शायद ही कोई अध्यात्मप्रेमी व्यक्ति रामकृष्ण परमहंसदेव के नाम से अनभिज्ञ होगा । अब तो भारत के अतिरिक्त बहुत सारे देशों में उनका ख्याति फैल चुकी है । अपने जीवन का अधिकांश समय उन्होंने दक्षिणेश्वर में व्यतीत किया था । वहाँ उन्होंने ज्ञान और भगवद् भक्ति की गंगा बहायी थी । रामकृष्णदेव के प्रति मुझे शुरु-से लगाव था, जो वक्त के चलते हुए अभिवर्धित हुआ । रामकृष्णदेव की तपोभूमि तथा उनकी लीलाभूमि को निहारनेकी तीव्र ईच्छा मेरे मन में पैदा हुई । उन दिनों मैं किसी सर्वसमर्थ महापुरुष की तलाश में था, जो मुझे जल्दी-से मेरे साधना-लक्ष्य तक पहूँचा सके । भला रामकृष्णदेव से अधिक उपयुक्त ओर कौन हो सकता था ?
मैं रामकृष्णदेव को ईश्वरतुल्य महापुरुष मानता था । मेरा यह विश्वास था की देहत्याग के पश्चात भी उनके जैसे महापुरुष भक्तों को दर्शन दे सकते है तथा उन्हें सहायता पहूँचा सकते हैं । अवतारी पुरुषों को लिये स्थल व काल के बंधन नहीं होते । मुझे अब तक जो अनुभव मिले थे, उसके बलबूते पर मैं बडे आत्मविश्वास के साथ यह कह सकता हूँ । बडी आश लगाकर मैं रामकृष्णदेव को बिनती करने लगा । मैं चाहता था की वे मुझे दर्शन देकर मेरा मार्गदर्शन करें । एक दिन ध्यानावस्था में मुझे आज्ञा मिली, 'अगर आपको दक्षिणेश्वर जाना है तो जरुर जाईये, वहाँ आपके लिये आवश्यक प्रबंध हो जायेगा ।' यह सुनकर मुझे अत्यंत प्रसन्नता हुई ।
श्राद्ध पक्ष की शरूआत हो चुकी थी । नवरात्रि के दिन अब दूर नहीं थे । दक्षिणेश्वर जाने के लिये मैंने मन-ही-मन दिन निर्धारित किया । उसकी पूर्व-रात्रि को दो बजे के बाद मुझे तरह-तरह के विचार आने लगे । दक्षिणेश्वर का स्थान कैसा होगा ? वहाँ रहना मुझे पसंद आयेगा या नहीं ? क्या हिमालय मेरी साधना के लिये उचित स्थान है ? मनोमंथन से उभरकर दिल-से आवाज़ आयी, जिसने कहा, 'तू वहाँ ईश्वर की मरजी से, उसकी प्रेरणा से जा रहा है । वो तूझे जहाँ भी ले जायेगा, तेरे भले के लिये ही होगा । दक्षिणेश्वर कोई तीर्थस्थान से कम नहीं है । किस्मतवाला ही वहाँ जाकर रह सकता है । तेरा निवास अवश्य लाभदायी रहेगा ।'
मैं शांताश्रम की कुटिया में आसन जमाकर बैठा था । कमरे के भीतर तथा बाहर पूरी तरह से अंधेरा छाया हुआ था । मेरे पासवाली खिडकी बन्द थी तथा दरवाजा अंदर से बन्द था । दाहिनी ओर की खिडकी खुली थी जिसमें से हवा आ रही थी, आसमान में कुछ तारें भी दिख रहे थे ।
अचानक मेरी नजर खिडकी पर पडी । मेरे आश्चर्य की सीमा न रही । एक काले रंग की मानव-आकृति कमरे के अंदर ठीक खिडकी के पास खडी थी । कुटिया का द्वार बन्द था फिर वो अंदर कैसे आयी और कौन थी ? मुझे आनंद और आश्चर्य - दोनों हुए । मेरे लिये डरने की कोई वजह नहीं थी क्योंकि एसे चित्रविचित्र अनुभव मुझे पहले हो चुके थे । इसका जिक्र मैं पूर्व-प्रकरणों में कर चुका हूँ । हालाकि, मैंने अपने सभी अनुभवों के बारे में पाठकों को अवगत नहीं कराया है क्योंकि एसा करना मैं उचित नहीं समझता । मैंने जितना भी बताया है वो इसलिये ताकि साधकों को ये भरोंसा हो की एसे अनुभव आज भी होते हैं, और किसी भी साधक को प्राप्त हो सकते हैं ।
मेरे आनंदाश्चर्य से बेखबर, वह काली आकृति मेरे पास आने लगी । उसका देह काजल जैसा काला था । उसने अपनी दो भूजाओं में मुझे भर लिया और बडे प्यार से कहा, 'यहाँ आप काफि दिन रहें, अब चले जाओगे ? फिर वापिस कब लौटोगे ? हो सके तो जल्दी आना । आपके बिना मुझे यहाँ अच्छा नहीं लगेगा ।'
यह कहकर उसने मुझे अपने बाहुपाश से मुक्त किया । एक-दो मिनट के अनुभव के बाद वह आकृति कुटिया से अदृश्य हो गयी ! उसके शब्द बिल्कुल स्पष्ट और सुमधुर थे । उसे सुनकर मुझे अपूर्व शांति का अनुभव हुआ ।
मैं सोचता रहा की किसी स्वजन की भाँति मेरे प्रति स्नेह जतानेवाली यह मानव-आकृति किसकी थी ? क्या वह किसी सिद्धपुरुष की थी ? क्या वह रामकृष्णदेव की थी ? शांताश्रम के किसी स्थान या तीर्थदेवता की थी ? काफि कुछ सोचने पर भी मुझे यह प्रश्न का जवाब नहीं मिला । भला, आम किस प्रकार की है, कौन से पैड से उतारकर लायी गयी है, कितने दामों में खरीदी गयी है, यह जानकर मुझे क्या करना था ? मेरे लिये तो उसका मधुर आस्वाद तथा उसके फलस्वरूप हुई तृप्ति का अनुभव ही पर्याप्त था । वह मानव-आकृति चाहे किसी की भी हो, उसने मुझे अपने प्रेम का अनुभव करवाया, यही मेरे लिये काफि था । आज मैं यह कह सकता हूँ की वह काली मानव-आकृति मा जगदंबा की थी । उसे याद करके मैं अवनविन रोमांच का अनुभव करता हूँ । 'मा' का यह प्रेमबंधन हमेशा रहे, 'मा' की वाणी और शब्द हमेंशा सुनने को मिले, 'मा' के मधुर मुख का दर्शन हरहमेश हो, तभी जीवन का परम साफल्य होगा । साधक को एसे अनुभवों को अंतिम मानकर रुकना नहीं है मगर 'मा' का अखंड सानिध्य पाने के लिये प्रयत्नशील रहेना है, चलते रहेना है ।
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रात्रि की निरव शांति में गंगाजी की ध्वनि दूर तक सुनाई पडती थी । बारिश के कारण शांता नदी का प्रवाह भी तेज था, मानों वह हिमालय के प्राचीन और अर्वाचीन ऋषिवरों का जयगान गा रहा था । मेरी कुटिया के भीतर तथा बाहर अंधेरा था । तब मेरी नजर कमरे के कोने में पडी । मैंने देखा की वहाँ छोटा-सा दीपक जल रहा है और उसके हल्के उजाले में रमण महर्षि की मुखाकृति स्मीत कर रही है । मैंने महर्षि को फौरन पहेचान लिया । दो-चार मिनट दर्शन का अनुभव मिलता रहा । फिर दिपक और महर्षि – दोनों अंधरे में घुलमिल गये । कुटिया में फिर-से अंधेरा हो गया ।
महर्षि जैसे सिद्ध महापुरुष अपनी मरजी से, किसीको भी, कहीं पर दर्शन देने के लिये समर्थ हैं । महर्षि जैसे कई महापुरुष आज भी मौजूद है । वे अपनी अलौकिक शक्ति से साधक की सहायता कर सकते हैं । उन्हें देश या काल के बंधन नहीं होते । मगर आम आदमी सांसारिक उलझनों में एसा फँस जाता है, कामवासना, अहंकार तथा अपनी सीमित बुद्धि का दास हो जाता है, की उसे इसके अलावा कुछ सुझता ही नहीं है । अगर वह सर्वशक्तिमान परमात्मा की कृपा पाने के लिये आवश्यक यत्न करें तो उसे अवश्य पा सकता है । हाँ, ये भी सही है की हजारों या लाखों में एकाद आदमी एसा कर पाता है ।
कुछ ही देर में उजाला हुआ । स्नानादि से मुक्त होकर मैंने शांताश्रम को अलविदा कहा । शांताश्रम की पावन भूमि को प्रणाम करके, उसकी पावन रज को शिर पर चढाकर मैं बस अड्डे की ओर चल पडा । वो दिन ३० सितम्बर १९४५ और सोमवार का था ।
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