानी प्रदेशों की सुंदरता को देखने के बाद देवप्रयाग इतना आकर्षक नहीं लगा । फिर भी हिमालय और पहाडों का अपना अलग सौन्दर्य है ।
देवप्रयाग आने के दूसरे दिन नवरात्री का प्रारंभ हुआ । माँ की इच्छा से मैंने नवरात्री में केवल पानी लेने का व्रत लिया । दिनभर माँ की पूर्ण कृपा के लिये प्रार्थना होती रही ।
हिमालय की उत्तुंग चोटीयाँ, निरंतर जयघोष करता हुआ गंगाजी का प्रवाह, समीपवर्ती कुटिया में विश्वशांति तथा जगमंगल की भावना को लेकर आसन जमाकर बैठा हुआ एक कृशकाय तपस्वी नवयुवान, और इसे चुपचाप देखता हुआ नीला आसमान । आप अपने मानसपट पर इसका रेखाचित्र खींचोगे तो मेरे देवप्रयाग के मनोमंथन के दिनों का अंदाजा होगा । आजकल विषयों की मोहिनी ने सबको मोह लिया है । मानव बाह्य विषयों के आकर्षण, धन तथा कीर्ति की लिप्सा, तथा शरीरसुख की कामना में फँस गया है । विद्वान कहे जानेवाले राजपुरुष या नेता भी इससे अछूत नहीं है । एसे समय में संसार के सुखोपभोगों से मन हटाकर विश्व की चैतन्यमयी सत्ता की ओर केन्द्रित करने की मेरी साधना लोगों की समज में नहीं आयेगी । कुछ गिनेचुने लोग ही इसे समज पायेंगे । ये नीला आसमान, ये सूरज, ये चंदा, ये तारकगण, ये पतितपावनी गंगा, ये सब मेरी साधना के साक्षी रहे है । उन्होंने बोधिवृक्ष के नीचे बैठे हुए बुद्ध को देखा है, प्राचीन काल से लेकर अर्वाचीन काल तक छोटेबडे कई साधकों को देखा है । आज वो मुझे देख रहे है, मेरा नवरात्री व्रत देख रहे है ।
पीछले कुछ वक्त से माताजी मेरे साथ है, वो मेरी देखभाल करती है । मेरे अनशन के दिनों में माताजी चुपचाप अपना खाना पका लेती थी और खुशीखुशी रहती थे । मेरी साधना से वो भलीभाँति परिचित हो गयी थी ।