गंगोत्री का स्थान अत्यंत मनोहर है । जैसे जमनोत्री में जमुनाजी का मंदिर है, वैसे गंगोत्री में गंगाजी का मंदिर है । जमनोत्री की तरह यहाँ भी भारी ठण्ड पडती है और बर्फ गिरती है । यमुनोत्री तरह यहाँ गर्म पानी के कुण्ड नहीं है, फिर भी लोग श्रद्धा से गंगाजी में स्नान करते हैं । जमनोत्री की तुलना में यहाँ जनसंख्या अधिक है । गंगा के सामने किनारे पर कुछ कुटियाएँ है, जहाँ पर यात्रा के वक्त साधुसंत निवास करते है । उनके लिये अन्नक्षेत्र की सुविधा भी है ।
गंगोत्री में देवदार के पैड भारी संख्या में हैं । गंगा यहाँ पर भागीरथी के नाम से जानी जाती है । पौराणिक कथा के मुताबिक कपिल मुनि के श्राप के कारण सगर राजा के साठ हजार पुत्रों का नाश हुआ था । अपने पितृओं का उद्धार करने के लिये भगीरथ गंगा को धरातल पर अवतीर्ण करना चाहता था । भगीरथ की तपश्चर्या के कारण गंगाजी ने स्वर्गलोग से पृथ्वी पर आना स्वीकार किया । गंगा इसलिये भागीरथी के नाम से जानी जाती हैं । गंगाजी अवतरित होने से न केवल भगीरथ के पूर्वजों का उद्धार हुआ, मर्त्यलोक के कई जीवों को लाभ पहूँचा । भगीरथ इस तरह अमर हो गया ।
गंगोत्री से करीब पंद्रह मील की दूरी पर गोमुख है, जहाँ पर गंगा का उदभव होता है । गोमुख जाने का रास्ता विकट है, इसलिये बहुत कम लोग वहाँ जाते है । हमारी इच्छा गोमुख जाने की नहीं थी इसलिये गोमुख के मार्ग पर दो मील चलकर हम वापस लौटे । रास्ते में एक गुफा देखी जहाँ पर एक वयोवृद्ध महात्मा रहते थे । हमने सुना की दिनरात वे हाथ में माला लेकर 'जय जगदीश, जय जगदीश' का जाप करते रहते थे । उनकी मुखाकृति तेजस्वी थी । जो भी उनके पास जाता था वो उनका प्रसाद पाता था । शाम होने पर भोजन करने का उनका नियम था । उनके दर्शन से हमें प्रसन्नता हुई ।
उत्तरकाशी के प्रज्ञानाथ स्वामी उस वक्त गंगोत्री आये थे । उनके सत्संग के लिये बंबई से एक गुजराती भाई आये थे, जिनसे मेरा उत्तरकाशी में परिचय हुआ था । गंगोत्री में हमारी स्वामीजी तथा गुजराती भाई से फिर भेंट हुई ।
गंगोत्री के साथ स्वामी श्री कृष्णाश्रमजी का नाम जुडा हुआ है । उन्होंने यहाँ बरसो तक निवास किया था । पहले वे दंडी संन्यासी के भेष में रहे थे, बाद में उन्होंने दंड और वस्त्रों का त्याग किया था । गंगोत्री में भयानक ठंड के बावजूद वे बिल्कुल निर्वस्त्र रहते थे । चंपकभाई तथा माताजी ने कभी उनके दर्शन नहीं किये थे । हम गंगोत्री आये तो उनके दर्शन किये बिना कैसे जा सकते थे ?
जब हम उनके दर्शन के लिये गये तो वे कुटिया के बाहर पद्मासन में बैठे थे । स्वामीजी वैदिक काल के किसी महान तपस्वी जैसे लग रहे थे । उनकी सेवा में गंगोत्री के पास के किसी गाँव की स्त्री रहती थी । स्त्री परीणित थी मगर गृहक्लेश की वजह से या फिर संस्कारवश, स्वामीजी के पास आयी थी । उसने भी भगवे वस्त्र धारण किये थे । यहाँ के साधुसमाज में इस घटना से खलबली मच गई थी । यहाँ तक की कुछ साधु कृष्णाश्रम को तपभ्रष्ट मानकर उनकी निंदा करने लगे थे । एक स्त्री को साथ रखने से तथा उसकी सेवा लेने से कोई महात्मा तपभ्रष्ट कैसे होता है, यह मेरी समज में नहीं आया । हाँ एसा करने से अगर वे शरीरसुख या कामवासना में फँसे होते तो अलग बात है मगर एसा तो यहाँ नहीं था । फिर अपनी बुद्धि के बल पर तर्कवितर्क करके किसीको बदनाम करने से क्या फायदा ?
कुछ देर तक उनके दर्शन करके हम अपने स्थान लौटे । गंगोत्री में मुझे अपने पूर्वजन्म के ज्ञान का अनुभव मिला था – यह बात मैंने आगे बता दी है ।
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गंगोत्री से केदारनाथ के मार्ग में पवाली की चढाई आती है । यहाँ यात्रीओं के मनोबल की कसौटी होती है । ऊंचे-ऊंचे पर्वत, आसपास हरेभरे खेत मन-अंतर को ठंडक देते हैं तथा थकान हर लेते हैं । यहाँ से त्रियुगी नारायण होकर गौरीकुंड और वहाँ से केदारनाथ जा सकते हैं । मार्ग में बुढ्ढा केदार का भी दर्शन होता है ।
केदारनाथ समुद्रतल से करीब बारह हजार फिट की उँचाई पर है । केदारनाथ में शंकर भगवान का मंदिर है । मंदिर के आसपास बर्फ से आच्छादित पर्वतशृंखलाएँ हैं । गंगा यहाँ मंदाकिनी के नाम से जानी जाती है । मंदाकिनी के बर्फिले पानी में स्नान करना अपने आप में कसौटी है । असह्य ठंडी के कारण लोग नदीतट पर लकडी जलाकर ठंड भगाते है तथा स्नान से लौटने के बाद इसीसे अपने वस्त्र सुखाते हैं । कभीकभा अतिशय ठंड के कारण लोग स्नान के बाद बेहोश हो जाते हैं । फिर भी यहाँ स्नान करने की महिमा होने से लोग श्रद्धा से स्नान करते हैं ।
केदारनाथ मंदिर में काफि बडा शिवलिंग है । मंदिर में जाकर कोई भी व्यक्ति पूजा कर सकता है । हमने भी शिवलिंग की पूजा की । वैसे तो भगवान को सेवा-पूजा की आवश्यकता नहीं होती, यह तो हमारी शुद्धि और पवित्रता के लिये की जाती है । पूजा करने से हमारा हृदय निर्मल होता है, प्रेम से परिप्लावित होता है और ईश्वर के प्रति आकर्षित होता है । भक्तिमार्ग में इसीलिये सेवा-पूजा का स्वीकार किया गया है । सच्चे साधक को इसका आधार लेकर आगे बढ़ना है ।