प्रश्न – ज्ञानी भक्ति में नहीं मानते बल्कि कभी कभी भक्ति से घृणा भी करते हैं । इस बारे में आपकी क्या राय है ॽ
उत्तर – जो निर्गुण निराकार तत्व को मानते है उन्हें भक्ति की जरूरत नहीं है । आत्मज्ञान को दृढ बनाके ध्यान द्वारा ज्ञानी ईश्वर को प्राप्त करता है । ज्ञान-मार्ग का विस्तृत वर्णन गीता के छठे अध्याय में किया गया है, परंतु इसके लिए उसमें परमात्म दर्शन के लिए छटपटाहट, परम पुरुषार्थ एवं निश्चय की आवश्यकता है । रात और दिन उसे उस विराट तत्व का चिंतन, मनन एवं निदिध्यासन करना पड़ेगा । नारदजी ने जिस तरह परमात्मा में अनंत अनुराग को भक्ति कहा है, उसी तरह शंकराचार्य ने अपने परमात्म स्वरूप के अनुसंधानको - स्मरण, मनन एवं निदिध्यासन को भक्ति कहा है । अंतर मात्र स्वरूप का है । एक साकार का भक्त है तो दूसरा निराकर का लेकिन दरअसल वे दोनों परमात्मा के उपासक हैं । इसलिए सच्चा ज्ञानी भी भक्त होता है इस बात को समझना है । फिर वह भक्ति को क्यों नहीं मानेगा ॽ
दूसरे रूप से विचार करें कि ज्ञानी किसे कहते हैं । ज्ञानी के अनेक लक्षण होते हैं । वह समदर्शी होता है । वह सर्वत्र अपनी आत्मा या परमात्मा को देखता है अतएव वह किसी का भी तिरस्कार नहीं कर सकता । वह दुष्ट या मूर्ख मनुष्य की ओर भी नफरत की निगाह से नहीं देखता वरन् रहम की नजरों से देखता है । अब आप ही सोचे कि वह भगवान-प्राप्ति के महान साधन भक्ति की ओर घृणा कैसे रख सकता है ॽ वह जानता है कि अपनी अपनी रुचि के अनुसार मनुष्य भिन्न भिन्न रीतियों से प्रभुप्राप्ति के लिए प्रयास करते हैं – सभी मार्ग ईश्वर के समीप ले जाते हैं तो फिर मुझे ऐसा दुराग्रह क्यों रखना चाहिए कि सब अपना मार्ग छोडकर मेरा मार्ग ही ग्रहण करें ॽ ऐसा दुराग्रह ज्ञान की नहीं, अज्ञान की उपज है । गीता ने उसे तामसिक ज्ञान कहा है । सच्चा ज्ञानी तो सबसे प्यार करता है । वह प्रेम-नफरत, पसंद-नापसंद आदि के बंधन से मुक्त होता है ।
ज्ञानी के विषय में कोई प्रमाणित निर्णय करना है तो हमें पुरोगामी महान ज्ञानी पुरुषों के जीवन का विचार करना पडेगा । शंकराचार्य एक महान भक्त थे और उन्होंने शंकर, शक्ति एवं कृष्ण की ज्ञानमिश्रित स्तुतियाँ लिखी हैं । ज्ञाननिष्ठ शुकदेवजी ने अपने स्वमुख से भागवत की कथा कही है और साकार भक्ति का प्रतिपादन किया है । व्यास एवं नारद को भक्ति के द्वारा ही शांति मिली है । तो फिर आजके तथाकथित ज्ञानियों का क्या हिसाब ॽ असल में बात यह है कि बिना ज्ञान के भक्ति नहीं क्योंकि संसार की असारता और ईश्वर की सत्यता के ज्ञान से ही भक्ति जगती है और भक्ति के बिना ज्ञान नहीं क्योंकि परमात्मा की निरंतर भक्ति से ही परमज्ञान प्राप्त होता है ।
प्रश्न – कुछ चिंतको का यह मानना है कि दर्शन की भाषा अत्यंत कठिन अर्थात् अर्थघन होनी चाहिए । इस बारे में आपकी क्या राय है ॽ
उत्तर – दर्शन की भाषा अर्थघन होनी चाहिए यह मान्यता गलत है । दर्शन का विषय विद्वानों की बहस का विषय नहीं है । वह साक्षरों का इजारा-मोनोपोली नहीं है । दर्शन प्रत्येक मनुष्य का जन्मसिद्ध अधिकार है । प्रत्येक मनुष्य को उसके गूढ़ रहस्य एवं सिद्धांत समझाने की जरूरत है । अतएव आप जिस भाषा के द्वारा धर्म या दर्शन समझाए वह भाषा अत्यंत सरल, स्पष्ट एवं सुमधुर होनी चाहिए । कथ्य को सरल सुबोध भाषा में अभिव्यक्त करना चाहिए । जानना कठिन है परंतु जो जानते हैं उसे समझाना या प्रकाशित करना इससे भी अधिक कठिन है । इन दोनों कलाओं में प्रवीण बनना चाहिए ।
मेरी बात में सन्देह करने का कोई कारण नहीं है । विश्व का महान धर्मग्रंथ भगवद् गीता इसका प्रमाण है । यह ग्रन्थ धर्म या दर्शन का सर्वोत्कृष्ट ग्रंथ है फिर भी उसकी भाषा सरस, सरल एवं सुबोध है । बुद्ध के उपदेश भी अत्यंत सरल भाषा में है । शिक्षित और अशिक्षित, किसान, मजदूर आदि सब आसानी से समझ सके ऐसी सरल से सरल भाषा द्वारा दर्शन को व्यंजित करना चाहिए । तत्वज्ञान कोई इन्द्रजाल नहीं कि उसके इर्दगिर्द दुरुह, बोझिल और रहस्यमय शब्दों की जाल खडी करनी पड़े । वह तो ऐसे सिद्धांतो का संकलन है जिसे मानवमन अनायास समझ सके । इतना समझने पर दर्शन को हम आसान से आसान बना सकेंगे ।
- © श्री योगेश्वर (‘ईश्वरदर्शन’)