ईश्वर के अवतार के लिए पांच महत्वपूर्ण कारण बताये गए हैं (१) धर्म की ग्लानि (२) अधर्म का ज़ोर (३) साधु या सज्जनों की रक्षा (४) दुष्टों का नाश और (५) धर्म की स्थापना। इनमें तीसरा कारण अधिक महत्वपूर्ण है। संक्षेप में यह कह सकते हैं कि धर्म की स्थापना और अधर्म का नाश करने तथा सज्जन और भक्तजन की रक्षा करने के लिए भगवान पैदा होते हैं या प्रकट होते हैं । इन सब कार्यों में से भक्तों की रक्षा का कार्य इतना महत्वपूर्ण है कि उसके लिए भगवान को बार बार जन्म धारण करना पड़ता है। भगवान के साथ जिन्होंने तादात्म्य स्थापित किया है वे संत भी यह कार्य पूर्णतया नहीं कर सकते। पांच वर्ष के ध्रुवजी मधुवन में तप करने गये। रास्ते में उन्हें नारद मिले, लेकिन उनके दर्शन से उनकी क्षुधा नष्ट नहीं हुई। उनका अंतर भगवान के दर्शन के लिए तड़प रहा था। अतः नारदजी का मंत्र लेकर बन में तप करने निकल पड़े। उनके दिल में भगवान की कृपा प्राप्त करने की लगन लगी थी, वह भगवान के सिवा किसी भी दूसरे पदार्थ से पूरी न हो सकती थी। आख़िरकार उन्हें शांति देने के लिए भगवान को उनके सामने प्रकट होना पड़ा। इसी तरह प्रह्लाद की रक्षा करने के लिए उन्हें नृसिंह रूप धारण करना पड़ा और इस प्रकार वे अनेक बार प्रकट हो चुके हैं। तुकाराम, नरसी मेहता तथा मीरा के जीवन में वे बार बार प्रकट हुए। धर्म की स्थापना और दुष्टों के नाश का कार्य किसी महापुरुष के द्वारा शायद हो सकता है। लेकिन विरह की आग में जलते हुए भक्तों की रक्षा का कार्य ईश्वर के सिवा और किसी से नहीं हो सकता। भक्त ईश्वर के दर्शन की साध रखते हैं, ईश्वर के लिए प्रार्थना करते हैं तड़पते हैं और पुकारते हैं। ईश्वर के लिए उनका रोमरोम रोता है। ईश्वर के लिए वे तप्त होते हैं और अत्यंत कठिन संकट को सहन करते हैं। ईश्वर के दर्शन के बिना उन्हें शांति कहाँ से मिलेगी? उन्हें शांति प्रदान करने के लिए ईश्वर को प्रकट होना ही पड़ता है। यदि वे प्रकट नहीं हों तो भक्तों को चैन और जीवन नहीं मिलेगा। इसीलिए उनके दर्शन से भक्त फूले नहीं समाते और जीवन को कृतार्थ समज़ते हैं। उनके दुःख दर्द गरीबी और बंधनों का अंत होता है और वे प्रेम, शांति और आनंद की मूर्ति बन जाते हैं।
ईश्वर अवतार लेते हैं। लेकिन कभी कभी साधारण आदमी से भिन्न रीति से प्रकट होते हैं। कर्मों के बंधन से वे मुक्त रहते हैं तथा इच्छानुसार प्रकट होकर अदृश्य भी हो सकते हैं। अनंत है उसकी शक्ति। वे साधारण मनुष्य की तरह कर्म करते दिखाई देते हैं। पल में हँसते हैं तो पल में रोते हैं। लेकिन वे खुद प्रकृति के स्वामी हैं। इसलिए वे प्रकृति से प्रभावित नहीं होते और माया का उन पर कोई असर नहीं होता। उनमें अहंकार, ममता और अविद्या का तनिक भी अंश नहीं होता। उनके कर्म अलौकिक होते हैं। वे उन्हें बाँध नहीं सकते। आपने मकड़ी को कभी देखा है? वह अपने शरीर में से कुछ निकालकर जाल बुनती है और अंत में स्वयं उसमें फंस जाती है। साधारण आदमी भी संसार में कर्म का जाल बनाता है और उसी में जकड़ जाता है। भगवान के बारे में यह सच नहीं है। वे कर्म से सदा अलिप्त रहते हैं। कलछी अनेक पदार्थों में घूमती रहती हैं, पर यदि उससे पूछा जाय कि अमुक अमुक पदार्थों का स्वाद कैसा है तो वह नहीं बता सकेगी। जीभ से पूछोगे तो वह तुरंत प्रत्येक चीज़ के गुण दोष या स्वाद का वर्णन करेगी, क्योंकि इस काम में वह प्रवीण है। ईश्वर अवतार लेते हैं और मानव सहज कर्म करते हैं, किन्तु उनके असर से वे मुक्त रहते हैं। नाटक के रंगमंच पर आकर नट अपने पार्ट को भलीभांति अभिनीत करता है। अभिनय इतना सुंदर और हूबहू होता है कि प्रेक्षक उसे स्वाभाविक और सच्चा मान लेते हैं। प्रेक्षक रोने या हंसने लगते हैं। किन्तु नट को ऐसा होता है क्या? खुद कौन है और क्या करता है वह जानते हुए वह अभिनय करता है और समय आने पर तुरंत रंगमंच से बिदा ले लेता है और अपना असली भेष पहन लेता है। ईश्वर के अवतार – पार्ट का अभिनय भी ऐसा ही होता है। वे उसके असर से मुक्त रहते हैं। साधारण मनुष्य यदि जीवन का पार्ट खेलते हुए ऐसी अलिप्त दशा की प्राप्ति कर लें तो कर्म के बंधन से मुक्ति हासिल करने का कार्य आसान हो जाय। ईश्वर के अवतारकर्म से शिक्षा ग्रहण करके मनुष्य को अपने जीवन को उज्जवल बनाना चाहिए।
अवतार के विषय में हमारे यहाँ बहुत सोचा गया है और आज भी सोचा जाता है। मामूली आदमी भी इसमें दिलचस्पी रखते हैं। एक बार हम रेल में सफर करते थे। जिस डिब्बे में हम बैठे थे उसी में एक दूसरे भाई भी थे, जिन्हें धर्म और ईश्वर से प्रेम था। उनसे मुहब्बत हो गईं। बातचीत के बीच में उन्होंने कहा, “राम और कृष्ण दोनों अवतार हैं लेकिन उन में बहुत भेद है।” मैंने पूछा, “किस तरह?” उन्होंने उत्तर दिया, “देखिए न, श्रीकृष्ण पूर्ण अवतार कहलाते हैं और राम मर्यादा पुरुषोत्तम माने जाते हैं। कृष्ण चन्द्र वंश के हैं और राम सूर्य वंश के। चन्द्र की सोलह कलाएं हैं जब कि सूर्य की बारह। इस प्रकार राम और कृष्ण में भेद है। ”
हमारे यहाँ ऐसी दलीलें बहुत होती हैं। उन्होंने भी दलीलें की। अंत में उन्होंने मेरा अभिप्राय पूछा। तब मैंने कहा कि ईश्वर के अवतारों में ऐसे छोटे बड़े भेद करना मुझे उचित नहीं लगता। सब अवतार ईश्वर के हैं। अतः उनमें भेद कैसा? हम चंद्रमा को सोलह कलायुक्त और सूर्य को बारह कलायुक्त कहकर चन्द्रवंशी कृष्ण को सूर्यवंशी राम से श्रेष्ठ मानते हैं, लेकिन वैज्ञानिक तो सूर्य में से पृथ्वी को और पृथ्वी में से चन्द्रमा को निकला हुआ मानते हैं। उनकी दृष्टि से सूर्य अधिक शक्तिशाली है। इसलिए छोटे बड़े की बहस करना उचित नहीं। ईश्वर सब से उत्तम हैं। उसके सब अवतार समान हैं। किसी की शक्ति अधिक प्रकट हुई जान पड़ती है तो किसी की कम। शक्ति के प्राकट्य का आधार समय एवं परिस्थिति पर रहता है। इसलिए उनके बीच कम पूर्ण या अधिक पूर्ण की दीवार खड़ी करना जरूरी नहीं हैं। मान लीजिए कि दो आदमी करोड़पति हैं। उनमें से एक जाहिर रूप से दान करता है, धर्मशाला, कुँए, अस्पताल, पुस्तकालय आदि बनवाता है, तो वह जाहिर रूप से धनी माना जायगा। दूसरा आदमी जो प्रकट रूप से धन का उपयोग न करके गुप्त रूपसे दान करे तो उसे जाहिर रूप से धनी नहीं माना जायगा। लेकिन वह धनी नहीं या कम धनी है, ऐसा कौन कह सकता है? दोनों मित्र हैं। इसी तरह राम और कृष्ण दोनों समान हैं। कृष्ण ने बचपन ही से अपनी शक्ति का प्रयोग अच्छी तरह किया। जब कि राम ने मर्यादा का मार्ग पसंद किया था। शक्ति एवं नीति दोनों की मर्यादा को परखकर उन्होंने लीला की थी। आदर्श पुत्र, आदर्श पति, आदर्श भाई, आदर्श राजा के धर्म का उन्होंने पालन किया है। इसलिए वे मर्यादा पुरुषोत्तम कहलाते हैं। इसे भूलकर उनके और कृष्ण के बीच छोटे बड़े का भेद करना ठीक नहीं। जिस प्रकार सुवर्ण के सभी अलंकार सुवर्णत्व से परिपूर्ण हैं, उसी तरह ईश्वर के सभी अवतारों में ईश्वरत्व निहित है, इस प्रकार समज़ना उचित है।
उत्तम ज्ञान सब में एकता का दर्शन करता हैं। जो ज्ञान भिन्न भिन्न वस्तुओं या व्यक्तियों में भेदभाव का दर्शन करता है वह ज्ञान मध्यम प्रकार का है। गीता उसे राजस ज्ञान कहती है। अतः उत्तम ज्ञान की निशानी यह है की वे सब में ईश्वर का दर्शन करता है और ईश्वर के अवतारों में कौन उत्तम कौन कनिष्ट, कौन पूर्ण कौन कम पूर्ण, आदि की चर्चा में पड़कर विवाद नहीं बढ़ाता। आजकल अच्छे कहे जानेवाले पुरुष भी जिद्दी बनकर ईश्वर को छोटा या बड़ा सिद्ध करने की चर्चा में पड़ते हैं और उसमें दिलचस्पी लेते हैं। यह स्वस्थ मस्तक की निशानी नहीं। ऐसी चर्चाओं का मुख्य हेतु इष्टदेव की श्रेष्ठता को साबित करके अहंता को बढ़ाने का है। ऐसी चर्चा में बुद्धिमान भाग न लें, यही अच्छा है। हम तो ईश्वर के सभी अवतारों को उत्तम मानते हैं, उन सब का आदर करते हैं, सबको एक सरीखा गिनते हैं। हमारी दुनिया में छोटे बड़े का भेद-भाव है। रंग भेद, पक्ष भेद, एवं जाति भेद प्रचलित हैं। गरीब एवं अमीर, मजदूर एवं मालिक, तथा शोषक एवं शोषित आदि भेद हैं। हम चाहते हैं कि इन सब को मिटा दिया जाय। यह भेदभाव हमारी स्थूल दुनिया में से आगे बढ़कर ईश्वर तक पहुँच जाय और ईश्वर के अवतारों की दुनिया में भी प्रवेश कर जाय, यह उचित नहीं है। भेदभाव में जीनेवाला और भेदभाव को पैदा करनेवाला इंसान ईश्वर में भी भेदभाव देखता है। यह उसकी बदनसीबी है। उस बदनसीबी का अंत करना चाहिए। अपने अवतार के बारे में बात करते हुए भगवान एक दूसरी महत्वपूर्ण बात की ओर हमारा तथा अर्जुन का ध्यान खींचते हैं। वे कहते है कि अवतार धारण करके मैं भिन्न भिन्न कर्म करता हूँ, किन्तु कर्म मुझे बंधन में नहीं डालते। इसी प्रकार मनुष्य को भी सावधानी और कुशलता से काम करना चाहिए ताकि काम करते हुए भी वह कर्म पाश में बद्ध न हो। भगवान इसके लिए कर्म एवं अकर्म की विचारना उपस्थित करते है। जो आदमी कर्म में अकर्म को देखता है और अकर्म में कर्म का दर्शन करता है वह बुद्धिमान है एवं कर्म के रहस्यों को सच्चे अर्थ में जाननेवाला हैं। यह पढ़कर या सुनकर कुछ लोग उलझन में पड़ जाते हैं और पूछने लगते हैं कि कर्म एवं अकर्म का अर्थ कया है? कर्म में अकर्म का एवं – अकर्म में कर्म का दर्शन किस प्रकार हो सकता हैं? उनके समाधान के लिए इनकी व्याख्या यहाँ की जाती है।
- © श्री योगेश्वर (गीता का संगीत)