केदारनाथ में एक रात्री विश्राम करने के बाद हम बदरीनाथ के लिये चल पडे । बदरीनाथ के मार्ग में गुप्तकाशी और जोशीमठ पडता है । जोशीमठ में आदि शंकराचार्य का स्थापित किया हुआ मठ है । हमने मठ के दर्शन किये । मार्ग की चारों ओर फैले नैसर्गिक सौंदर्य का पान करते हुए हम आखिरकार उत्तराखंड के सुप्रसिद्ध यात्राधाम बदरीनाथ आ पहूँचे । 'बदरीविशाल लाल की जे' और 'गंगामाई की जे' के ध्वनि चारों ओर सुनाई पडें ।
भारत के चार प्रसिद्ध यात्राधामो में बदरीनाथ की गणना होती है । बदरीनाथ गाँव तथा उसका बाजार अन्य पर्वतीय गाँवो की तुलना में बडा है । नर तथा नारायण – दो पर्वतों के बीच में बसा बदरीनाथ अत्यंत मनोहर लगता है । यहाँ अलकनंदा तथा ऋषिगंगा का संगम होता है । संगम का दृश्य देखते ही बनता है । यहाँ के बर्फिले पानी में स्नान करना अपने आप में एक साहस है, मगर कुदरत का करिश्मा देखो ! अलकनंदा के तट पर गर्म पानी के कुण्ड है । यात्री यहाँ स्नान करके अपनी थकान दूर करते हैं तथा चुस्त-फुर्तिले हो जाते हैं ।
बदरीनाथ का मंदिर इतना विशाल नहीं है । मंदिर में नारायण भगवान की मूर्ति है । सो रूपिये की भेट चढ़ाने से कोई भी व्यक्ति नजदिक जाकर पूजा कर सकता है । उसे मंदिर का विशेष प्रसाद-भोग भी दिया जाता है । भोग भी विभिन्न प्रकार के होते है । व्यक्ति को अपनी भेंट के हिसाब से भोग दिया जाता है । मंदिर के कर्मचारी इसके लिये यात्रीओं से अपील करते रहतें हैं । बदरीनाथ के धाम में व्यापारी वृत्ति का प्रदर्शन शोभास्पद नहीं है । यह तो एक प्रकार की शिष्ट भिक्षावृत्ति है । दिये गये धन के हिसाब से किसीको भोग-प्रसाद देना तथा पूजा करने का विशिष्ट अधिकार देना गलत है । केवल बदरीनाथ में ही नहीं, देश के अन्य मंदिरो में भी यह प्रथा मौजुद है । हमें एसी प्रथाओं को नेस्तनाबूद करना चाहिए । भगवान के दरबार में धन को विशेष महत्व देकर गरीब और अमीरों के बीच भेदभाव उत्त्पन्न करना कहाँ का इन्साफ है ? केवल धनी होने के कारण कोई भगवान का प्रसाद पा सके और उसकी विशेष पूजा कर सके यह गलत है । अब तो बदरीनाथ मंदिर का वहीवट सरकार हस्तक है इसलिये इस भेदभाव का तुरन्त अंत होना चाहिए । सरकारी अधिकारी जब मंदिर में आते हैं तब उनके लिये मंदिर से केसरिया भात, खीर वगैरह का प्रसाद दिया जाता है । मगर इस प्रथा को नाबूद करने के लिये कोई प्रयास नहीं करता, यह अत्यंत खेदजनक है ।
बदरीनाथ का दर्शन करके हमें अत्यंत हर्ष हुआ । नरनारायण ऋषि, महर्षि व्यास, देवर्षि नारद तथा पांडवो के महाप्रस्थान की स्मृतियाँ मानसपट पर ऊभर आयी । यात्रामें हमारे साथ अल्वर के एक वृद्ध पुरुष भी थे, जिन्होंने पिछले पंद्रह सालों से घी नहीं खाया था । किसी सामाजिक प्रसंग पर कहा-सुनी होने से उन्होंने घी का त्याग किया था । लग्न या किसी मंगल प्रसंग पर भी उनके लिये अलग-से तेल की रसोई करनी पडती थी । केदारनाथ में जब मैंने यह सुना तो उनको प्यार से समजाया । मेरी बात मानकर उन्होंने अपनी जीद छोड दी । उनकी आँख में आंसू आ गये । वे बोले, 'अब मेरी बहन बहुत प्रसन्न होगी । जब-से मैंने घी खाना छोड दिया था तब से वो बहुत दुःखी रहती थी । आपका उपकार मैं जिन्दगीभर नहीं भुलूंगा ।'
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बदरीनाथ में हम तीन दिन रहें । वहाँ हमारी भेंट महात्मा बच्चीदास से हुई । बच्चीदासजी अलकनंदा और ऋषिगंगा के संगम पर स्थित एक छोटी-सी कुटिया में रहते थे । बदरीनाथ आने से पहले वे देवप्रयाग रहते थे । देवप्रयाग में जब सिद्ध-संत बंगाली महात्मा आये थे तब बच्चीदासजी ने उनकी बहुत सेवा की थी । उनकी सेवा से प्रसन्न होकर बंगाली महात्मा ने उन्हें साधना की विधि बताई थी । विधि के अनुसार उन्हें एकाद महिना केवल चाय पीकर रहना था । उन्होंने विशेष साधना के लिये बच्चीदासजी को बदरीनाथ जाने की सुचना दी । तब से बच्चीदासजी बदरीनाथ आकर रहने लगे थे । लोगों का कहेना था की उनकी साधनात्मक अवस्था अत्यंत उच्च है । वैसे भी, बदरीनाथ में रहकर साधना करने के लिये कडे संयम और सहनशक्ति की जरूरत पडती है ।
कुछ साल पहले बदरीनाथ में सिद्धबाबा सुंदरनाथजी हो गये । वे हमेशा निर्वस्त्र रहते थे । मंदिर के सामने, अलकनंदा के तटवर्ती किसी पत्थर पर वे अर्धपद्मासन में बैठे रहते थे । एक दिन वे अचानक अदृश्य हो गये । तबसे बदरीनाथ में रहनेवाले तपस्वीओं में बच्चीदासजी गणना होती थी । इनके अलावा बदरीनाथ से उपर वसुधारा की गुफाओं में दो संन्यासी महात्मा काफि सालों से रहते थे ।
बच्चीदासजी के पास हम करीब आधा घण्टा बैठें मगर हमारे बीच शाब्दिक वार्तालाप नहीं हुआ । वे बिल्कुल शान्त थे । उनकी मुखमुद्रा पर से ये लगता था की उन्होंने उच्च साधनात्मक भूमिका हासिल की है । वैसे बिना कीसी अनुभव के, हम उनके बारे में और क्या कह सकते हैं ? किसी महापुरुष के बारे में बीना किसी अनुभव के कोई अभिप्राय देना गलत होगा ।
देवप्रयाग के एक भाई ने हमें बच्चीदासजी के जीवन की कुछ बातें सुनायी जो बडी दिलचस्प थी । उनका कहेना था की यह बच्चीदासजी ने स्वयं सुनाई थी । एक दफा बच्चीदासजी बदरीनाथ से आगे सत्यपथ की ओर चल पडे । वहाँ लक्ष्मीवन की एक गुफा में उन्होंने निवास कीया । लक्ष्मीवन में भोजपत्र का वन है । वहाँ हमेशा बर्फ होती है । वहाँ का प्राकृतिक सौंदर्य बेमिसाल है । बच्चीदासजी ने सोचा की यहाँ रहकर साधना की जाय । मगर ईश्वर की इच्छा कुछ अलग थी । रात होने पर पंखवाले और अत्यंत तेजस्वी दिखनेवाले दो-तीन आदमी उनके पास आये ।
उन्होंने बच्चीदास को पूछा, 'यहाँ क्यूँ आये हो ?'
बच्चीदासजी ने कहा, 'साधना करने के लिये ।'
'यह स्थान साधना या तप आदि के लिये नहीं है', उन्होंने कहा, 'आपकी सरहद यहीं तक है । यहीं से हमारा इलाका शुरु होता है । यह यक्ष और गंधर्वो की क्रीडाभूमि है ।'
बच्चीदासजी ने उनकी बात अनसुनी कर दी तब उन्होंने कहा, 'कल यहाँ से निकल जाना वरना हमें मजबूरन आपको यहाँ से भगाना पडेगा ।' यह कहकर वे लोग चले गये ।
दूसरे दिन रात होने पर वे फिर आये । बच्चीदासजी ने फिर उनका कहा नहीं माना तो एक व्यक्ति ने बच्चीदास को फुल की तरह उठा लिया । हवा में उडाकर कुछ ही देर में उन्होंने बच्चीदास को उनकी बदरीनाथ की कुटिया में लाकर रख दिया । यह सूचना भी दी की फिर यहाँ मत आना ।
इस घटना के बाद बच्चीदासजी ने लक्ष्मीवन जाने का खयाल अपने दिमाग से निकाल दिया ।
इस घटना से वाचकों के मन में यक्ष और गंधर्वों के अस्तित्व पर प्रश्न उठना स्वाभाविक है । हमारे पुराणों में उनके अस्तित्व का स्वीकार किया गया है इसलिये यह घटना बिल्कुल निराधार नहीं हो सकती । बच्चीदासजी का यह अनुभव हमें ये मानने पर प्रेरित करता है की सृष्टि में मानव अकेला नहीं है, मनुष्येतर योनियाँ भी मौजूद है ।