हिमालय के सीमला हील्स में स्थित चेल पतियाला स्टेट का ग्रीष्मकालीन निवासस्थान था । चेल से कुछ चार मील की दूरी पर एक गाँव था, जहाँ एक महात्मा पुरुष रहते थे । लोग उन्हें 'भगतजी' कहकर बुलाते थे । वे गृहस्थ संत थे । उनकी दो स्त्रियाँ थी । माता आनन्दमयी के दर्शन-सत्संग बाद हमने भगतजी के दर्शन की योजना बनाई । वजह क्षयरोग से पिडीत सिन्धी शेठ का आग्रह था । शेठ का रसोईया इस इलाके से भलीभाँति परिचित था, इसलिये मैंने उसे साथ ले लिया ।
धरमपुर स्टेशन छोटा-सा है । जब हम स्टेशन पहूँचे तो कोई खास भीड नहीं थी । ट्रेन के इन्तजार में लोग छुटमुट खडे थे । प्लेटफोर्म के दूसरे छोर पर एक भगवा वस्त्रधारी साधुपुरुष इधरउधर घुम रहे थे । उनकी हरकतें देखकर लगता था की वे या तो अति चंचल है या पागल है । जब मैंने इसका जीक्र रसोईये से किया तो वो बोला: 'ये साधु नहीं मगर खुफिया पुलिस का आदमी लगता है । आजकल एसे बहुत लोग है, जो खुफिया खबर लाकर पुलिस और सरकार की सहायता करते हैं ।'
कुछ ही देर में गाडी स्टेशन पर आ पहूँची । सुबह के सात बजे थे । गाडी में भीड थी । अंदर घुसने का काम आसान नहीं था मगर रसोईये ने अंदर धुसकर हमारे लिये जगह बना ली । जैसे ही हम बैठें, वह पागल-सा साधु मेरी खिडकी पर आया । उसके हाथ में सिगरेट थी । उसे फेंककर वो मेरी ओर सस्मित देखने लगा, मानो मुझे कई सालों से पहचानता हो ।
उसने मेरी ओर देख के पूछा: 'आप कहाँ जा रहे हो ?'
मेरे जैसे अनजान व्यक्ति को प्रश्न पूछने की उसकी हिम्मत देखकर मुझे थोडा आश्चर्य जरूर हुआ । रसोईये को भी इसकी कल्पना नहीं थी । वो कूतुहल से देखता रहा ।
मैंने साधु के प्रश्न के उत्तर में सिर्फ स्मित किया ।
मगर उसे मेरा उत्तर कहाँ सुनना था ।
'चेल के महात्मा के पास जा रहे हो ? मुझे सब पता है । मगर वहाँ कुछ नहीं रक्खा । बाबा ! आप अपने आप पर भरोंसा करो, बाहर मत देखो । आपको जो भी चाहिये – शांति, सिद्धि, जो भी, सब आपके भीतर मिलेगा । आप अपने हिमालय के स्थान की ओर प्रस्थान करो ।'
मैंने कहा : 'हाँ, आपकी बात सही है । मगर मैं सिर्फ देखने जा रहा हूँ की वो (भगतजी) कैसे (व्यक्ति) हैं और क्या करते हैं ।'
अब गाडी चलने लगी । उन्होंने स्मित देकर मुझे अलविदा कहा ।
जाते-जाते कहने लगे : 'अपने आप पे भरोंसा रखो, महात्माजी, आपको सबकुछ मिल जायेगा ।'
साधुपुरुष की यह बात ने मुझे झिंझोडकर रख दिया ।
*
आसपास के गाँवो में चेल के महात्मा यानी भगतजी प्रसिद्ध थे । इसलिये ट्रेन में सवार बहुत सारे लोग वहाँ जा रहे हैं एसा अनुमान लगाना गलत नहीं था । चेल के महात्मा ने कई लोगों का रोग भगाया था तथा निःसंतान लोगों को संतान होने का आशीर्वाद दिया था । उनके बारे में तरह-तरह के किस्से सुनने में आये । एसे माहौल में स्टेशन पर मिले साधुपुरुष ने जो कहा वो दिल को छू गया । मुझे लगा की चेल के महात्मा जैसे भी हो, मगर स्टेशन पर मिले साधुपुरुष भी कुछ कम नहीं थे । शायद वो कोई अनुभवसिद्ध महापुरुष थे । वरना एसी गहन बात ये मुझे आकर क्यूँ बताते ?
साधना-पथ पर जिन्हें कुछ हासिल करना है, उन्हें अच्छी तरह से समज लेना चाहिये की प्रारंभीक अवस्था में परावलंबन ठीक है । मगर आगे बढना है तो अपने दम पर, अपने बलबूते पर, अपने पुरुषार्थ और आत्मबल के आधार पर बढना होगा । परावलंबन साधक के लिये शोभा नहीं मगर एब है; भूषण नहीं, दूषण है और सदगुण नहीं, दुर्गुण है । हाँ, शुरु में एसा करना मुश्किल है मगर कोशिश करनी चाहिए । चलते-चलते, जरूरत पडने पर किसीकी सलाह लेने में कोई बुराई नहीं है, मगर हमेशा किसीके नक्शेकदम पर चलना उसके विकास के लिये आत्मघाती सिद्ध हो सकता है ।
आज सोचता हूँ तो लगता है की अगर एक-दो घण्टे उस साधुपुरुष के साथ बीताने का मौका मिलता तो कितना अच्छा होता । उन्हें मिलने से एक जीवनमुक्त महापुरुष के बारे में मेरे खयाल पुख्ता होते । मेरे जीवन में एसे तीन-चार त्रिकालज्ञ महापुरुषों से मेरी भेंट हुई है । जब भी उनकी याद आती है तो मन का मयूर नाच उठता है । यह सोचकर की अब भी भारत में महापुरुषों की कमी नहीं है । आज भी देश में त्यागी, विचारक, साधक, तथा स्वानुभवी सिद्ध महापुरुष मौजूद है ! माँ भारती के चरणों में मेरा मस्तक झुक जाता है । और मैं चाहता हूँ की उन सबका भी झुके, जो भारत की आध्यात्मिक धरोंहर के बारे में श्रद्धा खो चुके है, भारतीय संस्कृति एवं साधना में विश्वास खो चुके हैं, निराश एवं हताश हो चुके हैं, वे जो स्वयं अनुभवरहित है, अनधिकारी है, और उसे कहीं बाहर खोज रहे हैं ।
*
ट्रेन चलती रही । मार्ग में कंडाघाट स्टेशन आया । यहाँ से सीमला नजदीक पडता है । कंडाघाट से चेल के लिये बस चलती है मगर जब हम पहूँचे तो बस छुट चुकी थी इसलिये हमें पैदल जाना पडा । चढाई आसान नहीं थी मगर संतपुरुष के दर्शन के उत्साह में हमने तकरीबन पचीस मील का रास्ता तय किया और भगतजी के पास आ पहूँचे । संतपुरुषों के दर्शन के लिये मन में उत्साह का होना अत्यंत आवश्यक है वरना मार्ग की कठिनाईयों से निराश और हताश होकर हम उनके दर्शन-सत्संग से वंचित रह जाते है ।