आप शायद सोच रहे होंगे की उन दिनों मैं कैसे दिखता था ? तो आप किसी पच्चीस साल के महत्वकांक्षी, उत्साही, हिंमतवान नवयुवक की कल्पना कर लो । कंधे पर खादी का थैला और हाथ में पितल का एक डिब्बा लेकर मैं माता आनन्दमयी के निवासस्थान पर गया था ।
दूर-दूर तक हरेभरे पर्वत दिखाई देते थे । प्राकृतिक सौन्दर्य के कारण उस स्थान की शोभा देखते ही बनती थी । सुबह का वक्त था इसलिये माताजी ध्यान में बैठे थे । मैं निवासस्थान के बाहर द्वार खुलने की प्रतीक्षा में था ।
कुछ ही देर में वहाँ एक आधेड वय के सदगृहस्थ आये । वे कोलकता से माताजी के सानिध्य और सत्संग हेतु आये थे । कुछ देर तक वो मेरा निरीक्षण करते रहे ।
मैंने पूछा, 'आप यहाँ सत्संग करने हेतु आये हो ?'
'नहीं, लड्डु खाने आया हूँ ।'
'लड्डु खाने ?'
'हाँ, लड्डू खाने ।'
उनको लगा की मेरे जैसे नवयुवक शायद यहाँ खा-पीकर मस्ती करने आते होंगे । फिर वे मेरे साथ अंग्रेजी में बातचीत करने लगे । मैं उनके साथ हिन्दी में पेश आ रहा था ।
वे बोलें : 'आप अंग्रेजी में बात क्यूँ नहीं करते, अंग्रेजी बहुत अच्छी भाषा है ।'
मैंने कहा : 'मुझे हिन्दी में बोलना ठीक लगता है । वैसे भी मेरा अंग्रेजी का ज्ञान सीमित है । जो कुछ पढा, उनमें-से बहुत कुछ भूल चूका हूँ ।'
यह सुनकर उनके चहेरे का रंग बदल गया । वे बोल पडे, 'अरे, आप भूल गये ? एसा कैसे चलेगा ? एसे तो आप सबकुछ भूल जायेंगे ।'
मैंने कहा, 'जो भूलने लायक है, उसे भूलने में कोई दिक्कत नहीं है । याद रखने जैसी चिज तो ईश्वर की प्राप्ति है । अगर वो ठीक तरह से याद रहें तो बाकी सब छूट जाने पर कुछ फर्क नहीं पडेगा । ईश्वर-प्राप्ति के लिये भाषा या ज्ञान के भंडार की आवश्यकता नहीं है । जरूरत है तो केवल निर्मल हृदय की, प्रेमभक्ति की, सदगुणों की । रामकृष्ण परमहंसदेव का नाम तो आपने सुना होगा । वे कहाँ अंग्रेजी पढे-लिखे थे ? क्या परमहंस होने के लिये अंग्रेजी का ज्ञान आवश्यक है ?'
अब वे थोडे गुस्से में आकर बोले: 'सभी व्यक्ति परमहंस थोडे हो सकते हैं ? वे तो करोडों में एक थे ।'
'मगर ईश्वर की कृपा हो तो कोई भी व्यक्ति परमहंस बन सकता है ।'
वे चूप रहें मगर उनको मेरी बात पसंद नहीं आयी ।
कुछ देर के बाद वे बोले: 'आपको यहाँ रहना गँवारा नहीं होगा । यहाँ तो बडे घर की बी.ए. और एम. ए. पढी लडकियाँ है ।'
मैंने कहा : 'मुझे लडकियों से नहीं, माताजी से काम है ।'
नौ बजे और माताजी के कक्ष का द्वार खुला । संयोग तो देखो की माताजी ने उसी भाई को मेरी व्यवस्था की जिम्मेवारी दी । माताजी का मेरे प्रति स्नेह देखकर उन्हें बडा आश्चर्य हुआ । सत्संग की समाप्ति पर मैं उनके साथ हमारे निवास पर गया । मैं सोचता रहा की माताजी का सत्संग करने पर भी वे अपने आपको बदल नहीं पायें । दूसरों के साथ किस तरह पेश आना, कैसी विनम्रता से बर्ताव करना चाहिये, ये उन्होंने नहीं सिखा ।
मगर बात यहाँ खतम नहीं हुई । भोजन के समय वह अन्य भाईयों के साथ परोसने निकले । जब वो मेरे पास आये तो मैंने प्रसाद का बडी विनम्रता से अस्वीकार किया । यह बात उनसे हजम नहीं हुई । वे बोलें, 'सभी लोग प्रसाद ले रहे हैं, आप क्यूँ नहीं लेते ? ये तो माताजी का प्रसाद है । इससे आपके सारे पाप धुल जायेंगे । यह अमूल्य है ।'
मैंने कहा: 'आपकी बात सच है, मगर प्रसाद के लिये किसीको जबरदस्ती करना ठीक बात नहीं ।'
मेरे प्रसाद न लेने पर उनका दिमाग घुम गया ।
मैंने उनको शान्त करते हुए कहा: 'माताजी के लिये मुझे भी प्रेम और आदरभाव है, मगर प्रसाद लेने की यह पद्धति मुझे ठीक नहीं लगती, इसलिये मैंने प्रसाद नहीं लिया । कृपया बुरा मत मानिये ।'
सब मेरी ओर देखते रहें । उस भाई को मेरे लिये पूर्वग्रह हो गया ।
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हररोज सुबह नौ से बारह बजे तक माताजी का सत्संग चलता था, इसका जीक्र मैं पूर्व प्रकरणों में कर चुका हूँ । सत्संग में हरिबाबा माताजी के बंगाली जीवनचरित्र का पठन करते थे और हिन्दी में उसे सबको समजाते थे । माताजी भी अपनी स्मरणशक्ति के अनुसार बीच-बीच में बात कहते थे ।
शुरु में मुझे लगा की यह सत्संग केवल अंतरग भक्तों के लिये है । मेरा स्वभाव संकोचशील था इसलिये किसीको पूछा नहीं और इस धारणा को लेकर मैं सत्संग-कक्ष के बाहर बैठकर ध्यान करता रहा । फिर एक दिन हिम्मत जुटाकर मैंने माताजी को पूछा : 'सुबह जो सत्संग होता है, क्या मैं उनमें शामिल हो सकता हूँ ?'
माताजी सोच में पड गये । फिर बोले : 'आप हरिबाबा को पूछ लो । अगर वो मना न करें तो आ जाना ।'
मुझे आश्चर्य हुआ । सत्संग तो माताजी का चल रहा था, फिर हरिबाबा को पूछना क्यूँ जरूरी होगा ? जो भी हो, मैंने हरिबाबा से भेंट की । शुरु में उन्होंने मेरे साथ ठीक तरह से बात नहीं की मगर फिर सत्संग में शामिल होने की अनुमति दी । बाद में मुझे पता चला की कई लोग ऐसे ही सत्संग में चले आते थे । सिर्फ मेरे लिये माताजी और हरिबाबा ने एसा क्यूँ किया, यह मेरी समज में नहीं आया । हाँलाकि कुछ दिनों बाद, माताजी का मेरे लिये विशेष स्नेह देखकर हरिबाबा मुझे प्यार से बुलाने लगे । वह बंगाली सदगृहस्थ भी मुझे आदर से देखने लगे । यह प्रसंग साधारण है मगर मेरे मन में उसकी छाप छोड गया ।
उन दिनों मेरा परिचय सुप्रसिद्ध स्वामी श्री शरणानंदजी से हुआ । वे प्रज्ञाचक्षु थे । उनकी वाक्छटा और विद्वता सराहनीय थी । वे माताजी के पास हररोज आते थे । सत्संग के बाद हम साथ-साथ पहाडीयों में घुमने जाते थे । उनका नम्र और सरल स्वभाव मुझे आज भी याद आता है ।
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देवप्रयाग में अलौकिक दीक्षा मिलने के पश्चात तुरन्त कोई विशेष प्रगति या परिणाम नहीं दिखाई पडा । ध्येयप्राप्ति की तमन्ना और दिल में बैचेनी लिये मैं दिन काटने लगा । आज उन दिनों की याद आती है तो एक अजीब आत्मसंतोष का अनुभव होता है । क्योंकि जीवन के हर क्षण को मैंने अपने तरीके से, उस वक्त मेरी जो समज थी, उसके मुताबिक खर्च करने की कोशिश की थी । मेरे भीतर के आवाज को सुनकर मैंने अपने जीवन का राह चुना था । हिमालय की पुण्यभूमि में बैठकर आज उन दिनों के बारे में लिखते हुए मैं अपने आप को गौरवान्वीत महसूस कर रहा हूँ ।