भारत में दीनदुःखीयों, विद्यार्थीयों, विधवाओं एवं साधुसंतो की बरसों से विभिन्न रूप से सेवा करनेवाली संस्था बाबा काली कमलीवाले की संस्था का नाम शायद ही किसीने न सुना हो । संस्थान की कीर्ति-सौरभ उसकी लोकोपयोगी प्रवृति के लिए देश के विभिन्न भागों में और विशेषतः उत्तर प्रदेश में फैली हुई हैं ।
इस संस्था के संस्थापक महात्मा बाबा काली कमलीवाले एक उच्च कोटि के ज्ञानी, त्यागी, संयमी एवं सेवापरायण संतपुरुष थे । इसका बीज उनके जैसे सुपात्र पुरुष द्वारा डाला जाने के कारण ही उसका इतना विकास हुआ, वह सुदृढ बनकर एक विशाल वटवृक्ष के समान पल्लवित हुई है ।
उनका मूल नाम स्वामी विशुद्धानंद था । किन्तु वे काली कमली ओढते थे अतएव बाबा काली कमलीवाले के नाम से विख्यात हुए । लक्ष्मी मानों उनकी दासी थी । बडे बडे धनिक भी उनकी सेवा करने तत्पर रहते थे फिर भी वे अत्यंत सादगी से रहते थे । वह संस्थान को जनहितार्थ मानते और उसका उपयोग अपने सुखोपभोग के लिए नहीं परंतु लोकसेवा के लिए करते थे ।
वे स्वाश्रयी जीवन में मानते थे और दूसरे लोग भी वही करे ऐसा चाहते थे । उनकी आवश्यकताएँ अत्यल्प थी । अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिये दूसरों पर शायद ही आधार रखते या कम से कम आधार रखते । वे जब तक जिये तब तक स्वयं गंगा से पानी के घडे भरकर लाते रहे । यह बात उनके स्वाश्रयी जीवन का परिचय देती है । यदि वे चाहते तो इस काम के लिए संस्थान के या बाहर के कई लोग मिल जाते पर वे अपने हाथों ही यह कार्य करते थे ।
एक बार जब वे गंगा तट से पानी का घडा भर आते थे कि रास्ते में एक सेवक ने उसे लेने की नाकाम कोशिश की । सेवक ने कहा, ‘हमारे होते हुए आप इस तरह घडा उठाए यह क्या अच्छा लगता है ?’
बाबा ने उत्तर दिया, ‘इसमें क्या बूरा है ? मुझे स्वयं इतनी सेवा तो करनी ही चाहिए ।’
‘परंतु हमारे होते हुए आपको ऐसा करने की आवश्यकता नहीं है । आप तो संस्थान की बहुत सारी सेवा करते ही हैं ।’
तब बाबा काली कमलीवाले ने कहा, ‘देखो भाई, सेवा की कोई सीमा नहीं होती, कोई गिनती नहीं होती । जीवन की अंतिम साँस तक हमें अपने जीवन का उपयोग दूसरों की सेवा के लिए करना चाहिए । सेवा में कोई छोटा नहीं, कोई बडा नहीं । सब तरह की सेवा काम की है और इससे मनुष्य को लाभ होता है और सेवा करनेवालों को भी इससे संतुष्टि मिलती है । इस संस्थान में रहकर मैं भी यथाशक्ति शरीरश्रम करूँ यह अत्यावश्यक है । इससे दूसरों को प्रेरणा की प्राप्ति होगी । ईश्वरेच्छा से माली बनकर जो सेवा का बीज मैंने बोया है, उस पर थोडा पानी डालता जाउँ, यह उचित ही है ।’
हमारे नेता, संस्थापक, महंत और संस्थाध्यक्ष सेवा की यह भावना हासिल करे तो समाज को – राष्ट्र को कितना लाभ होगा ?
- श्री योगेश्वरजी