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Swargarohan | સ્વર્ગારોહણ

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जो आदमी प्रवृत्ति रत रहते हैं उन्हें कर्मठ कहते हैं और जो प्रवृत्ति नहीं करते और बाह्य दृष्टि से निवृत्तिपरायण प्रतीत होते है, उन्हें अकर्मी कहते हैं। किन्तु गीतामाता को यह बात मंजूर नहीं है। वह कहती हैं कि कर्म करते रहने पर भी मनुष्य अकर्मी रह सकता है। कर्म एवं अकर्म के भेद ऊपरी हैं। बुद्धिमान पुरुष उनको नहीं मानता। कर्म व अकर्म अलग-अलग नहीं है, मनुष्य को चाहिए कि वह कर्म में अकर्म का दर्शन करें। अर्थात कर्म करते हुए भी कुछ नहीं करता है ऐसी दशा का अनुभव करना चाहिए और कर्म के असर से मुक्त रहना चाहिए। इसलिए कुछ बातें याद रखना आवश्यक है। मनुष्य में कर्तापन का ग़रूर होता है। यह काम मैंने किया। अगर मैं नहीं होता तो यह काम नहीं हो पाता। ऐसा अहंकार आदमियों के मन में छाया रहता है। अहंकार का त्याग करने की जरूरत है और हम से कुछ नहीं हो सकता, ईश्वर ही सबकुछ करवाता है ऐसा मानकर नम्रता धारण करने की जरूरत है। अर्जुन को यही सीख दी गई है कि हे अर्जुन, तेरे लड़ने से ही इस योद्धा का नाश होगा, ऐसा मिथ्या अहंकार मत रख। यह सब योद्धा तो मरनेवाले ही है। तू तो मेरे हाथ में हथियार बन और मेरी आज्ञा मानकर युद्ध कर। ऐसा करने से तू कर्म करने पर भी कर्म के प्रभाव से मुक्त रहेगा।”

श्रीमद भागवत में एक प्रसंग आता है। एक बार गोपियाँ ने दुर्वासा को भिक्षा देने का विचार किया। वे जमुना किनारे ठहरे हुए थे। वहाँ पहुँचने के लिए जमना को पार करने की ज़रूरत थी। गोपियाँ ऐसा किस प्रकार कर सके, यह प्रश्न उन्होंने भगवान कृष्ण के सामने रखा। भगवान ने कहा “इसमें डरने या चिंता करने की कोई बात नहीं। जमनाजी के पास जाकर कहना यदि श्री कृष्ण बाल ब्रह्मचारी हों तो हमें मार्ग दो, तो वह तुरंत रास्ता देगी। यह सुनकर गोपियां दंग रह गईं। कृष्ण की तो अनेक रानियां थी, फिर उन्हें बाल ब्रह्मचारी कैसे कहा जाय? कृष्ण भगवान ने कहा इसे आज़मा कर देखो। मेरी बात में शंका मत करो। गोपियां चल पड़ी। जमनाजी प्रचंड वेग से बह रही थी। किनारे पर पहुँचकर गोपियों ने कहा यदि श्री कृष्ण बालब्रह्मचारी हों तो हमें मार्ग दो। जमनाजी ने फ़ौरन मार्ग दे दिया। जमनाजी को पार करके वह दुर्वासा मुनि के आश्रम में गई और उन्हें भिक्षा दी। तदनन्तर घर जाने से पहले उन्हें यह चिंता हुई कि जमनाजी को कैसे पार करेंगे। यह जानकर मुनि ने कहा इतनी बड़ी जमना को पार करके तुम कैसे आईं थी? गोपियों से सब बात सुनकर मुनि ने कहा, अब जाते समय दूसरा उपाय आजमाना। यमुनाजी से कहना, “यदि दुर्वासा सदा उपवासी रहते हों तो हमें फिर से मार्ग दे दो।” गोपियों को फिर अचरज हुआ। अभी तो सबके सामने भिक्षा की है फिर भी अपने को उपवासी कहते हैं। यह किस तरह माना जा सकता है? दुर्वासा ने उत्तर दिया, “देखो, मैं काम करता हूँ लेकिन कर्तापन के अभिमान से मुक्त होकर करता हूँ। भिक्षा तो शरीर में विराजमान परमात्मा ही को अर्पण करता हूँ। इसलिए मैं सदा उपवासी हूँ। उसी प्रकार श्री कृष्ण भी स्त्रियों के मध्य रहते हैं फिर भी अहंभाव से रहित एवं विषयासक्ति से मुक्त हैं। अतः वे ब्रह्मचारी हैं, इसमें संदेह नहीं।” यह सुनकर गोपियों को संतोष हुआ। जमनाजी ने उन्हें मार्ग दिया और वे घर आ गईं।

कर्म करने पर भी अकर्ता रहने के लिए आदमी को “मैं करता हूँ” इस कर्तापन के अभिमान से छुटकारा पाने की आवश्यकता है। अहंकार का उत्सर्ग कर नम्र होने की आवश्यकता है और कार्य को प्रभु-प्रीत्यर्थ करने की जरूरत है। संसार में एक ही ईश्वर है और यह संसार ईश्वर का ही स्वरुप है। ऐसा मानकर यथा शक्ति उसकी सेवा करने की ज़रूरत है। यदि किसी को कुछ देने का अवसर उपस्थित हो तो उसे ईश्वर का प्रतिनिधि समजकर देने से लाभ ही होगा। महापुरुष कह गए हैं कि दुःखी, अपंग, भूखे और अनाथ में भी ईश्वर का दर्शन करो। उनमें विराजमान प्रभु की सेवा करो। उनके उपदेशानुसार आज भी कहीं कहीं दीन दुखियों की सेवा होती है; नग्न और फटे हुए कपडेवालों को वस्त्र दिए जाते हैं और भूखों को अन्न दिया जाता है। भारत के ऋषियों ने तो न केवल मानव में बल्कि प्रत्येक जीव में ईश्वर का दर्शन करने के लिए कहा है, तथा जीव मात्र की सेवा करने का सन्देश दिया हैं। यह सम्पूर्ण विश्व ईश्वर का निवासस्थान है एवं ईश्वर से व्याप्त है। इसमें बसनेवाले जीव ईश्वर के प्रतिनिधि हैं। हमें यह सीखना है कि जगत के भिन्न भिन्न जीवों में ईश्वर का दर्शन कैसे किया जाय। जिन से यह नहीं हो सकता वे दूसरी किसी भी जगह दर्शन नहीं कर सकते। हमारे यहाँ साधु संन्यासी को भिक्षा देने का रिवाज है। वे लोग घर के दरवाज़े पर आ खड़े होते हैं और ‘नारायण हरि’ करते हैं। यह सुनकर कुछ लोग नाराज़ होते हैं और कुछ बकवास करते हैं। क्यों? क्योंकि उन्हें लगता हैं कि यह एक बला आई है। कोई मांगनेवाला आए तो उन्हें बुरा लगता है। किन्तु उनमें समज़ का अभाव है। हमारे साधु लोग ‘नारायण हरि’ इसलिए बोलते हैं कि वे उन्हें एक अमूल्य वस्तु का स्मरण कराते हैं। वे कहना चाहते हैं कि देखो मुझे मामूली याचक मत मानना। मुझे कुछ देना पड़ेगा यह समझकर मुंह मत सकोड़ना। मुझमें स्वयं नारायण हैं। भगवान नारायण या हरि खुद मेरे रूप में पधारे हैं। अतः यदि तुम चाहते हो और हो सके तो मेरी सेवा करना।” खूब नम्रतापूर्वक, बिना बार बार मांगे, घर के द्वार पर खड़े रहते हैं। चाहे हम दें या न दें। थोड़ी देर इन्तजार करने के बाद बिना बकवास किए चले जाते हैं। हमारे ऋषिमुनियों ने कहा है कि अतिथि को देव मानना चाहिए। किन्तु उनकी आज्ञापालन बहुत कम मात्रा में होती है। आज तो अतिथि भी अनेक हो गए हैं। फिर भी विवेक बुद्धि रखकर सब में ईश्वर की झाँकी करके दूसरों की मदद करेंगे तो यह पद्धति हमारे लिए लाभकारी होगी इसमें संदेह नहीं।

महाराष्ट्र के महान संत श्री एकनाथजी एक बार यात्रा करने गए। इनके साथ कुछ अन्य संत भी थे। हिमालय और उत्तर भारत की यात्रा करके उन्होंने गंगाजल लिया और रामेश्वर जाने के लिए निकले। एक दिन रस्ते में एक गधा धूप में पड़ा हुआ मिला। ताप एवं तृष्णा से वह मृतवत हो गया था। उसे देखकर एकनाथ का दिल पिघल गया। उन्होंने अपना गंगाजल गधे के मुंह में डाल दिया जिससे वह गधा चेतनमय होकर उठ खड़ा हुआ। एकनाथ फूले नहीं समाये। लेकिन एकनाथ के साथियों को यह बात अच्छी नहीं लगी। कितना कष्ट करके उन्होंने यात्रा की थी और गंगाजल लाए थे। ऐसे पवित्र और अनमोल गंगाजल को एकनाथजी ने गधे के मुंह में डाल दिया। वह उन्हें कैसे अच्छा लगता। उनकी नाराजगी जानकर एकनाथजी बोले, “मुझे अपने कार्य से संतोष है। मैं ने भगवान शंकर के मुंह में ही गंगाजल को अर्पण किया है। अतः मुझे रामेश्वर की यात्रा जैसा ही आनंद प्राप्त हुआ है।”

एकनाथजी के शब्दों में यह सन्देश छीपा है कि जीवमात्र में ईश्वर रम रहा है। इस बात को समज़ना है और इसके अनुरूप ही अपने जीवन को बनाना है। कुछ लोग खाने के समय लकड़ी लेकर बैठते हैं और बिल्ली पास आती है तो उसे मारने दौड़ते हैं। ऐसा करना ठीक नहीं। आपके पास जो कुछ है उसमें दूसरों का भी सांजा है। अतः अपने भोजन में से कुछ अंश बिल्ली तथा कुत्ते जैसे दुसरे प्राणियों को भी दो। उनमें निहित ईश्वर को अर्पण करते हैं ऐसा भाव मन में रखकर अन्न देने की आदत डालो। ऐसी आदत डालने से यह कार्य बोज़ नहीं लगेगा प्रत्युत स्वार्थरहित और आनंदप्रद हो जायगा। कर्म करने पर भी उसके कुप्रभाव से आप मुक्त रहेंगे, अर्थात कर्म करने पर भी अकर्म की दशा में स्थित रहेंगे।

- © श्री योगेश्वर (गीता का संगीत)

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