प्रीतमदास का प्रताप
गुजरात के चरोतर प्रदेश के संदेसर गाँव में रहनेवाले भक्तकवि प्रीतमदास प्रज्ञाचक्षु थे । वे प्रज्ञाचक्षु केवल कहने के लिए नहीं परंतु शब्द के सच्चे अर्थ में थे । उनके बाह्य स्थूल चक्षु जन्म से ही बन्द थे परंतु अंतर-चक्षु खुले हुए थे । ईश्वर की परमकृपा से उन्हें दिव्यदृष्टि की प्राप्ति हुई थी । उन्हें ऐसी प्रज्ञा प्राप्त थी जिसे योगदर्शन में ऋतंभरा प्रज्ञा कहते हैं और जो ईश्वरानुग्रह-प्राप्त पुरुषों को ही मिलती है ।
फिर भी वे शब्दों के रुढ अर्थ में योगी नहीं थे परंतु भक्त थे । भक्ति के द्वारा उनको ईश्वर का अनुग्रह मिला था, ईश्वरदर्शन हुए थे । उन पर ईश्वर की पूर्ण कृपा हुई थी यह कहा जा सकता है । उनके भावभक्ति से भरे पद गुजराती साहित्य में मशहूर है और अत्यंत आदरपात्र माने जाते है । फिर भी यह कहना उचित होगा कि वे पहले भक्त थे और बाद में कवि । भक्ति द्वारा ईश्वर का साक्षात्कार करके वे सिद्धावस्था को पहुँचे थे ।
उनकी सिद्धावस्था के परिचायक अनेक प्रसंग उनके जीवन में हुए थे । उनमें से एक सुंदर प्रसंग पैश करता हूँ ।
कहते हैं एक बार प्रीतमदास सफर के लिए निकले थे । रास्ते में उनके रथ के सामने एक महंत का रथ आ रहा था । वे किसी बडे स्थान के महंत थे अतः उनके सारथी ने रथ एक और हटाने से इन्कार किया । प्रीतमदास के शिष्य भी उनसे क्या कम थे ? उन्होंने अपने गुरु को समर्थ मानते हुए महंत के रथ को रास्ता न दिया ।
दोनों रथ वहाँ रुक गये । सामने के रथवाले प्रीतमदास को गालियाँ देते हुए अपने गुरु की अतिरक्त प्रसंशा करने लगे ।
प्रीतमदास को लगा कि महंत व शिष्यमंडल के मन में बडा घमंड है, उसे दूर करना चाहिए । योगानुयोग से एक घटना घटी । दोनों के रथ के बीच एक मृत कबूतर गिरा था । प्रीतमदास ने यह देख कहा, ‘अगर तुम्हारे महंत को अपनी शक्ति या योग्यता का घमंड है तो वे अपनी श्रेष्ठता का सबूत पेश करें । इस मरे हुए कबूतर को जिन्दा करें तो रास्ता देकर उन्हें पहले आगे जाने दूँगा ।’
महंत में ऐसी कोई शक्ति न थी अतएव वे कुछ न कर सके । आखिरकार प्रीतमदास ने कहा, ‘मुझ में भी कोई विशेष शक्ति नहीं है पर मुझे पूरा विश्वास है कि ईश्वर सर्वशक्तिमान है और जो चाहें कर सकतें है ।’
ऐसा कहकर उन्होंने मृत पक्षी पर कपडा रखा और ईश्वर का स्मरण करके पानी छिडका । देखनेवाली बात यह हुई कि कबूतर जिन्दा हो गया और पंख फडफडाकर उड गया । यह देख सब दाँतो तले उँगली दबाने लगे और प्रीतमदास को प्रणाम किया ।
प्रीतमदास को किसी प्रकार का अभिमान न था । महंत के मिथ्याभिमान को मिटाने के लिए ही उन्होंने अपने प्रताप का प्रदर्शन किया था । वैयक्तिक शक्ति या सिद्धिप्रदर्शन करने की कोई लालसा उन्हें न थी । महंत का अहंकार चूरचूर हो गया । प्रीतमदास के रथ को उन्होंने आगे जाने दिया । इसके अतिरिक्त वे प्रीतमदास के प्रेमी व प्रसंशक बन गये ।
बडप्पन का अभिमान सबके लिए बुरा है । विशेषतः सतं या महंत को तो इससे दूर ही रहना चाहिए । इसके प्रभाव से बचना चाहिए । ऐसा उपदेश देकर प्रीतमदास चल दिये । गुजरात जिस पर नाज़ ले सके ऐसे वे सात्विक संत थे ।
- श्री योगेश्वरजी