अनुभवी महापुरुष, संत-भक्त या विद्वान कहते हैं कि ‘ईश्वर जो करता है वह मगंल के लिए ही करता है’ । ऐसा विश्वास यदि साकार रूप में मनुष्य के मन में हो जाय तो इससे उसका कल्याण होता है । जीवन में कई बार उस विश्वास की कसौटी करनेवाले प्रसंग उपस्थित होते हैं और अक्सर प्रतिकूल परिस्थिति में तो अधिक कसौटी होती है । ऐसे समय ईश्वर की मंगलमय ईच्छा एवं योजना में जिसको विश्वास होता है वह विश्वास को सदैव बनाये रखता है । ऐसा विश्वास यदि हमारे जीवन में पैदा हो जाय और दृढ हो जाय तो कितना लाभ हो जाय ? चिंता खत्म हो जाय, वेदना का शमन हो जाय और प्रत्येक परिस्थिति में मन शांत व स्वस्थ रहें ।
यह घटना प्रायः ई. सन १९५६ की है । उस वक्त मैं ऋषिकेश के भरत मंदिर की धर्मशाला में रहता था । एक सज्जन मुझे अपने घर आनेका निमंत्रण दे गये । उनका घर देहरादून शहर के निकट के गाँव कोलागढ में था । मैंने उनके निमंत्रण का सहर्ष स्वीकार किया । तब वे खुश होकर बोले, ‘आपके आने से मेरा घर पावन हो जाएगा, इतना ही नहीं बल्कि गाँव के लोगों को भी उसका लाभ मिलेगा । हमारा गाँव बहुत ही शांत व सुंदर है । कुछ लोग बहुत ही धर्मप्रेमी व संस्कारी है । आपके आगमन से वे भी लाभान्वित होंगे ।’
उनके साथ बातचीत करके मैंने वहाँ जाने का दिवस तय किया । वे हमें लेने सुबह में जल्दी आयें और हम ११-३० की बस से उनके साथ उनके गाँव जाए – ऐसा निश्चित किया ।
निर्धारीत दिन को मैंने सुबह में उनकी प्रतिक्षा की । सब तैयारियाँ कर ली थी परंतु ग्यारह बजने पर भी वे न आये तो मुझे आश्चर्य हुआ । बारह बज गये, एक बजा फिर भी न आये तो मैं उलझन में पड गया कि क्या करूँ ? मैंने सोचा, वे किसी कारण मुझे लेने न आ सके तो क्या हुआ, तय हुआ था इसलिए मुझे वहाँ जाना ही चाहिए । उनका घर मैंने नहीं देखा था लेकिन मेरे पास उनका पता हैं, तो मैं ढूँढ निकालूंगा ।
करीब तीन बजे जानेवाली बस में मैं ऋषिकेश से देहरादून जाने निकला । रास्ते में सोंग नामक नदी आई । वहाँ हमारी बस थोडी देर रुकी । नदी पर पुल न होने से बस को नदी से ही गुजरना पडता । वर्षाऋतु में बस-व्यवहार बंद रहता । ये तो जाडे की ऋतु थी । नदी में जल बहुत कम होना चाहिए ।
देखा तो पानी में ऋषिकेश से देहरादून जानेवाली कोई बस फँस गई थी । उनके पैसेन्जर बाहर इकट्ठे हुए थे । बस को बाहर निकालने में नाकामियाब हुए थे । जाँच करने पर पता चला कि वह बस ११-३० वाली वही बस थी जिसमें हमने जाने की योजना बनाई थी । योजना सफल नहीं हुई, सो अच्छा ही हुआ । वे सज्जन न आए वह सहेतुक अथवा अच्छा ही हुआ था ऐसा लगा । अगर वो आए होते तो हम उसी बस में सफर करते और उसकी दुर्दशा तो मैं देख ही रहा हूँ । उस दुर्दशा से मुझे बचाने के लिए ही सर्वज्ञ परमात्मा ने उस सज्जन को मेरे पास न भेजा । उस घटना में मुझे ईश्वर की दया का ही दर्शन हुआ । शायद मैं उस बस में बैठा होता तो बस नहीं भी फँसती, ऐसा भी हो सकता था परंतु मुझे तो मेरे सामने जो वास्तविकता थी उसका ही विचार करना था ।
देहरादून पहुँचकर मैं टांगे में बैठकर लगभग दो मील का फाँसला काटकर कोलागढ उस सज्जन के वहाँ पहूँचा । मुझे देखकर उन्हें अचरज हुआ, थोडा संकोच भी हुआ । उन्होंने कहा, ‘आजके दिन का तो मुझे ख्याल ही न रहा, माफ करना ।’
‘कोई हर्ज नहीं, आपका विस्मरण मेरे लिये लाभकारक सिद्ध हुआ है ।’ मैंने उत्तर दिया ।
‘कैसे ?’
मैंने रास्ते की सब घटनाएँ कहकर सुनाई । वे बोले ईश्वर जो करता है वह कल्याण के लिए, फिर भी मैं आपको लेने न आ सका इसका मुझे अफसोस है ।’
‘ईश्वर की हर योजना या लीला सहेतुक होती है, मंगलमय होती है । हमें चाहिए की हम उसे इसी तरह देखने की दृष्टि हासिल करें ।’
अगर हम सचमुच ऐसी आदत डालें तो ईश्वरकृपा का दर्शन हमारी रोजबरोज की जिन्दगी में अवश्य होगा ।
- श्री योगेश्वरजी