सीमला में झाकु नामक सुंदर स्थल है, जहाँ हनुमानजी का मंदिर है । एक दिन हम वहाँ गये । मंदिर काफि उँचाई पर है । वहाँ एक संन्यासी महाराज मिले । उन्होंने बताया की यहाँ प्राचीन काल में कोई सिद्ध पुरुष निवास करते थे । साधनभजन करने के लिये यह स्थान अत्यंत अनुकूल लगा ।
दोपहर को नेपालीबाबा से हमारी भेंट हुई । उन्होंने कहा : 'आज लामा गुरु आये थे । उन्होंने कहा है की वो आप दोनों को रात को दो बजे दर्शन देंगे ।'
मुझे लगा की नेपालीबाबा और उनके गुरु की सत्यासत्यता परखने का यह सुनहरी मौका है । अगर उनके कहने के मुताबिक आज रात लामा गुरु के दर्शन नहीं होते तो उनके शब्द मिथ्या होंगे । मैंने जोशीजी को कहा की आज हम जल्दी सो जातें हैं और कल देर से उठते हैं । अगर कोई हमें जगाने की कोशिश करें तो भी हमें रात को जागना नहीं है । देखते हैं, लामा गुरु हमें किस तरह से दर्शन देते हैं !
मगर सिद्ध पुरुषों की बात निराली है । मेरी शंकाशील वृति के कारण मुझे लामा गुरु के दर्शन नहीं हुए । मगर जोशीजी ने सुबह बताया की रात को बराबर दो बजे मेरी आँख खुल गई और मुझे लामा गुरु के दर्शन हुए । उन्होंने आपकी ओर अंगुलिनिर्देश करते हुए कहा की ये क्यूँ भटकता है ? उसे कहीं भटकने की आवश्यकता नहीं है । उसकी पूर्णता का वक्त समीप आ गया है । उसे कहना की देवप्रयाग जाय और वहीं रहें । फिर मेरे बारे में कहा की आपको कुछ वक्त लगेगा मगर निराश नहीं होना । कोशिश जारी रखना, साधन-भजन करते रहना ।
मैंने कहा की मुझे तो कोई दर्शन नहीं हुआ । आपको दर्शन हुआ यह मैं कैसे मान लूँ ? अगर वो मुझे कुछ बताना चाहते थे तो मुझे दर्शन देकर क्यूँ नहीं बताया ? हालांकि उस रात मुझे लामा गुरु का दर्शन नहीं हुआ था, मगर प्रकाश दिखाई दिया था, कोई आकृति थी, जिसने मेरे शरीर पर हाथ फेरा था । इतना अनुभव जरूर हुआ था ।
कुछ ही दिनों में - श्रावण सुद बारस के दिन – जब मैं मौनव्रत धारण करके बैठा था, तब मेरा देहभान चला गया और मुझे लामा गुरु के दर्शन हुए । लामा गुरु कद में उँचे और लम्बी दाढी रखते थे । उन्होंने पाँव तक पहूँचनेवाला काले रंग का कुर्ता पहना था । उनके साथ और दो-तीन महात्मा थे, जिनको मैं पहचान नहीं पाया । शायद वे लामा गुरु के शिष्य थे । उनके दर्शन से मुझे हर्ष हुआ । इस तरह मुझे लामा गुरु का परचा मिला और उनकी असामान्यता की प्रतीति हुई ।
मेरा विचार सीमला से नहान जाने का था । नहान स्टेट पंजाब में है । वहाँ होकर जमनाजी का प्रवाह निकलता है । इ.स. १९४४ में उत्तरकाशी में मुझे एक महात्मा मिले थे । उनका नहान में आश्रम था । उन्होंने मुझे नहान आने का निमंत्रण दिया था । उन्होंने ये भी कहा था की वो मुझे खेचरी मुद्रा सिखायेंगे । हालाकि मेरी खेचरी मुद्रा सिखने की ईच्छा इश्वरकृपा से उत्तरकाशी में पूर्ण हुई थी । फिर भी नहान सीमला के पास था इसलिये मैंने नेपालीबाबा से वहाँ जाने इच्छा प्रकट की ।
नेपालीबाबाने कहा : 'आपको वहाँ जाने की जरूरत नहीं है । वो साधु नहीं केवल नामधारी है, उसमें योगी या महात्मा के कोई लक्षण नहीं है । वहाँ जाने से कुछ हासिल नहीं होगा । आप देवप्रयाग के अपने स्थान ही रहो । वहाँ आपकी सब मनोकामना पूर्ण होगी । आपको किसीके पास जाने की जरूरत नहीं है । उनके जैसे कई साधु-महात्मा आपके दर्शन के लिये आयेंगे ।'
इतना ही नहीं, नेपालीबाबाने उस योगी के बारे में जो कुछ बताया, बिल्कुल सच था । मैंने मन-ही-मन तय किया की अगर आंतरप्रेरणा हुई तो नहान जाउँगा वरना नहीं । मगर एसा नहीं हुआ, इसलिये नहान जाने का विचार मुलत्वी रखा ।
मेरी आंतरप्रेरणा की बात से शायद पाठकों को आश्चर्य होगा, मगर बचपन से, और खास करके इ.स. १९४३ के बाद मुझे निरंतर एसी प्रेरणा मिलती रहती है । एक आदमी जैसे दूसरे आदमी के साथ बात करता है, उसी तरह 'मा' मुझे प्रेरणा देती है । मैं उसे मानकर चलता हूँ और आजतक उससे मेरा कल्याण हुआ है । आंतरप्रेरणाने मेरे लिये किसी गुरु या पथप्रदर्शक का काम किया है । उसके कारण मेरी श्रद्धा परिपक्व हुई है और मैं आध्यात्मिक पथ पर इतना विकास कर सका हूँ । नियमित रूप से मिलने वाली प्रेरणा से मुझे प्रतीति हुई है की 'मा' मेरा मार्गदर्शन कर रही है, मुझे सही रास्ते पर ले जा रही है । मुझे निमित्त बनाकर वो साधना करवा रही है । आंतरप्रेरणा के एसे कई अनुभव है, मगर इनके बारे में चर्चा करना मैं उचित नहीं समजता ।