गंगा तटवर्ती छोटे-से मकान की गेलेरी में स्वामी शिवानंदजी टहल रहे थे । मैंने वहाँ जाकर उनके दर्शन किये । उनका मुखमंडल गंभीर था । वे कुछ गहरे चिंतन में डूबे हुए लगते थे । उनकी मुखमुद्रा प्रभावशाली थी, पहेली नजर में आगंतुक व्यक्ति को आकर्षित करने में समर्थ थी । मैंने पास जाकर प्रणाम किया और फिर खडा रहा । उन्होंने मुझे देखते ही पहचान लिया । मेरे लिखे हुए खत के बारे में उनको पता था । मुझे देखकर वे खुश हुए मगर उनके चहेरे की रेखाएँ कुछ ओर बता रही थी । वजह स्पष्ट थी, उनको यह कल्पना नहीं थी की मैं आश्रम में इतना जल्दी चला आउँगा । उन्होंने मेरे पत्र के प्रत्युत्तर में मेरी भावनाओं की सराहना की थी और आश्रम में आने के लिए थोडा इंतजार करने को कहा था । उन्होंने ये भी लिखा था कि सही वक्त आने पर वे मुझे आश्रम में बुलायेंगे । इसके बारे में मैंने पूर्व प्रकरणों में जिक्र किया था । मगर उनकी ‘सही वक्त पर बुलाने की बात मुझे अच्छी नहीं लगी थी । मेरा यह मानना था कि साधना के लिए सही वक्त आ चुका है । लंबे अरसे से मैं जीवनशुद्धि की साधना कर रहा था और इसके फलस्वरूप मेरे मन में ईश्वर-प्राप्ति की लगन लगी थी । मेरी इस हालत का अंदाजा किसीको नहीं था । स्वामी शिवानंद बेशक उच्च कोटि के संतपुरुष थे, मगर सिर्फ मेरा खत पढने से उन्हें मेरी स्थिति का अंदाजा कैसे होगा ? मुझे लगा कि ऋषिकेश जाकर शिवानंदजी को सबकुछ बताना चाहिए । एसा करने पर उन्हें मेरी मानसिक भूमिका का अंदाजा होगा और वे मुझे आश्रम में प्रवेश की अनुमति दे देंगे । मगर उनसे मिलने के बाद मुझे लगा कि मेरा खयाल गलत था ।
वे बोले, ‘अरे, तुम तो शीघ्र आ पहूँचे । मैंने तो आपको इंतजार करने को कहा था ।’
मैंने प्रत्युत्तर देते हुए कहा, ‘हाँ, आपने कहा जरूर था, मगर मुझसे रहा नहीं गया । मुझे साक्षात्कार की धून लगी है, उसके लिए मैं हरसंभव प्रयास कर रहा हूँ । प्राणीमात्र में इश्वरदर्शन करने की मैंने आदत डाली है, मगर मेरी ईच्छा साकार दर्शन की है । मैं चाहता हूँ कि मैं समाधि दशा का अनुभव करूँ, माँ के साक्षात दर्शन कर लूँ । इस ध्येय को जब तक मैं हासिल न कर लूँ, मुझे चैन नहीं मिलेगा । यहाँ आने के पीछे मेरा यही मकसद है । यहाँ के शांत और पवित्र वातावरण में अपनी मंझिल तक पहूँचने में मैं जरूर कामियाब हूँगा और तब तक रुकने की पूरी तैयारी करके मैं आया हूँ ।’
उनके मुखमंडल पर लगी व्यग्रता की रेखाएँ कुछ कम हूई । मेरी बात को शांतिपूर्वक सुनने के बाद उन्होंने कहा, ‘मैं आपकी बात समझ सकता हूँ मगर आश्रम में अभी सुविधा का अभाव है । आप वापस गुजरात चले जाओ और प्रतिक्षा करो । यहाँ सुविधा होने पर मैं आपको बुला लूँगा ।’
मुझे लगा कि ईश्वर मेरी परीक्षा कर रहा है । हिमालय में साधना करने की पूरी तैयारी करके मैं निकला था । कुछ हासिल किये बिना मैं वापिस कैसे जा सकता हूँ ? समरांगण में उतरनेवाला योद्धा पीठ दिखाकर भागने की सोचता है भला ? वो तो शत्रुओं से मुकाबला करने की पूरी तैयारी करके निकलता है, वो न तो डरता है शस्त्रों से और ना ही शत्रु की ताकत से । जो घाव से डरे, आपत्तिओं से जिसके पैर हिलने लगे वो योद्धा युद्ध कैसे कर पायेगा और विजयी कैसे होगा ?
आत्मिक उन्नति के मार्ग पर कदम रखनेवाले मुसाफिर और समरांगण में उतरनेवाले योद्धा में ज्यादा फर्क नहीं है । योद्धा बाहरी शत्रुओं से लडता है और साधक आंतरिक शत्रुओं से, अपनी वृत्तियों से, अपने आप से लडता है । यह कार्य अत्यंत मुश्किल है । जो कायर है, गभरु है, भागनेवाला है उसका इसमें काम नहीं है, केवल मजबूत ईरादोवाले ही इसमें सफल हो पायेंगे । साधक को चाहिए की वो मुश्किलों के बारे में सोचकर न गभराएँ, तकलिफों या रुकावटों से न डरें, हिंमत से उसका सामना करें । मुझे गुजराती कविता की पंक्ति याद आई, ‘डगलु भर्युं ते ना हठवुं, ना हठवुं’ (अर्थात् एक बार कदम भरने के बाद पीछेहठ नहीं करना) ।
स्वामीजी की गुजरात वापिस चले जाने की बात मुझसे हजम नहीं हुई ।
मैंने करुण स्वर में कहा, ‘जब तक पूर्ण शांति का मेरा संकल्प पूर्ण न हो, मैं गुजरात वापिस नहीं जाउँगा । मैं किसी के बहकावे में आकर या भावनाओं मे बहकर यहाँ नहीं आया हूँ । ईश्वर की झाँकी करने के लिए आया हूँ, मुझसे रहा नहीं गया इसलिए आया हूँ । अगर आश्रम में कोई सुविधा न हो तो कठिनाइयों का सामना करने की मेरी तैयारी है । मैं असुविधा में सुविधा ढूँढ निकालूँगा । मैं आश्रम में निवास करने की पूरी तैयारी करके आया हूँ । अगर आप मुझे आश्रम में स्थान न दें तो मैं हिमालय के किसी पहाड में चला जाउँगा और ईश्वर की कृपा पाने के लिए महेनत करूँगा ।’
स्वामीजी बोल पडे, ‘वहाँ पहाड में तुम्हें खाना कौन खिलायेगा ?’
मैंने कहा, ‘मुझे खाने की चिन्ता नहीं है । मैंने अपना जीवन ईश्वर को समर्पित किया है । वो मुझे सम्हालेगा, वो जहाँ ले जायेगा, मैं जाउँगा । अगर खाना नहीं मिला तो मैं भूखा रहूँगा मगर मेरा ध्येय सिद्ध न होने तक चैन की साँस नहीं लूँगा ।’
मेरे शब्दों की प्रतिक्रिया स्वामीजी पर कैसी हुई ये मुझे नहीं मालूम, मगर उन्हों ने कहा, ‘अभी तो आराम कर लो, बाद में इसके बारे में सोचेंगे ।’
शाम ढलने का वक्त था । कुछ ही देर में आकाश रंगो से भर गया । पहाडों में सूरज वैसी भी जल्दी ढलता है और ये सर्दीयों के दिन थे । स्वामी कृष्णानंद, जो आश्रम में रहते थे, उन्होंने मुझे प्यार से बुलाया । कृष्णानंद अच्छे लेखक थे । आश्रम से आध्यात्मिक प्रचार हेतु अंग्रेजी मासिक निकलता था, उसके लिए कुछ टाईप कर रहे थे । मेरी साथ उन्होंने वार्तालाप का प्रारंभ किया । उन्होंने अपने जीवन के बारे में मुझे बताया । वे मद्रास (चेन्नई) से थे, और उनके विचार और संस्कार उच्च थे । वार्तालाप से मुझे पता चला कि आश्रम में विभिन्न प्रवृतियाँ होती थी और स्वामी कृष्णानंद उनमें महत्वपूर्ण भूमिका निभाते थे । उनके साथ बात करके मुझे अच्छा लगा ।
आश्रम में एक ओर संन्यासी थे, जिनका नाम रामचंद्र था । उनके संस्कार उच्च थे और प्रकृति पवित्र थी । आश्रम के अन्य सदस्यो से स्वामी शिवानंद के जीवन के बारे काफि कुछ जानने को मिला । आश्रम के संचालन से परेशान होकर, साधना की प्रबलता से, या किसी अन्य कारणवश एक दिन स्वामीजी आश्रम छोडकर निकल पडे । वो कहाँ गये या कब लौटेगें इसके बारे में किसीको सुचित नहीं किया । आश्रम के मंत्री और अन्य सदस्य इससे परेशान हो गये । उन्होंने अपने मैगजीन में स्वामीजी की फोटो छपवाकर लोगों से अपील की ‘जिसको भी स्वामीजी के बारे में खबर मिले वो फौरन आश्रम में सूचित करें ।’
कुछ ही दिनों में स्वामीजी आश्रम में वापिस लौट आये और पूर्ववत् आश्रम को सम्हालने लगे । स्वामी के आश्रमत्याग के पीछे क्या वजह थी ये कोई जान नहीं पाया । वे आश्रम के माहौल से छूटना चाहते थे या फिर एकांतिक साधना के लिए कहीं दूर निकलना चाहते थे ? इन प्रश्नों के उत्तर सिर्फ स्वामीजी ही दे सकते है । मगर उनके आश्रमत्याग का प्रसंग उनकी निर्मोहिता को सिद्ध करने के लिए पर्याप्त था । इसे सुनने के बाद मेरा उनके प्रति प्यार ओर बढ गया । मेरे आश्रम में जाने के कुछ समय पूर्व ये घटना घटी थी ।
आश्रम में जो प्रवृत्तियाँ होती थी उसे देखकर मुझे लगा कि ये सब तो घर में रहकर भी हो सकता है, इसके लिए घर से भागने की क्या जरूरत है ? आश्रम में तो सिर्फ साधना के लिए जाना चाहिए । मगर वक्त गुजरते आज मुझे लगा कि मेरे खयालात कच्चे थे । शायद ही कोई साधक अपना संपूर्ण समय साधना में व्यतीत कर सकता है । अवकाश के वक्त में अगर कोई साधक सहायक प्रवृति में शामिल होता है तो उसमें कोई बुराई नहीं है । एसा करने से उनका और ओरों का भला होगा । कुछ उच्च कोटि के साधको कों छोडकर सामान्य साधक अगर किसी प्रवृति में हिस्सा लेते है तो उसमें कुछ गलत नहीं है । हाँ ये बात है कि प्रवृति की आड में उसे अपनी व्यक्तिगत साधना की उपेक्षा नहीं करनी चाहिए । आत्मिक विकास की जरुरत सबसे ज्यादा है, उसका खयाल साधक को हमेशा रहेना चाहिए ।
कई लोग आध्यात्मिकता के नाम पर चल रहे आश्रमों मे हो रही ईतर प्रवृतियों को देखकर मुँह मोडते हे और टिका करने लगते है मगर यह ठीक नहीं है । मेरा मानना है कि आश्रम में आध्यात्मिक प्रवृतियों के अलावा जनसेवा की प्रवृतियाँ भी होनी चाहिए । अगर इससे समाज का भला होता है तो किसीको क्या आपत्ति हो सकती है ? साधकों को सहायता पहूँचाने के अलावा आश्रम या कोई संस्था लोगों की सहायता करती है उसमें क्या बुराई है ? शिवानंद आश्रम की इतर प्रवृति को सही नजरिये से देखना चाहिए ।