ऋषिकेश में हवामान अच्छा था । बारीश के बाद चारों और हरियाली छायी थी । इस वर्ष गंगाजी में पूर से भारी तबाही होते होते बची थी । पिछले साल की तरह इस साल भी चंद्रेश्वर महादेव में पानी घुस गया था । गंगातटवर्ती कई झोंपडीयाँ पानी में थी । अगर थोडा ज्यादा पानी आता तो मायाकुंड के सभी मकान तहसनहस हो जाते । वहाँ रहनेवाले संतमहात्माओं का भाग्य अच्छा था, इसलिये एसा नहीं हुआ ।
माताजी के स्नेह और आनंदी स्वभाव के कारण मेरे दिन अच्छी तरह से कट रहे थे । ताराबेन गर्भवती थी और उसकी देखभाल करनेवाला कोई नहीं था, इसलिये माताजी को सरोडा जाना पडा । निकलते वक्त माताजी ने जो बात कही, इससे माताजी के हृदय की उदात्तता का परिचय मिलता है । उन्होंने कहा की प्रभुकृपा से हमारे पास समय है, संजोग है, साधन है । हम अन्य व्यक्ति कों सहायता करने के लिये तत्पर रहते है, पर ये तो अपने है । इनकी सेवा करना हमारा धर्म है । माताजी को मेरे साथ रहना अच्छा लगता था, फिर भी ताराबेन के लिये उसने अपने सुख का विचार नहीं किया ।
नवरात्री करीब थी । मैं माताजी को जगदंबा का स्वरूप मानता हूँ इसलिये नवरात्री के दिनों में वो मेरे साथ रहें एसी कामना करता था । मगर इश्वर ने उनके लिये कुछ और सोचा था । माताजी को मेरी फिक्र थी की अनशन के दिनों में वो मेरे पास नहीं होगी तो क्या होगा ? मगर मैंने हौंसला दिया तो वो सरोडा जाने के लिये राजी हो गयी ।
माताजी के जाने के एक दिन पहले जमनाशंकर भाई ऋषिकेश आये । वो कोलेज के प्रथम वर्ष में मेरे सहाध्यायी थे और बदरीनाथ की यात्रा समाप्त करके ऋषिकेश लौटे थे । मेरा पता ढूँढकर वो भरत मंदिर आये । उनका स्वभाव अत्यंत मायालु था । उनका विचार दिवाली तक ऋषिकेश में रहना था । ये जानकर माताजी की चिंता कम हुई । इश्वर की लीला अपरंपार है । जो उसके भरोसे रहता है, उसकी वो अवश्य सहायता करता है । मेरे जीवन के कई प्रसंग इसकी पुष्टि करते है ।
भाद्रपद वद छठ, शनिवार के दिन मैं जमनाशंकर भाई के साथ हरिद्वार स्टेशन पर माताजी को छोडने गया । ट्रेन छूटने का वक्त आया तो माताजी भावविभोर हो गयी । मैंने माताजी को आश्वासन देते हुए कहा की मेरी फिक्र मत करना । आप ताराबेन की देखभाल करना । ये बीच का वक्त जल्दी से कट जायेगा । दिवाली यूँ आ जायेगी और मैं गुजरात आपके पास आ जाउँगा ।
कुछ देर तक हम ट्रेन को देखते रहे । इश्वर ने मेरी कसौटी करने के लिये माताजी को मुझसे अलग किया था । उसकी इच्छा में अपनी इच्छा मिलाने के अलावा मेरे पास कोई विकल्प कहाँ था ?
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माताजी को अंजलि
माताजी गुजराती चौथी कक्षा तक पढी है । भर युवानी में माताजी ने बहुत कष्ट झेले थे, संसार के अच्छे-बूरे अनुभवों से उसे गुजरना पडा था । फिर भी माताजी की रगरग में ईश्वरप्रेम, संतसेवा तथा धर्मानुराग था । साधुसंतों को हमेशा कुछ देना, उन्हें कभी निराश न करने का माताजी का स्वभाव था ।
जब मैं पहली दफा हिमालय गया था तो अकेला गया था । फिर माताजी के साथ बदरीनाथ, केदारनाथ, गंगोत्री एवं जमनोत्री की यात्रा की थी । उस वक्त हिमालय को देखकर माताजी के मन में भावना हुई की यहाँ रहेना का सौभाग्य मिले तो कितना अच्छा ? इश्वर ने माताजी की ये इच्छा पूर्ण की और पिछले कुछ सालों से वो मेरे साथ रहती है । संसार में लोग ऋणानुबंध से मिलते और बिछडते है । पूर्व के किसी दैवी संयोगवश माताजी मेरे साथ रहती है ।
आज इतने साल हिमालय में तपश्चर्या करने के बाद मुझे नहीं लगता की मेरा कहीं जन्म हुआ है, या मेरे कोई मातापिता या सगे-संबंधी है । मेरा तन-मन, सारे परमाणु, तपश्चर्या से मानों बदल गये है । सारा संसार मेरे लिये घर बन चुका है । फिर भी मेरे पूर्वसंस्कारों को याद करने में मुझे कोई हिचकिचाहट नहीं होती । माताजी मेरे साथ रहती है, इससे मुझे प्रसन्नता होती है । मैं चाहता हूँ की माताजी अपने जीवन के अंत तक मेरे साथ रहें और अपने जीवनकाल में शांति तथा इश्वरकृपा का अनुभव करें ।
रामकृष्णदेव ने कहा था की एक रुप लेकर वो मंदिर में कालीमाँ हुई है, और दूसरे रुप में उसने माँ बनकर मुझे पयपान करवाया है । माताजी के लिये भी मेरी यही सोच है । मैं उन्हें जगदंबा का स्वरूप समजता हूँ । मेरी साधना को समजना बडेबडे विद्वानों के लिये कठिन है, मगर माताजी उसे आसानी से समजती है, और मुझे आवश्यक सहयोग प्रदान करती है । मेरे लिये यह खुशी की बात है ।