वेदबंधु को मिलकर मुझे बेहद खुशी हुई । कुछ ही दिनों में मेरी उनसे अच्छी जानपहेचान हो गयी । वेदबंधु मद्रास प्रांत के निवासी थे । उनकी उम्र तकरीबन पैंतीस-चालीस साल होगी । उनका शरीर दुबला था मगर उनकी मुखमुद्रा तेजस्वी, शान्त और प्रभावी थी । छोटी उम्र में उन्होंने गृहत्याग किया था । वे कुछ वक्त श्री अरविंद और रमण महर्षि के आश्रम में रहे थे । अभ तक, वे बहुत सारे संत-महात्माओं को मिल चुके थे । वे अंग्रेजी और संस्कृत के विद्वान थे । वे उत्तरकाशी से एक वृद्ध संन्यासी पुरुष, जो देवी के उपासक थे, उनके साथ टिहरी आये थे । नेपाल के राजकुमार का दोनों महापुरुषों पर अनुग्रह था । राजकुमार की मसूरी और दहेरादून के बीच जडीपाणी स्थित कोठी में वेदबंधु अक्सर जाया करते थे । राजकुमार के अनुग्रह पर वे संन्यासी महाराज को लेकर ऋषिकेश जा रहे थे मगर टिहरी से ऋषिकेश का मार्गे ठीक नहीं होने से यातायात रुक गया था । अतः यातायात सामान्य होने तक उन्होंने टिहरी रुकने का फैंसला किया था । मार्ग दुरस्त होते-होते बीस दिन निकल गये, और उन दिनों में हम एकदूसरे के काफि करीब आ गये । प्रगाढ़ संसर्ग से उनके प्रति स्नेह होना स्वाभाविक था । मेरे जीवन में ऐसा स्नेह मुझे शायद ही किसी संतपुरुष से हुआ है ।
बदरीनाथ मंदिर की धर्मशाला में हम मिले । वेदबंधु ने कहा, 'आखिरकार हम मिल ही गये । हरिद्वार में मैंने आपको प्रभुदत्तजी के पास देखा था । आपको देखकर मुझे प्रसन्नता हुई थी और लगा था की आपको मिलना चाहिये ।'
उनके शब्द सुनकर मुझे हर्ष हुआ और उनको हरिद्वार में देखकर मेरे हृदय में जो भाव उठे थे, उसकी स्मृति हुई । मैंने जब इसके बारे में उनको बताया तो वे बहुत प्रसन्न हुए । फिर मैंने उनसे प्रश्न किया, 'क्या आपको संकीर्तन करना पसंद नहीं है ? आप प्रभुदत्तजी के साथ थे मगर संकीर्तन में शामिल नहीं थे ।'
'हाँ, मैं संकीर्तन में शामिल नहीं था ।' उन्होंने कहा, 'मगर इसका यह मतलब नहीं की मुझे संकीर्तन में रुचि नहीं है । दरअसल मैं भीड से दूर रहना पसंद करता हूँ, इसलिये मैं कमरे में बैठा था । अगर बाहर लोगों के साथ बैठता तो संकीर्तन के वक्त खेचरी मुद्रा कर लेता, जिससे मेरे आसपास क्या हो रहा है उसका पता नहीं चलता ।'
'आपको खेचरी मुद्रा आती हैं?’
'हाँ', उन्होंने निःसंकोच उत्तर दिया ।
'योगशास्त्रों में खेचरी मुद्रा के बारे में बहुत कुछ कहा गया है । खेचरी मुद्रा से समाधि की सिद्धि मिलती है, योगी आकाशगमन कर सकते हैं, तालु प्रदेश में जिह्वा लगाकर अमृतपान कर सकते हैं, अखंड यौवन पा सकते हैं, मृत्युंजय हो सकते हैं । क्या आपको इसका अनुभव हैं ?'
'मुझे कुछ अनुभव मिला हैं', उन्होंने कहा, 'और मैं इससे संतुष्ट हुँ । खेचरी मुद्रा करने से अमृतरस का पान कर सकते हैं और समाधि की सिद्धि मिलती है यह सच है । आजकल जब मैं खेचरी मुद्रा करता हूँ, जीभ को उपर लगाकर बैठता हूँ, तो आसानी से समाधि में चला जाता हूँ । खेचरी मुद्रा करते वक्त मैं संकल्प करता हूँ की आधे या एक घण्टे के बाद मेरी समाधि पूर्ण होनी चाहिये तो वैसा होता है । वक्त खत्म होने तक मेरी जीभ तालु प्रदेश पर लगी रहती हैं ।'
उनकी बात मेरे लिये आश्चर्यकारक थी क्योंकि मैंने खेचरी मुद्रा के बारे में किताबों में पढ़ा था मगर अनुभवसंपन्न महापुरुष से उनके बारे में सुनने का मेरे लिये यह प्रथम अवसर था । मैंने जिज्ञासा जताते हुए कहा, 'क्या ऐसा हो सकता है ?'
'अवश्य', उनकी आँखें चमक उठी, 'एसा अवश्य हो सकता है । संकल्प से कुछ भी कर पाना संभव है । हम ऐसे कई लोगों को देखते हैं जो सोते वक्त एक निश्चित वक्त पर उठने का प्रण करते हैं और सुबह बक्त होने पर ही आँखे खोलतें हैं । समाधि में भी हम एसा कर सकते हैं । अभ्यास होने पर हम अपनी इच्छा के मुताबिक समाधि दशा में रह सकते हैं । हाँ, इसके लिये काफि सारे अभ्यास की आवश्यकता रहेती है ।'
नेपाल के राजकुटुंब के साथ उनके परिचय के बारे में जब मैंने पूछा तो उन्होंने कहा, 'कुछ साल पहले की बात है । तब हरिद्वार के श्रवणनाथ मंदिर में प्रभुदत्तजी की भागवत-कथा चल रही थी । मैं वहाँ गया और कथा समाप्ति के कुछ वक्त पूर्व मैंने खेचरी मुद्रा की । इसके फलस्वरूप मेरा देहभान चला गया और मैं समाधिस्थ हो गया । इधर कथा में संकीर्तन हुआ, खत्म हुआ, श्रोताजन अपने घर चले गये मगर मैं समाधि में पड़ा रहा । सब लोग चले गये मगर एक वृद्धा, जो मुझे बराबर देख रही थी, वहाँ बैठी रही । मुझे इस अवस्था में देखकर उसे हैरानी हुई । वो मेरा देहभान लौटने का इंतजार करती हुई वहाँ बैठी रही । उसे योगमार्ग का अनुभव था इसलिये मुझे जाग्रत करने का उसने प्रयास किया । कुछ ही देर में मैं जाग्रत हुआ । उस वृद्धा को मेरे पास देखकर मुझे आश्चर्य हुआ । उसका वर्ण गौर था और वेशभूषा से वो कोई राजपरिवार की सदस्या लगी । बस, तब से लेकर आज तक उनके साथ मेरा परिचय बना हुआ है । वह और कोई नहीं, नेपाल के राजपरिवार की राजमाता थी । उनकी कोठी सप्तसरोवर पर थी । कुछ दिन मैं वहाँ रहने गया । इस तरह से राजपरिवार के अन्य सदस्यों के साथ मेरा परिचय हुआ । हालाँकि उस घटना के बाद मैंने लोगों की भीड से दूर रहना पसंद किया ।'
उनकी बात सुनकर मुझे प्रसन्नता हुई । उनके जैसे अनुभवी संतो का समागम सदैव सुख और शांतिप्रदायक होता है । उनका मिलन शास्त्रों के अध्ययन से किसी भी प्रकार कम नहीं होता ।