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Swargarohan | સ્વર્ગારોહણ

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वेदांतकेसरी स्वामी निर्मलजी महाराज ने वेदांत संमेलन शुरु किया था । सन १९७५ में दिवाली के कुछ दिन पूर्व अमृतसर में इसका रजत जयंति महोत्सव आयोजित किया गया । स्वामी निर्मलजी के शिष्य तथा संमेलन के अध्यक्ष श्री हरकिशनदास के अनुग्रहपूर्व आमंत्रण से मैं भी अमृतसर गया ।

अमृतसर के वेदांत संमेलन में भारतभर के संत-महात्मा, महामंडलेश्वर तथा विद्वान पुरुषों ने भाग लिया । श्रोताओं की तादात काफि थी । प्रत्येक दिन एक महात्मा की अध्यक्षपद पर नियुक्ति होती थी । संमेलन के आखिरी दिन अध्यक्ष के तौर पर मेरी नियुक्ति हुई । संमेलन में हररोज मेरा प्रवचन होता था । मेरे प्रवचन सुनकर महंत, मंडलेश्वर और संतगण प्रभावित हुआ । इससे उनका प्रेम और आदर मुझे मिला । एक मंडलेश्वर, जो की स्वयं बहुत अच्छे वक्ता थे, गुणग्राही वृत्ति से अन्य महात्माओं को कहने लगे की योगेश्वरजी का प्रवचन सुनो, धन्य हो जाओगे । वेदांत संमेलन सर्व प्रकार से सफल रहा ।

आजकल लोग फरियाद करते है की भारत में साधनापरायण, सिद्धिसंपन्न या प्रातःस्मरणीय सत्पुरुषों का अभाव है मगर हकीकत में एसा नहीं है । एसे साधुपुरुषों का समागम भले आसानी से नहीं होता, मगर उनका सर्वथा लोप नहीं हुआ है । अगर प्रभु की कृपा हो तो उनके दर्शन, और सत्संग का लाभ हमें मिल सकता है । सन १९७५ के अक्तूबर-नवम्बर में आयोजित वेदांत संमेलन में मुझे इसकी प्रतीति हुई ।

आजकल मानवीय मूल्यों का ह्रास हो रहा है, लोग आत्मिक अभ्युत्थान के बदले सांसारिक सुखोपभोग के पीछे भाग रहे है । एसे माहौल में अपरिग्रही, आत्मरत और आत्मकाम महापुरुष अपना कार्य कर रहे है, ये आश्चर्यजनक है । एसे एक महापुरुष का रेखाचित्र मैं आपके आगे प्रस्तुत कर रहा हूँ ।

वेदांत संमेलन में तकरीबन सो संतपुरुषों ने हिस्सा लिया था । उनमें से कुछ ख्यातिप्राप्त थे तो कुछ प्रसिद्धि से मिलों दूर थे । कुछ साधु संमेलन-स्थल के बाहर, मुख्य मार्ग की दोनों ओर लगी फुटपाथ पर बैठते थे । संमेलन में वहाँ होकर गुजरना पडता था, इसलिये उनके दर्शन का लाभ बिना प्रयास मिल जाता था ।

वहाँ एक संतपुरुष थे, जिनकी और मेरा ध्यान आकर्षित हुआ । उनको देखकर मुझे लगा की ये कोई साधारण महात्मा नहीं है बल्कि आत्मिक साधना का आधार लेकर जीवनसिद्धि के शिखर पर बिराजमान महापुरुष है । वो मुख्य मार्ग पर एक घटादार वृक्ष की छाया में बैठते थे । उनके पास आसन और कमंडल के अलावा कुछ नहीं था । उनका मुखमंडल अत्यंत शांत, गौर और तेजस्वी था । उनके जैसा प्रभावशाली चहेरा मैंने आज तक नहीं देखा था ।

संमेलन के दूसरे दिन, जब प्रवेश करने के लिये हम वहाँ से गुजरे तो उन्होंने मेरी और देखकर मोहक स्मित किया । तीसरे दिन देखा तो उनके हाथ में चाय का प्याला था । तब मेरे मन में विचार आया की ये महात्मा के पास कुछ भौतिक साधन-संपत्ति नहीं होगी । वो रात को कहाँ सोते होगे ?

मेरे मनोभावों को मानो उन्होंने पढ लिया ।

मेरी जिज्ञासा का प्रत्युत्तर देते हुए नमस्कार मुद्रा करके बोले:
या निशा सर्वभूतानाम् तस्यां जागर्ति संयमी ।
यस्यां जाग्रति भूतानि सा निशा पश्यतो मुनेः ॥

भगवद् गीता के द्वितिय अध्याय के इस श्लोक का अर्थ स्पष्ट है । ये महात्मा मुझे कहना चाहते थे की साधारण आदमी रात को सो जाता है, मगर योगी साधनभजन करता है । वो अविद्या के जगत में नहीं सोता बल्कि परमात्मा के प्रेमजगत में जाग्रत रहता है । मैं भी इसी तरह हमेशा जागता रहता हूँ, सोता नहीं हूँ । मेरी और देखकर उन्होंने पुनःप्रणाम किया । मुझे उनकी विशेषता पर संदेह नहीं रहा ।

जब-जब मैं वहाँ से निकलता था तो वो मुझे प्रणाम करते थे, कभी आपसी बातचीत का मौका नहीं मिला । हमें निर्धारत समय पर समेलन में पहूँचना होता था और शाम को निकलने वक्त रुकने की फुर्सत नहीं होती थी । मुझे लगा की मैं भले उनसे दो बातें नहीं करता, फिर भी वो मुझे प्यार से बुलाते है । उन्हें मान, अपमान, अहंकार जैसा कुछ नहीं है । मेरे विचारों को उन्होंने जान लिया । इसका प्रत्युत्तर देते हुए वो बोले: 'मानापमान यो स्तुल्यः ।' अर्थात् महात्मा पुरुष मान और अपमान में फर्क नहीं करते और हर हाल में अपने मन को स्थिर और शांत बनाये रखते है ।

उनके यह उदगार उनकी असाधारण अंतरग भूमिका के परिचायक थे । किसीके मन में एसा सवाल जरूर उठेगा की एसे आत्मदर्शी, परमसिद्ध महात्मा एकांत में रहने के बजाय संमेलन के मुख्य मार्ग पर क्यूँ बैठे थे ? इसका उत्तर तो वो ही दे सकते है, हम तो केवल अनुमान कर सकते है । मगर मैं इतना जरूर कहूँगा की उनकी उपस्थिति उनके प्रत्यक्ष या परोक्ष परिचय में आनेवाले हरेक व्यक्ति के लिये आशीर्वादरूप है । वो जहाँ भी है, बस्ती के बीच या नितांत एकांत में – उनके द्वारा लोगों का भला होता होगा । वो कब, कहाँ और कैसे प्रगट होते है, ये कोई नहीं कह सकता । उनके व्यक्तित्व से प्रेरणा और प्रकाश पाकर हम धन्य होते है । 'वन्दे महापुरुष ते चरणारविन्दम् ।'

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