प्रश्न – क्या मूर्तिपूजा आवश्यक है ॽ इस बारे में आपकी क्या राय है ॽ
उत्तर – मूर्तिपूजा सबके लिए आवश्यक नहीं है, फिर भी संसार में भिन्न भिन्न रुचिवाले लोग रहते हैं । इसमें से कुछेक व्यक्तिओं को अपने निजी विकास के लिए इसकी आवश्यकता महसूस होती हो तो वे उसका आधार ले सकते हैं । इसमें हमें क्यों एतराज होगा ॽ
प्रश्न – मूर्तिपूजा का आधार लेने से सर्वव्यापक, सर्वदेशीय परमात्मा की अनुभूति में क्या कोई बाधा नहीं उपस्थित होगी ॽ
उत्तर – मुझे तो ऐसा नहीं लगता । परमात्मा की अनुभूति आसानी से हो इसलिए प्रारंभ में एक प्रतीक के रूप में उसका आधार लिया जाता है । इस पध्धति के अनुसार मूर्ति में निहित ईश्वर की परमसत्ता का साक्षात्कार करके अन्ततः संसार के सभी पदार्थों में उसका दर्शन करना होता है । मूर्तिपूजा का आश्रय ग्रहण करने से सर्वव्यापक एवं सार्वत्रिक परमात्मा की अनुभूति में कोई बाधा उपस्थित नहीं होती । मूर्तिपूजा की प्राचीन पध्धति में कुछ बुराइयाँ है ऐसा लगे तो उनका विरोध अवश्य कीजिए, किन्तु मूर्ति या मूर्तिपूजा का विरोध करना उपयुक्त नहीं है ।
प्रश्न – जीवात्मा और परमात्मा में क्या अंतर है ॽ
उत्तर – जीवात्मा और परमात्मा में मूलभूत रूप में या तत्त्वतः कोई भेद नहीं है । दोनों के बीच एकता है । जिस तरह सागर और उसकी लहर में कोई अन्तर नहीं है उसी तरह जिन तत्त्वों से सागर बना है उन्हीं तत्त्वों से लहरों की उत्पत्ति हुई है । जो भेद नज़र आता है वह उपर उपर से या व्यवहारिक रूप से है । इसी दृष्टि से देखने से यह कहा जाता है कि जीव शिव का ही अंश है । वह अल्पज्ञ एवं अल्प शक्तिमान है । वह अज्ञान में डुबा हुआ और कर्म के बंधन से बंधा हुआ है इसलिए वह सुख-दुःख, उत्थान-पतन तथा बंधन एवं मोक्ष का अनुभव करता है । वह अपने मूल स्वरूप को जान ले इतनी ही देर है । उसे यह ऐतबार होगा कि उसमें और परमात्मा में कोई अन्तर नहीं है ।
- © श्री योगेश्वर (‘ईश्वरदर्शन’)