आश्रम में कपड़े खुद धोने पड़ते थे । आदत न होने के कारण शुरु में कुछ दिक्कतें आयी लेकिन बाद में सबकुछ ठीक हो गया । कपड़े अगर ठीक तरह से न धुले हो तो गृहपति दंड देते थे इसी वजह से सब डरे-सहमे रहते थे । हमारे समाज में कुछ लोग ऐसे है जो तुलसीदास की उन प्रसिद्ध उक्ति - बिना भय प्रीत नहीं - में विश्वास रखते है । हालाकि ये बताना मुश्किल है कि भय से प्रीत होती भी है या नही और अगर होती है तो कितने अरसे तक टिकती है । यहाँ तो बात कुछ ऐसी थी की भय दिखाकर भी प्रीत करने का कोई प्रयास नहीं होता था । बच्चों को दंड देने में गृहपति को एक अजीब आनंद मिलता था । ऐसे लोगों से प्यार की उम्मीद रखना मूर्खता थी । जैसे ज्यादा प्यार से बच्चें बीगड़ जाते है, भय व दंड से भी उनका सुधार असंभव हो जाता है । जिन्हें बच्चों से प्यार करने में कोइ दिलचस्पी नहीं थी उनसे भला मधुर संबंध की उम्मीद कैसे रक्खें ? बच्चें इसी कारण गृहपति से दूरी रखने की कोशिश करते थे ।
आज भी अक्सर ऐसा देखने में आता है । परिस्थिति में काफी सुधार हुआ है फिर भी बहुत कुछ करना बाकी है । दंड मिलने पर विद्यार्थियों में गृहपति की ओर प्रतिशोध की भावना बढ़ती है । बच्चें गृहपति को गाली देते थे और गृहपति के विरुद्ध समाचार मिलने पर खुशी मनाते थे । कुछ छात्रों को छोड़कर सबका एसा हाल था । हालात कभी-कभी इतने नाजुक हो जाते थे की छात्र खुलेआम अपना विरोध प्रदर्शित करने लगते थे । मुझे अभी भी याद है कि एक बार छात्रों ने इकठ्ठा मिलके बिजली बंद कर दी और गृहपति को जूते से पिटा था । जैसे भूमि में उष्णता बढ़ जाने से भूकंप होता है कुछ ऐसा यहाँ भी हुआ । गृहपति को पीट़ना कोई सराहनीय बात नहीं थी, यह तो छात्रों और गृहपति के बीच के वैमनस्य का प्रतिबिंब था । गृहपति या संचालक को चाहिये कि वे छात्रों से मधुर संबंध के लिए प्रयास करें ।
आश्रम में तरह-तरह की प्रवृत्तियाँ होती थी मगर मेरा ध्यान पढ़ाई में सविशेष था । आश्रम में हर साल वार्षिकोत्सव होता था जिसमें बाहर से कुछ विशेष लोगों को निमंत्रित किया जाता था । छात्र मिलकर संगीत, नाटक, व्यायाम तथा गीत का कार्यक्रम करते थे । लोग उसे पसंद करते थे । अच्छे प्रदर्शन के लिए ईनाम मिलते थे । कई सालों तक मैं भी उसमें शरीक हुआ । खास कर मेरी अभिनय-कुशलता का अंदाजा होने से कार्यक्रम के संचालकों ने मुझे छोटा-सा किरदार दिया था । मैंने उसे बखूबी निभाया । बस, फिर तो चल पड़ा, हर साल किसी-न-किसी प्रहसन में मुझे किरदार दिया जाता था । मैंने विविध प्रहसनों में करण घेला, छत्रपति शिवाजी तथा अर्जुन के किरदार निभाये थे । भगवद् गीता के प्रथम अध्याय पर आधारित नाटक में मेरा अर्जुन का किरदार मुझे सविशेष याद है क्यूँकि उस साल बंबई के गवर्नर लोर्ड ब्रेबोर्न की पत्नी लेड़ी ब्रेबोर्न के हाथों मुझे पुरस्कार मिला था । प्रेक्षको से भरे हुए हॉल में लेडी ब्रेबोर्न ने हाथ मिलाकर मेरा नाम पूछा और मेरी सराहना की थी ।
अनाथाश्रम छोडकर जी. टी. बोर्डींग में रहेने गया तब भी मेरा ये शौक यथावत् रहा । वहाँ मैंने गुजरात के सुप्रसिद्ध हास्यलेखक श्री ज्योतिन्द्र दवे के प्रहसन 'लग्न ना उमेदवारो' में एक कवि का किरदार निभाया था । अगर मेरी यह प्रवृत्ति जारी रहती तो मेरा जीवनपथ आगे चलकर कहीं ओर मुड जाता, मगर ऐसा नहीं हुआ । लेकिन सही मायने में अगर सोचा जाय तो आज भी अभिनय, अभीनेता और प्रहसन जारी है । यह जिंदगी भी एक नाटक से क्या कम है ? फर्क सिर्फ इतना है कि थियेटर में होनेवाले नाटक में अभिनय करनेवाला उससे अलीप्त रहता है, मगर जीवन में वह कर्मसंस्कारो से बद्ध हो जाता है । व्यक्ति को जब तक पूर्णता नहीं मिलती, वह जन्म और मरण का चक्र में फिरता रहता है । जीवन बेशक समाप्त होता है मगर खेल खत्म नहीं होता । अभिनेता को विभिन्न किरदार निभाने के लिये बार-बार आना पड़ता है । इस दृष्टि से देखा जाय तो मेरा अभिनय अब भी जारी है ।