साधना का मार्ग
प्रश्न – साधना के मार्ग में हमें कौन सी बातों का विशेषकर ध्यान देना चाहिए ॽ
उत्तर – पांच बातों का विशेषकर ध्यान रखना चाहिए ।
१. दूसरों के दोष कभी न देखें और बिना देखें न रहा जाय तो दूसरों के दोष यत्र तत्र जाहिर न करें । अगर कहना ही हो तो जिस व्यक्ति में दोष दिखाई देते हो उसको ही उसके बारे में कहें । इससे अगर आपकी गलती होती होगी तो इसका स्पष्टीकरण होगा । अन्य का दोष यत्र तत्र जाहिर करने से कोई हेतु सिद्ध नहीं होता । इससे बहुधा पर्दाफाश करनेवाला व्यक्ति दूसरों की नफरत करनेवाला बन जाता है ।
२. दोष देखने ही हैं तो सिर्फ अपने दोष देखें । अपने दोषों को बारीकी से ढूँढ निकालने एवं उनको दूर करने की आवश्यकता साधनापथ में सबसे ज्यादा है । निर्बलता एवं मलिनता को नष्ट किये बिना साधना में विजय नहीं मिलती । शास्त्र एवं महापुरुष इसे ही हृदयशुद्धि कहते हैं । इसके लिए आत्मनिरीक्षण करते रहना चाहिए । ईश्वर के पथ के प्रवासी को चाहिए कि वह अपने विवेक और सच्ची दृष्टि के दर्पण में अपने छोटे से छोटे दाग की तलाश करके भीतर से और बाहर से स्वच्छ रहें । निर्मलता के अभाव में सत्यज्ञान का उदय नहीं हो सकता । शांति की प्राप्ति संभवित नहीं हो सकती । ईश्वर तो कोसों दूर रहता है यह कहने की शायद ही जरूरत होगी ।
३. जो भी काम करें वह शांति से करने की आदत डालें । खाने पीने में, बोलने-चालने में, सोचने-समझने में, साधना करने में निरर्थक जल्दबाजी करना उपयुक्त नहीं । जीवन की बाह्य एवं आभ्यंतर दोनों क्रियाओं में शांति हाँसिल होनी चाहिए ।
४. आपने सबकुछ पा लिया है ऐसा गलत आत्मविश्वास ख्वाब में भी नहीं रखना । जड़-चेतन सबमें से सच्चा शिक्षण प्राप्त करें । अपने आपको पंडित, ज्ञानी, उपासक, या कृतकृत्य मानने की वृत्ति मनुष्य का सत्यानाश करती है । वैसा मनुष्य किसीसे कुछ ग्रहण नहीं करता । वह दूसरों की त्रुटियों को देखता फिरता है । दूसरों से घृणा करता है और सन्मान करने योग्य व्यक्तिओं का योग्य आदर नहीं करता । भागवत में दत्तात्रेय के चौबीस अवतारों की कथा आती है । उन्होंने पृथ्वी, चील, अजगर, एवं वेश्या से सबक सीखा था । इसका तात्पर्य यही है कि मनुष्य को जागृत रहकर संसार में सबसे कुछ न कुछ सीखना है और ऐसा कोई पदार्थ नहीं जो कोई न कोई शिक्षा न प्रदान करता हो । हमारे भारतवर्ष के प्राचीन ऋषिवरों ने एवं संतमहात्माओं ने नदी, झरनें, पहाड, फूल, पत्थर आदिसे सबक सीखा था और सब में ईश्वर की ज्योति देखी थी । जहाँ सर्वत्र ईश्वर का आलोक दृष्टिगत होता हो और उसके बिना कुछ दिखाई ही न देता हो वहाँ कौन किसका विरोध करे ॽ किससे घृणा करे, किसको अधिक या कम प्रिय मानें और किसके साथ लडें ॽ भारतीय संस्कृति की यह गौरवान्वित उत्कृष्ट विचारधारा, उपनिषद्, रामायण, महाभारत एवं गीता में दर्शनीय है । आजपर्यंत के संतपुरुषों के व्यक्तित्व एवं कृतित्व में यह विचारधारा मूर्त रूप में दिखाई देती है । इस धन्य दशा में पहुँचने में ही जीवन का सार्थक्य है; जीवन का उत्तमोत्तम पुरुषार्थ यही है । किंतु इसके लिए हृदय के किवाड खुले रखकर और भीतर की गंदी हवा को बाहर निकालकर, बाहर की जानदार ताजी हवा को अंदर लेने की जरूरत है । मतलब यह की भगवान दत्तात्रेय की भाँती गुणग्राही बनने की आवश्यकता है । तभी सदगुणों की मूर्ति बन सकेंगे । इसके बिना ईश्वर-प्राप्ति की साधना संभवित नहीं है । मनुष्य को प्राथमिक सिद्धि हासिल होने पर रुक नहीं जाना है बल्कि परमात्म-दर्शन या पूर्णता तक जाग्रत रहकर विकास करना है । अतएव किसी मामूली सिद्धि से अपने आपको धन्य या पूर्ण मानकर बैठे रहने से क्या होगा ॽ
५. अंतिम ध्यातव्य बात है जीवन या साधना का आदर्श । साधना द्वारा आप क्या प्राप्त करना चाहते है - इस बात को भूलना नहीं है । इसे अच्छी तरह याद रखने से आप जीवन का परिपूर्ण आध्यात्मिक विकास कर सकेंगे । इसका जितना भी मनन हो वह कम है । मनन करके उसके अनुसार जीवन को ढ़ालना है । इसके बिना जीवन का सच्चा आनंद नहीं मिल सकता ।
- © श्री योगेश्वर (‘ईश्वरदर्शन’)