भिक्षु अखंडानंद की दी हुई सारी धनराशि मैंने सरोडा जाकर माताजी के हाथ में रख दी । उन्हें बडा आश्चर्य हुआ । उनकी समझ में ये नहीं आया कि एक अनजान आदमी इतनी भारी रकम, सहायता के तौर पर, किसीको क्यूँ दे दें । मैंने स्वामी अखंडानंद से मेरी मुलाकात की बात उन्हें सविस्तार सुनाई । उन्हें मेरी बात पर भरोसा हुआ । मैने कहा कि अगर ईश्वर की ईच्छा न होती तो मुझे एसी सहायता न मिलती मगर अब लगता है कि हिमालय ले जाने की उसकी पक्की ईच्छा है ।
माताजी कुछ बोल न पायी । मैं समझ सकता था कि मेरे हिमालय-गमन की बात उनके लिए दुःखदायी होगी । अब तक कडी महेनत करके उन्होंने अपना जीवन व्यतीत किया था । उन्हें इंतजार था की कब मैं पढाई खत्म करूँ और मुझे अच्छी सी नौकरी मिल जाय । मैंने हिमालय जाने का निर्णय लिया इससे उनकी सारी आशाओं पर पानी फिर गया, फिर भी उन्होंने मेरे निर्णय का विरोध नहीं किया । माताजी की आध्यात्मिक भूमिका और संस्कार उच्च थे इसलिए वो मेरी बात को समझ पायी । उनकी संमति मिलने में ज्यादा देर नहीं लगी ।
कुछे देर सरोडा रुकने पर मैं बडौदा आया । सरोडा में मेरे हिमालय जाने की बात आग की तरह फैल गई । गाँव के लोग दंग रह गये । व्यापार या नौकरी के लिए कोई गाँव छोडकर शहर चला जाय यह उनकी समझ में आता था । किसी के लंदन, अफ्रिका या अमरिका जाने पर उन्हें कोई आपत्ति नहीं थी, उनकी सभी जगह प्रशंसा होती और लोग बडी धामधूम से उन्हें बिदा करते । मगर आत्मोन्नति की साधना के लिए या ईश्वर-प्राप्ति के लिए कोई हिमालय या किसी एकांत जगह पर चला जाय ये हजम करना उनके लिए मुश्किल था । वे मानते थे कि ईश्वर की प्राप्ति, साधना, धर्म और आध्यात्मिक दिशा में जाना केवल हताश, निराश और सांसारिक समस्या से त्राहित व्यक्तिओं के लिए है, और जो लोग साधु, फकीर या कम अक्ल के होते है वही इस पथ पर चल पडते है । उनका मानना था की जीवन में आध्यात्मिकता की कोई आवश्यकता नहीं है । ईश्वर-प्राप्ति के लिए जीवन गवाँने में समझदारी नहीं है । ईश्वर का भजन तो बुढापे में करना चाहिए । भरी जवानी में आत्मोन्नति के लिए घर छोडकर हिमालय में निकल पडना केवल मूर्खता है, पागलपन है । मगर एसी सोच के लिए मैं उन्हें दोषी नहीं मानता । जो लोग आत्मिक विकास की साधना से अनभिज्ञ है, उन्हें यह कैसे पता होगा कि जीवन में करने जैसा काम यही है । गाँव की बात छोडो, शहर के पढ-लिखे लोगों को यह बात नहीं गले पडती, तो फिर सरोडा जैसे छोटे गाँव के अनपढ लोगों का क्या कहेना ? भरी जवानी में शादी-ब्याह से इन्कार करके हिमालय जाने का मेरा निर्णय सबको विचित्र लगा । लोग तरह-तरह की बातें करने लगे । उनके लिए मेरी बात अलाउद्दीन के जादुई चराग कि कहानी से कुछ कम रोचक नहीं थी । जिसे जो समझ में आया, उसने वो बकना शुरु किया । लंबे अरसे से चली आई मेरी आध्यात्मिक जागृति के फलस्वरूप मैंने हिमालय जाने का निर्णय लिया है यह बात किसी के दिमाग में नहीं बैठी ।
मगर लोगों के स्वीकार करने या न करने से मुझे क्या फर्क पडता था ? मुझे उनकी स्वीकृति की कोई परवाह नहीं थी । मैं अपने निर्णय में दृढ था । मैं जानता था कि मेरा रास्ता सही है और ईश्वर मेरे साथ है, फिर मुझे कैसी चिन्ता ! कोई उसे पसंद करे या न करें, मुझे तो अपने पथ पर चलते रहेना था । मैंने गाँव के लोगों की बातें सुनी अनसुनी कर दी । लोगों की बात सुनने से कुछ होनेवाला नहीं था । ज्यादातर ये देखने में आता है कि जब कोई अच्छे काम की शुरूआत करता है, या साहस करने के इरादे से निकल पडता है तो लोग उसकी टीका करते है । मगर जिसके ईरादे पक्के और हौसले बुलंद होते है वे किसीसे नहीं डरते, किसी भी बात से पीछे नहीं हटते । आत्मोन्नति की ईच्छा रखनेवाले सभी साधको को एसे दृढ मनोबल की आवश्यकता है । उन्हें किसी भी व्यक्ति की फालतू बातें सुनने के बजाय अपने पथ पर दटें रहना चाहिए । जो साधक लोगों की बातों को महत्व देता है, उससे प्रभावित हो जाता है, वो अपने मार्ग से च्युत हो जाता है । जो साधक लोगों की ईच्छा के मुताबिक अपना रास्ता मोड लेता है वो साधना-पथ पर आगे नहीं बढ पाता, ध्येय-प्राप्ति तक नहीं पहूँच पाता । स्तुति और निंदा का क्रम संसार में परापूर्व से चलता आया है और चलता ही रहेगा । साधक को चाहिए की वो सभी अवस्था में शंकर भगवान की तरह अपनी समता को बनाये रखें, निंदा और स्तुति को हजम करके उससे अलिप्त रहने की कला सिख लें ।
बडौदा आकर मैंने हिमालय प्रस्थान के लिए आवश्यक तैयारी कर ली । एक छोटी-सी थैली में जरूरत का सामान लेकर एक सुबह मैंने ऋषिकेश के लिए प्रस्थान किया । उस वक्त सन 1941 का जनवरी मास चल रहा था । हिमालय में कडाके की ठंड चल रही थी मगर सर्दी का खयाल मेरे प्रस्थान में बाधा नहीं डाल सका ।