द्वारकामाई के दर्शन करके हम गुरुस्थान पर आये । यहाँ नीम का पैड है, जिसकी दो शाखाएँ है । कहा जाता है की सांईबाबा के चमत्कार से इसकी एक शाखा के सभी पत्ते मीठे हुए है । पैड के नीचे छोटा-सा शिवलिंग है और उनके गुरुदेव की पदाकृति है । यहाँ धूप करने का महिमा है । सांईबाबा ने खुद अपने भक्तजनों को एसा बताया था ।
समाधिमंदिर में पूजा का समय हो गया था । पूजारी तथा उपस्थित भक्तगण समाधि के सन्मुख होकर स्तुतिपाठ करते लगे । पूजा खत्म होने के बाद भोजन का समय हुआ इसलिये हम भोजनखंड में गये । यहाँ कोई पंक्तिभेद नहीं था । भोजनखंड में कतारबंध पाट और पतराल रक्खे गये थे । करीब दोसो आदमी भोजन के लिये बैठे थे । नीचे धोती और उपर खुला बदन लेकर परोसनेवाले कतार में निकले । सब्जी, पराठें जैसी रोटी और उपमा दिया गया । शायद ये भोजन सबको रुचिकर न लगे, मगर सिर्फ आठ आने में खाने की सुविधा देना अपने आप में प्रसंशापात्र थी ।
रातभर मुसाफरी करके सुबह हम शिरडी पहूँचे थे, इसलिये खाने के बाद थोडी देर सो गये । शाम होते हम बैलगाडी में बैठकर साकोरी गये । शिरडी से साकोरी तीन मिल की दूरी पर है । साकोरी एक छोटा-सा गाँव है, जो उपासनी बाबा के कारण सुप्रसिद्ध है । यहाँ पहूँचते-पहूँचते अंधेरा हो गया इसलिये कुछ खास देख नहीं पाये । उपासनी बाबा के स्थान में सायंपूजा खत्म हुई थी । बाबा के शिष्या गोदावरी माता का प्रसाद बाँट रहे थे । मंदिर में एक ओर उपासनी बाबा की माता का मंदिर था और उसके ठीक सामने यज्ञकुण्ड था । उसके उपर सांईबाबा की तसवीर लगी थी । सांईबाबा के मार्गदर्शन और कृपा से उनको सिद्धि मिली थी इसलिये यहाँ सभी जगह पर सांईबाबा की तसवीर दिखाई दी । फिर दत्तमंदिर के दर्शन करके हम शिरडी लौटे । घना अंधेरा था इसलिये आकाश में तारें साफ दिखाई दे रहे थे । उन्हें देखकर लगता था की वे मृत्यु, शोक तथा भय की दुनिया को छोडकर प्रेम, शांति और अमृतत्व की अलौकिक दुनिया में स्थित हुए कोई योगीवर है और हम पर अमृतवर्षा कर रहे है । बैलगाडी में ‘भज गोविंद, भज गोविंद’ की धून गाते हुए हम शिरडी आ पहूँचे ।
कमरे में जहाँ मेरा बिस्तर लगा था, वहाँ से समाधि मंदिर साफ दिखाई पडता था । मंदिर में भजन-कीर्तन हो रहा है । कोई हारमोनियम के साथ भजन गा रहा है । इसे देखकर मुझे आलंदी में ज्ञानेश्वर महाराज की समाधि पर रातभर हुए संकीर्तन का स्मरण हुआ । हालाकि आलन्दी की तुलना में यहाँ के भजन इतने आकर्षक नहीं लगे । कई लोग एसा मानते है की भजन-कीर्तन उँची आवाज में तथा जोर-से ताली बजाकर करना चाहिए । उन्हें कौन बतायें की भजन आसपास इकट्ठे हुए लोगों को सुनाने के लिये नहीं है, मगर इश्वर को आवाज लगाने के लिये है । तभी तो भावभक्तिपूर्ण और धीमे स्वर से गाये गये भजन दिल को छू जाते है । अगर भजनिक ये बात ठीक तरह से समजें, तो उसका संकीर्तन अपने आप हृदयंगम हो जायेगा ।
दूसरे दिन सुबह होने पर हम फिर गोदावरी नदी में स्नान करने गये । स्नान करते वक्त विचार आया की कल शाम साकोरी गये थे मगर अंधेरे के कारण ठीक-से देख नहीं पाये थे । क्यूँ न आज फिर साकोरी हो आयें । मेरे साथ आये भाइयों ने तपास की तो किराये पर साइकिल मिलती थी । चार साईकिल पर चार भाई सवार हुए । मुझे साइकिल चलाने का अनुभव नहीं था । इसलिये पाँचवी साइकिल पर एक भाईने मुझे बिठा लिया । इस तरह हम साकोरी आये ।
साकोरी में ये पूजा-आरती का वक्त था । उपासनी महाराज के भक्त खडेखडे प्रार्थना गा रहे थे । रात के मुकाबले यहाँ का दृश्य बिल्कुल अलग तथा अधिक सुंदर लगा । प्रार्थना समाप्त होने पर हम अन्य स्थान देखने गये और भोजन का वक्त होने पर शिरडी लौट आये । कल रात हमने जो भोजन किया था, वो ज्यादातर लोगों को पसंद नहीं आया था । सबकी यहाँ भोजन करने की इच्छा नहीं थी । दोपहर की बस से हमें मनमाड जाना था । जाने से पहले आखिरी बार हम समाधि मंदिर के दर्शन करने गये । मेरे मन में आशा थी की शायद सांईबाबा मेरी साधना के बारे में कोई संकेत दे दे तो मेरा शिरडी आना सफल हो जाय । मगर मेरी मनोकामना पूर्ण नहीं हुई । जैसी प्रभु की इच्छा । वो जो भी करता है उसमें खुश रहने के अलावा मेरे पास कोई चारा नहीं था ।
सांईबाबा ने अपनी विशिष्ट शक्ति से दीनदुःखी तथा पीडित लोगों की सेवा की थी । रोगी, निर्धन, अपंग, असहाय और अनाथ लोगों की मदद की थी । कई साधकों को सहायता पहूँचाई थी । उनके जीवन के कई प्रसंग इसकी पुष्टि करते है । सांईबाबा का जीवनचरित्र पढ़कर और शिरडी की यात्रा करने के बाद मुझे लगा की सांईबाबा जैसे सिद्धपुरुष गांधीजी की तरह देशसेवा के कार्य में जुडते तो देश-दुनिया को कितना लाभ हो सकता था ? मैंने प्रभु से प्रार्थना की कि मानवजाति के हित में एसे कोई सिद्ध महापुरुष को धरातल पर कार्यान्वित करें । शिरडी की यादों को मन में संजोकर हम बंबई आने के लिये निकले ।