गाडी अहमदाबाद आ पहूँची । स्वामीजी को लेने के लिए कार्यालय से आदमी आया था । हम साथ में चल पडें । रास्ते में फूटपाथ पर बैठे कई लोगों को स्वामीजी के कहने पर पैसे बाँटे गये । गरीब और बदकिस्मत लोगों को सहायता पहूँचाने के लिए स्वामीजी हमेशा तैयार रहते थे । मैंने सुना कि स्वामीजी पैसे के अलावा कई ओर चिज भी बाँटते थे । जाडे के दिनों में फुटपाथ पे सोनेवाले कई लोगों को वे कम्बल देते थे । सर्दीयों की मौसम में रात होने पर वे अपने कार्यालय के आदमीओं को कम्बल लेकर भेजते और ठिठरते हुए लोगों को औढाते । मेरे लिए ये कर्मनिष्ठ और भक्तिभाव से भरे स्वामीजी के एक अलग स्वरूप का दर्शन था । वे निष्काम सेवाव्रतधारी थे । ओर कई लोगों की तरह उनकी सेवा सम्मान और कीर्ती पाने के लिए नहीं थी, मगर जरूरतमंदो की सहायता की एकमात्र भावना से हो रही थी । सभी जीवों में बसे ईश्वर की झाँकी करके वे अपना सेवाकार्य कर रहे थे ।
चलकर हम सस्तु साहित्यवर्धक कार्यालय पर पहूँच गये । कार्यालय से अधिक, वो सरस्वती का मंदिर था, जिनके पूजारी स्वयं स्वामी अखन्डानंदजी थे । सरस्वती के प्रसाद समान मूल्यवान ग्रंथो का यहाँ सर्जन होता था । मेरा सदभाग्य था कि मैं एसे सरस्वती के मंदिर खडा था ।
कार्यालय में आने के तुरन्त पश्चात स्वामीजी कार्यरत हो गये । हम नडियाद से स्नानादि कार्य संपन्न करने के बाद निकले थे इसलिए प्रातःकर्म निपटाने की फिक्र नहीं थी ।
कुछ देर बाद स्वामीजी अपने कार्य से मुक्त हुए और वार्तालाप का प्रारंभ हुआ । कक्ष में थोडे दूर एक संन्यासी महात्मा बैठे हुए थे उनकी ओर ईशारा करते हुए उन्होंने कहा, ‘मैंने इनको कार्यालय की व्यवस्था करने के लिए नियुक्त किया है । अभी उनको कुछ दिन ही हुए है मगर मैं उनके कार्य से पूरी तरह से संतुष्ट नहीं हूँ । मेरी ईच्छा है कि आप अपना हिमालय जाने का ख्याल छोडकर यहाँ रुक जाओ । वैसे भी इस संस्था से प्रभु का कार्य ही हो रहा है । आपको यहाँ अच्छा लगेगा । पाँच-छह महिने में तो आप काम में माहिर हो जाओगे और संस्था को अपने आप सम्हाल पाओगे । मेरी तबियत अब ठीक नहीं चलती, लगता है कि मेरे जाने की घडी नजदीक है । आप यहाँ होंगे तो मुझे किसी भी बात की कोई चिन्ता नहीं रहेगी । मेरी जगह पर काम करनेवाले व्यक्ति को मैं ढूँढ रहा हूँ मगर अभी तक कोई मिल नहीं पाया है । अगर आप यहाँ रहोगे तो मुझे बहुत प्रसन्नता होगी ।’
इतना कहकर वे मेरे प्रत्युत्तर की प्रतिक्षा करने लगे । मैं सोच में पड गया । क्या ये कहने के लिए वे मुझे यहाँ लेकर आये थे ?
मैंने शांतिपूर्वक उत्तर दिया, ‘फिलहाल तो मेरी ईच्छा केवल हिमालय जाकर साधना करने की है । इसके अलावा ओर कोई बात में मेरा मन नहीं लगता । मुझे जल्द-से-जल्द परमात्मा का साक्षात्कार करना है । जब तक मैं उसमें कामयाब न हो जाउँ तब तक मुझे चैन और आराम नहीं मिलेगा । किसी ओर काम में मेरा मन नहीं लगेगा ।’
‘तो फिर एसा करो’, उन्होंने मुझे कहा, ‘मेरा विचार हिन्दुस्तान की यात्रा करने का है । मेरी नाजुक तबियत को देखते हुए अकेले यात्रा कर पाना कठिन है । अगर तुम मेरे साथ रहोगे तो मैं यात्रा कर पाउँगा । देश के सारे तीर्थस्थानों में जाने का तुमका मौका मिलेगा, सत्संग और संतसमागम होगा । हम ऋषिकेश भी जायेगें । फिर वहाँ रूकने की तुमहारी मरजी हो तो तुम रूक जाना ।’
मेरे जैसे अपरिचित व्यक्ति पर उनके प्रेम, विश्वास और ममत्व को देखकर मेरा हृदय भर आया, मेरी आँख भर आई । मगर मैंने उनके प्रस्ताव का स्वीकार नहीं किया । मेरी मनोदशा अलग थी । मैंने कहा, ‘आपके साथ यात्रा करना मुझे अवश्य पसंद है, मगर अभी ये नहीं हो पायेगा । जैसे कि मैंने बताया, ईश्वरदर्शन के अलावा किसी बात में मेरा मन नहीं लगता । जीवन अति मूल्यवान है । उसका कोई भरोसा नहीं । इसलिए जीतनी भी जल्दी हो सके, मुझे ईश्वर का साक्षात्कार करना है, परमशांति को प्राप्त करना है और मेरा संकल्प दृढ है । यात्रा तो जीवन में फिर कभी भी हो सकेगी ।’
मेरे शब्द सुनकर वे भावुक हो गये । उनकी आँखे भर आई । कुछ देर के बाद वे बोले, ‘इतनी कम उम्र में आपका वैराग्य देखकर मुझे बडी प्रसन्नता होती है । तुम्हारे खयाल बडे नेक है, और तुम्हारा ध्येय उच्च है । आपकी जगह ओर कोई होता तो मैं उसे हिमालय जाने के लिए मना करता मगर आप जरूर जाईये । आपको अवश्य शांति मिलेगी । वक्त बुरा चल रहा है इसलिए सम्हालकर रहेना । और मेरी एक शर्त है, मुझे वचन दो की आप इनका पालन करोगे । हिमालय जाकर और वहाँ से वापस लौटने पर मुझे खत लिखोगे और वापस आने पर मुझे मिलने अवश्य आओगे ।’
मैंने उनकी शर्त कबूल की । वे अति प्रसन्न होकर कहने लगे, ‘वैसे तो यह संस्था सार्वजनिक है । मैं इसमें से किसीको व्यक्तिगत सहायता नहीं करता मगर आपको अपवाद समझकर, नियमो का भंग करके, सहाय कर रहा हूँ ।’
उन्होंने अपने कर्मचारी को मुझे, टिकट और अन्य खर्च को मिलाकर, एकसो बीस रूपये देने का आदेश दिया और ये भी बताया कि हिसाब की किताब में किस तरह से उसकी नोंध की जाय ।
स्वामीजी की आकस्मिक सहाय से मुझे बेहद खुशी हुई । मानो भगवान कृष्ण की कृपा से सुदामा का भाग्योदय हुआ । स्वामीजी की सहायता-राशि पर मेरे भावि जीवन का आधार था । मुझे लगा कि अब मेरे भावि जीवन का मार्ग साफ हो गया । मेरे हिमालय के मार्ग पर अब कोई बाधा नहीं आयेगी । स्वामीजी की सहायता के पीछे इश्वर की कृपा कारणभूत थी । वरना ना मैं स्वामीजी को खत लिखता और न स्वामीजी से मिलाप होता । ना वो मुझसे मिलते, ना उनके दिल में मेरे प्रति प्यार उमडता और ना ही वे मुझे सहायता करने के लिए राजी होतें । मगर ईश्वर की कृपा से क्या संभव नहीं होता ? उसकी करुणा से मेरा मार्ग साफ हुआ ।
भोजन का वक्त हो चुका था । स्वामीजी ने अपने आदमी को मेरे भोजन का प्रबंध करने की आज्ञा दी । भोजनालय पास में ही था । स्वामीजी मेरे साथ नहीं आये । मुझे बताया गया कि कई दफा स्वामीजी केवल चने खाकर अपनी क्षुधा तृप्त करते है । भोजन के पश्चात मैं स्वामीजी को मिला । उन्होंने मुझे पंद्रह किताबे और रामकृष्ण परमहंसदेव तथा स्वामी विवेकानंद की तस्वीर भेंट दी । उनकी दी हुई किताबें आज भी मेरे पास मौजूद है ।
अहमदाबाद से शाम की बस में मैं सरोडा जाना चाहता था क्यूँकि माताजी उस वक्त सरोडा में थी । हिमालय जाने से पूर्व उनको मिलना जरूरी था । बस चार बजे छूटती थी इसलिए मैं स्वामीजी से आखिरी बार मिलने गया । मेरा ये फर्ज बनता था कि जो महापुरुष ने मेरी जरूरत के वक्त पर सहायता कि, उनका मैं ऋण-स्वीकार करूँ । स्वामीजी कार्यालय में बैठकर अपना कार्य कर रहे थे । मैं उनके पास गया । एक सच्चे कर्मयोगी की तरह वे अपने कार्य में जुटे थे । विश्राम लेने की उन्हें आवश्यकता ही कहाँ थी ? निरंतर कार्यरत रहना स्वामीजी की सफलता का मंत्र था । इसके बलबूते पर उन्होंने सस्तु साहित्यवर्धक संस्था का निर्माण किया था, गुजरात के कोने-कोने में प्रेरणाशील धार्मिक साहित्य को पहूँचाया था । अच्छी-खासी उम्र होने पर भी उनका पुरुषार्थ बरकरार था, उनकी रफतार तेज थी और फूर्ति बनी हुई थी । उस उम्र में शायद ही कोई आदमी उनसे आधा काम भी कर पाता । उनके दर्शन से मुझे आनन्द हुआ । वो साधारण-सी कुर्सी पर बैठे थे, बदन पर सिर्फ आवश्यक वस्त्र थे । उन्होंने मेरी ओर देखा । मैंने उनको नमस्कार किया और उनसे बिदा होने की अनुमति माँगी । साथ में उनकी सहायता के लिए उनका आभारदर्शन किया ।
मैंने कहा, ‘आपने जो मेरी सहायता की है, वो मै सदैव याद रखूँगा ....’
मेरा वाक्य खत्म होने के पूर्व वे कुर्सी से खडे हो गये । उनकी मुखमुद्रा पूरी तरह बदल गई । उनके हाथ काँपने लगे । बडे उग्र और क्रोधित होकर वे बोले, ‘कैसी सहायता ? किसने सहायता की ? किसको ?’
उनके रौद्र रूप का दर्शन मेरे लिए नवीन था । लेकिन इससे मेरे उनके प्रति सम्मान में कोई कमी नहीं आई । मैंने बडे प्यार से उनको नमस्कार किया और कार्यालय के बाहर चल पडा । आज ज्यादातर लोग यश और कीर्ती की अपेक्षा से दान करते है । जब लोगों की भीड लगी होती है तब सहायता की राशि देकर सम्मान पाना चाहते है । वे चाहते है कि लोग उनकी स्तुति करे, उनके गले में माला पहनाये, उनको दानेश्वरी कहकर पुकारे, उनकी गिनती कर्ण, राजा भोज या रंतिदेव से करे, उनकी तस्वीर खींचे । एसे लोग शायद ही स्वामीजी के शब्दों को समझ पायेंगे और सहानुभूति से उन्हें देख पायेंगे । ज्यादातर लोग भले ही स्वामीजी को न समझ पायें मगर उससे क्या फर्क पडता है ? कुछ लोग तो उन्हें ठीक तरह से समझ पायेगें ।
स्वामीजी निष्काम कर्मयोगी थे, प्रशस्ति पाने के लिए वे कोई कार्य नहीं करते थे । ओरौं की सहायता अपना फर्ज समझकर करते थे । वे गुप्तदान में विश्वास रखते थे और किसी भी प्रकार की प्रसिद्धि से दूर भागते थे । सबको अपने प्रारब्ध के हिसाब से मिलता है, देनेवाली व्यक्ति सिर्फ निमित्त होती है । इसलिए सहायता उपलब्ध करानेवाले सभी लोगों को चाहिए की वे अहंकार से बचे रहें । ईश्वर की योजना में वे अपनी ओर से योगदान देंते है और जो सहायता पाता है वो अपनी ओर से । स्वामीजी इस बात में विश्वास रखते थे इसलिए प्रशंसा और अहंकार से दूर भागते थे । इतनी बडी संस्था का काबिल-ए-तारिफ संचालन करने के बावजूद जब कोई उनकी प्रशंसा करता तो उन्हें अच्छा नहीं लगता था । वे केवल साधारण कर्मठ पुरुष नहीं थे बल्कि सच्चे कर्मयोगी थे । उनके शब्दों से यह बात की प्रतिती होती है । उनके साधारण शब्दों में समझदार आदमी के लिए प्रेरणा के स्त्रोत छीपे हुए है । मेरे आभारदर्शन से वे क्रोधित हुए । वाचको को शायद उनका क्रोधित होना जायज न लगें मगर उनके पीछे जो वजह थी उन्हें याद रखने की जरूरत है । तभी हम उनके व्यक्तित्व को सही सम्मान दे पायेंगे । स्वामीजी के व्यक्तित्व का अनोखा पहलू मेरी नजर में आया । उनके लिए मेरे दिल में पूज्यभाव प्रकट हुआ ।
हिमालय से लौटने पर मैंने स्वामीजी को खत लिखा । उनको मिलने की सोच रहा था की ज्ञात हुआ की उनका शरीर शांत हुआ । मेरे हिमालय-गमन के बाद कुछ ही वक्त में वे चल बसे । उनके पुनःदर्शन की मेरी कामना अधूरी रह गई । उनके चले जाने की खबर सुनकर दिल को धक्का लगा मगर ईश्वरीय संकेत समझकर मैंने इसका स्वीकार किया । उनके साथ बिते हुए लम्हें मेरी स्मृति को झंझोलने लगे । गुजरात की पुण्यभूमि में पैदा होकर पूरे भारतवर्ष में अपना नाम रोशन करनेवाले महापुरुषो में उनका नाम जुड गया । पीछले कुछ सालों में प्रकट हुए स्वामी दयानंद सरस्वती, श्रीमान नथुराम शर्मा और महात्मा गांधीजी जैसे महापुरुषों की तरह भिक्षु अखंडानंदजी भी एक कर्मठ महापुरुष थे । गुजराती लोग परप्रांत के महापुरुषों को पहचानते है, उनका सम्मान करते है, मगर अपने भूमि में प्रकट महापुरुषों को नहीं पहचान पाते । गुजरात और गुजराती लोगों पर स्वामीजी के बडे उपकार है । उनका नाम और काम हमेशा के लिए अमर रहेगा यह निःशंक है ।