संत-महापुरुषों के समागम से हमें वो मिलता है जो धर्मग्रंथो के अध्ययन या पठन से नहीं मिलता । साधना से जीवनमुक्त हुए महापुरुषों के सत्संग से मन शांत होता है, उसकी सारी दुविधाएँ मिट जाती है । सत्संग से महापुरुषों के जीवन का अवलोकन करने का सुअवसर मिलता है । सत्संग हमें उनकी आध्यात्मिक अनुभूतियों से अवगत कराता है ।
वेदबंधु योगी थे, या यूँ कहो की उन्हें योगमार्ग में विशेष अभिरुचि थी । योग के साथ-साथ वे वेदांत को पसंद करते थे, अष्टावक्र गीता के श्लोक उनके मुख से निकलते रहते थे । भक्तिमार्ग के सिध्धांतो को वे आत्मसात कर चुके थे । संक्षिप्त में कहूँ तो उनकी दृष्टि बिल्कुल संकुचित नही थी ।
जैसे जैसे हमारे बीच स्नेहसंबंध बढ़ता चला, व्यक्तिगत अनुभवों का आदान-प्रदान होने लगा । मैंने वेदबंधु को ऋषिकेश में मिले त्रिकालज्ञ महात्मा पुरुष के बारे में बताया । मेरी बात सुनकर वे प्रसन्न हुए और कहने लगे, 'आज भी हमारे देश में न जाने कितने त्रिकालज्ञ महापुरुष विद्यमान है । प्रभुकृपा से जब उनके दर्शन का सौभाग्य मिलता है, तब मन का मयूर नाच उठता है ।
कुछ ही महिने पहले की बात है । मैं हिमालय क्षेत्र के एक मनभावन स्थान में था । मेरे साथ प्रभुदत्तजी थे, जो वहाँ पर भागवत-कथा कर रहे थे । एक दिन, कथा खत्म होने के बाद, रात को एक महापुरुष हमारे स्थान पर आये । वे बिल्कुल निर्वस्त्र थे । हमने प्रसन्नता से उनका सत्कार किया । कुछ देर तक खामोशी छायी रही । बाद में उन्होंने प्रभुदत्तजी और मेरे भूत तथा भविष्य की बात कही । हमारे भूतजीवन के बारे में उन्होंने जो कुछ भी कहा, सत्य था, इसलिये हमे आश्चर्य हुआ । हमें पूरा यकीन हो गया की वे कोई साधारण पुरुष नहीं हैं । हमने उनके ठहरने का इन्तजाम किया । मन-ही-मन सोचा की सुबह में उनका यथोचित सन्मान करके उनकी सेवा करेंगे । मगर सुबह होने पर वे देखाई नहीं दिये, कहीं चल पड़े । हमारे हाथ में आया हुआ हीरा हमने इस तरह खो दिया । हमें बड़ा दुःख हुआ की हम उनकी सेवा से वंचित रह गये । उनको ढूँढने के हमारे सभी प्रयास विफल रहें । हमारे देश में एसे कितने महापुरुष हैं यह तो इश्वर के अलावा कौन बता सकता है ?'
मैंने कहा, 'जब कभी उनसें भेंट होती है, तब हमें उनके बारे में पता चलता है । और वो भी तब मुमकिन होता है जब वे स्वयं कृपा करके हमें उनके वास्तविक रूप का परिचय करवाते हैं । महापुरुषों को यथार्थ और संपूर्ण रूप से समझ पाना किसी भी मनुष्य के लिये अत्यंत कठिन है । हमारे देश का यह सौभाग्य है कि उनके जैसे कई लोकोत्तर सिद्ध महापुरुष इस घोर कलियुग में भी विद्यमान है । धर्म, साधना और लोकोत्तर आध्यात्मिक शक्ति में भरोंसा न करनेवाले लोगों का जीवन एसे सिद्धपुरुषों को मिलने के पश्चात बदल जाता हैं । वे उन्हें सोचने पर मजबूर करते हैं कि हाँ, एसा भी हो सकता है । इसी नजरिये से देखा जाय तो यह उनकी बेहद किमती सेवा है ।'
वेदबंधु मेरी बात से सहमत हुए । हररोज हमारे बीच कुछ-न-कुछ चर्चा होती थी । कभी धर्मशाला के आंगन में टहलते हुए तो कभी ओसरी में बैठे-बैठे । मैंने दशरथाचल के अपने अनुभव वेदबंधु को बतायें । उसे सुनकर वह अति प्रसन्न हुए । उनका स्नेह मेरे लिये कई गुना बढ़ गया ।
'मुझे भी कुछ महापुरुषों के दर्शन हुए हैं ।' उन्होंने कहा, 'जो नियमित रूप से और मन लगाकर साधना में जुडे रहतें है वे अनुभव पाते हैं । मगर अनुभवों को सबकुछ मान लेना गलत होगा ।'
'हाँ, सही बताया आपने । अनुभवों से प्रेरणा पाकर साधक को आगे बढ़ना है । उसे गंतव्य या अंतिम लक्ष्य मानकर रुक जाना गलत होगा । एसा करने पर उसका विकास नहीं होता । जब तक आत्मसाक्षात्कार या इश्वरदर्शन न हो, तब तक साधक को चलते रहना है । ध्येयप्राप्ति न होने तक कहीं पर भी रुकना ठीक नहीं है । साधक को एसे भयस्थानों से सावध रहेना हैं ।'
फिर उन्होंने अपने कुछ अनुभव बतायें: 'एक वार मुझे मोहम्मद पयगंबर साहब का दर्शन हुआ । उनके हाथ में पोपट था । उनका चहेरा तेजोमय और सुंदर था । आज भी जो श्रध्धा औऱ विश्वास से उनको चाहते हैं, वे उनका दर्शन पा सकते हैं । मुझे अन्य कई संतो के दर्शन का लाभ मिला है । श्रीमद् भागवत और पुराणों में जिसके बारे में बताया गया है वह भगवान व्यास के दर्शन का लाभ भी मुझे मिला है ।'
'व्यासजी के ?'
'हाँ' कुछ क्षण रुककर वे बोले, 'तब मैं उत्तरकाशी था । उत्तरकाशी से गंगोत्री के मार्ग पर करीब देढ़ मील की दूरी पर लक्षेश्वर महादेव का स्थान है । वहाँ गंगातटवर्ती कुटिया में मैं रहता था । साधना में लगे रहने के बावजूद मुझे शांति नहीं मिली थी इसलिये मैं बेचैन था । शांति की संप्राप्ति के मेरे सभी प्रयास विफल रहे तब मैंने व्रत करने का संकल्प किया । नवरात्रि के नौ दिन अन्न-त्याग करके प्रार्थना करने की ठान ली । नवरात्रि शुरु होते ही मैंने व्रत रक्खा । केवल गंगाजल ग्रहण करके मैं दिनरात प्रार्थना करने लगा । नौवे दिन की शाम होने आयी मगर मुझे शांति नहीं मिली । शाम के वक्त जब मैं अपनी कुटिया के बाहर बैठा था, तब एक साँप आया और मेरे पास आकर रुक गया । साँप अत्यंत तेजस्वी था । मेरे पास कुछ दूध था, वो मैंने उसे दे दिया । साथ में प्रभु का पार्षद मानकर कुछ फुल अर्पित किये । दूध पीकर वह जंगल की ओर चल पड़ा । हाँलाकि यह कोई विशेष अनुभव नहीं था ।
दसवें दिन सुबह होने पर मैं निराश हो गया । मैं सोचने लगा की इतनी महेनत और लगन से प्रार्थना करने पर भी मुझे शांति नहीं मिली । अब मैं क्या करूँ ? मेरी आँखे भर आयी । सहसा मेरी कुटिया में चारों ओर प्रकाश फैल गया । मुझे एक महापुरुष के दर्शन हुए । वो महापुरुष ओर कोई नहीं मगर महर्षि व्यास थे । उनका देह स्वर्णसदृश तेजस्वी था और आँखे अमृत से भरी-भरी । उन्होंने मुझे शुद्ध संस्कृत में अपना संदेश सुनाया । पूर्ण संदेश तो मुझे ठीक तरह से याद नहीं है मगर अंत में उन्होंने जो कहा वो मुझे बराबर याद है । उन्होंने कहा, कैवल्यं प्राप्यसि । अर्थात् तू कैवल्य की प्राप्ति करेगा ।
उन्होंने ये भी कहा, पूर्वजन्म में तू शंकराचार्य के शिष्य पद्मपादाचार्य का शिष्य था । उस जन्म में तेरे पास ज्ञान था मगर विज्ञान नहीं था, अतः तू मुक्त नहीं हो पाया । उसी जन्म में तुने अपने एक मित्र की सुवर्ण-चोरी में सहायता की थी । इसलिये तू इस जन्म में अशांति का अनुभव कर रहा है । उत्तरकाशी जाकर हवन कर और ब्राह्मणों को भोजन करवा । एसा करने पर तेरे पाप का प्रायश्चित होगा और तुझे शांति मिलेगी तथा कैवल्यनी प्राप्ति होगी ।'
'एसा कहकर भोजपत्र का कौपीन पहने हुए वह महापुरुष अदृश्य हो गये । इस अनुभव के बाद उत्तरकाशी जाकर मैंने हवन और ब्रह्मभोज करवाया । कुछ ही दिनों में मुझे निर्विकल्प समाधि का अनुभव मिला । मेरी अशांति का अंत हुआ । अब मैं शांति के अर्णव में अहर्निश डूबा रहता हूँ ।'