प्रश्न – कितने ही लोग तीर्थयात्रा करते हैं लेकिन वापिस आने पर उनमें अनीति, छल-कपट, बेईमानी आदि वैसे के वैसे ही रहते हैं, इसका क्या कारण है ॽ
उत्तर – इसका कोई एक कारण नहीं है । कारणों की चर्चा में उलझने की अपेक्षा तीर्थयात्रा के लाभ या उद्देश के बारे में सोचना अधिक उचित होगा । यात्रा करने का उद्देश्य निजी सुधार का होना चाहिए । लोग उद्देश्य के बारे में सोचते नहीं है इसलिए यात्रा करने के बाद घर आते हैं फिर भी वैसे के वैसे रह जाते हैं । मन के सुधार पर मनुष्य को विशेष ध्यान देना चाहिए । अगर ऐसा किया जाय तो उसका मन विशुद्ध और विशुद्ध होता जाएगा और वह तीर्थ समान बन जाएगा क्योंकि विशुद्ध मन एक महान तीर्थ है । इस चीज़ पर गौर करना चाहिए तभी तीर्थयात्रा का परिणाम हासिल हो सकता है अन्यथा सारी दुनिया के तीर्थों में घूमें तो भी क्या फायदा ॽ देखिये न, कौआ कितना भी उँचा उड़ता हो पर जब वह नीचे ज़मीन पर आता है तो उसकी नज़र विष्टा पर ही टिकती है । अगर वह काशी जैसे धर्मस्थान पर जाए तो भी वह काला ही रहेगा, श्वेत नहीं होगा । इसी तरह जब तक मन का मैल न मिटे, अंतर की कालिमा नष्ट होकर निर्मल न बनें और वासना का त्याग न करे वहाँ तक कुछ संभव नहीं है । अगर ऐसी स्वच्छता की ओर विशेष ध्यान रखा जाए तो आपकी शिकायत, शिकायत नहीं रहेगी ।
प्रश्न – क्या हम हिमालय में बस सकते हैं ॽ कई बार यह विचार आता है कि सब छोडछाडकर हिमालय चलें जाय ।
उत्तर – हिमालय में बसना चाहते हैं तो बस सकते हैं किंतु वहाँ खान-पान की, हवामान की आदि अनेक मुश्किलें हैं । मनुष्य के मनोबल पर इसका आधार है । मनोबल दृढ होने पर वहाँ निवास किया जा सकता है । हिमालय पहुँचने से पूर्व हमें योग्यता हासिल करनी चाहिए । पूर्ण त्याग और एकांतसेवन कोई खेल नहीं है । इससे पूर्व अनेकानेक नियमों का पालन करना पडता है । सत्वगुणी बनना पडता है । मनोबल को मजबूत बनाना पडता है और अंततोगत्वा ईश्वरदर्शन या आत्मसाक्षात्कार के लिए तीव्र भूख जगानी पडती है । हिमालय जैसे पवित्र-एकांत स्थानों में मनुष्य को तंग आकर या दुःख से हताश होकर नहीं जाना है । इस तरह जाने से तो फिर वहाँ से लौट आना पडेगा इसमें कोई सन्देह नहीं । वहाँ प्रवेश तो तभी लेना है जब पर्याप्त साधना कर ली जाय और हृदय एकांत-वास के लिए खूब छटपटाये । ऐसा महत्वपूर्ण कदम उठाने से पहले हजार बार सोचना चाहिए और अपने दिल से निम्नलिखित सवाल पूछ लेने चाहिए –
१. आपका स्वभाव सत्वगुणी बना है ॽ
२. इसके लिए आप पुरुषार्थ करते हैं ॽ
३. सत्य, न्याय और प्रेम का जीवन में आचरण किया है ॽ
४. संसार की असारता को भलीभाँति समझ चुके हैं ॽ
५. इसके फलस्वरूप केवल प्रभु-प्राप्ति या अमर जीवन जीने की इच्छा हुई है ॽ
६. इसके लिए योग, भक्ति या ज्ञान की कोई मनपसंद साधना की है ॽ
७. एकांत या मौन का अनुभव किया है ॽ
८. ठंडी, गरमी, मानापमान सह सकते हैं ॽ
९. केवल ईश्वरपरायण होकर साधना कर सकेंगे ॽ
१०. त्याग न करने से क्या नहीं चल सकता और वह क्यों ॽ
११. स्त्री, धन, कीर्ति या शरीर संवर्धन की वासना दूर की है ॽ
१२. आपके आदर्श के लिए यदि जीवन की अंतिम क्षण तक एकांत-सेवन करना पड़े तो क्या आप तैयार हैं ॽ
इन प्रश्नों को अच्छी तरह सोच लेने के पश्चात् उनका उत्तर हाँ में आता हैं तो भी त्याग करने से पूर्व किसी महापुरुष या ज्ञानी की सलाह लीजिए अथवा आपके अंतरात्मा को बार बार पूछिए । याद रखें कि त्याग कोई साहस नहीं है, और ना ही वह आंख मुँद कर मारी जानेवाली हनुमानकूद है । वह तो निश्चित विकास के बाद की स्वाभाविक अवस्थाविशेष है ।
- © श्री योगेश्वर (‘ईश्वरदर्शन’)