मैं किसीको व्रत या उपवास करने की सलाह नहीं दूँगा क्योंकि यह नकल करने की या वाद लेने की चिज नहीं है । फिर आप पूछोगे की मैं एसा क्यूँ कर रहा हूँ ? तो इसका उत्तर है की इश्वर के प्रति मेरे प्रेम के कारण मुझसे एसा हो जाता है । एसा करने का मुझे कोई शौख नहीं है । मेरी जीवनयात्रा को शुरु-से पढनेवाले वाचकों को ये पता होगा ।
बचपन में जब कोई भूल हो जाती थी तो अनाथाश्रम के संचालक हमें सब्जी या भात नहीं देने की सजा करते थे । ये हमें कितनी भारी लगती थी, ये अब-भी मुझे याद है । हालाकि मुझे एसी सजा शायद एक-दो बार मिली होगी । सब्जी या चावल के बिना खाने का मजा नहीं आता था । फिर भी बहुत सारे विद्यार्थीओं को एसी विविध सजा मिलती थी । वक्त पर नहीं उठने पर दूध नहीं मिलता था, प्रार्थना या व्यायाम में गैरहाजिर रहने पर सब्जी या दाल नहीं मिलती थी । कभीकभी गृहपति का मिजाज ठीक नहीं होता या किसी विद्यार्थी ने बडी शरारत की हो, तो एक टंक भोजन नहीं मिलता था ।
मैं मानता हूँ की बच्चों को एसी सजा नहीं देनी चाहिये । साथ में, गृहपति के स्थान पर एसा व्यक्ति नियुक्त करना चाहिये जो बच्चों से प्यार करता हो, बच्चों के मन की बात समजता हो, और उनके सुधार के लिये प्रयत्न करता हो । वैचारिक जागृति के इस युग में भी बच्चों की हालत में कोई खास परिवर्तन नहीं आया है । बीस-पचीस साल पहले लोग मानते थे की 'सोटी वागे चम चम, विद्या आवे धम धम' अर्थात् बच्चों को मारने से वो जल्दी सिखते है । मगर वो ये भूल जाते थे की एसा करने से बच्चों के नाजुक तन पर सोटीयों के निशान रह जाते थे, और शिक्षा करनेवाले व्यक्ति के प्रति उनके मन में कटुता और प्रतिशोध की भावना पैदा होती थी । चिमटा भरने-से या सोटी का मार पडने से बच्चे तिलमिला उठते थे । शिक्षण तथा बच्चों के सुधार की एसी पाशवी प्रथा का फौरन अन्त होना चाहिये ।
दंड करने से बच्चे काबू में रहते है एसा माननेवाले गृहपति से मिली सजा हमें बहुत भारी लगती थी । वैसे तो हमें हररोज दालरोटी मिलती थी मगर शिवरात्री या जनमाष्टमी जैसे त्यौहार पर फल, दूध, खजूर, इत्यादि दिया जाता था । इसकी लालच में बच्चे यकायक धार्मिक हो जाते थे और फलाहार करना पसंद करते थे । मगर जब फलाहार मिलने में देरी होती थी तो पेट में चूहे दौडने लगते थे । उसकी याद अब भी जहन में है । मेरा मानना है की बच्चों को किसी भी कारणवश भोजन के पदार्थ का दंड नहीं करना चाहिये । जो एसा करता है वो अक्षम्य अपराध करता है । इस संसार व्यक्ति को खाने से वंचित रखना सबसे बडी सजा है । भारतीय ऋषिओं ने अन्नदान का महिमा गाया है वो बिना वजह नहीं है ।
इतना सारा विवरण करने के पीछे मेरा मकसद सिर्फ इतना है की बचपन में मैंने यह कतई नहीं सोचा था की आगे चलकर मैं अपनी खुशीखुशी कई दिनों तक भूखा रहूँगा, व्रत-उपवास करूँगा ।
मेरे कहने का कोई ये मतलब न निकाले की मैं अपनी इच्छा से उपवास रखता हूँ । साधना के लिये उपवास करने की आज्ञा मुझे इश्वरीय प्रेरणा से मिलती है । मैं सिर्फ उसका पालन करता हूँ या यूँ कहो की इश्वर की इच्छा में अपनी इच्छा मिला देता हूँ । कभीकभी एसा भी होता है की मेरी मरजी उपवास करने की हो मगर इश्वर का आदेश नहीं मिलता । तब मेरे मन में ये प्रश्न कभी नहीं उठता की इश्वर की इच्छा के पीछे क्या कारण होगा ? मैं मानता हूँ की इश्वर की इच्छा हमेशा मंगलकारी होती है । जैसे कोई सैनिक अपने कप्तान के हुक्म का अनादर नहीं करता वैसे ही इश्वर के चरणों में जिसने जीवन समर्पित किया है, वो उसकी प्रेरणा पर कभी शक नहीं करता । मेरे व्रत और अनशन के पीछे हठ करने का सवाल ही पैदा नहीं होता । मेरी आत्मकथा को भलीभाँति पढनेवाले वाचक इस बात से सहमत होंगे । हाँ, जिसने अपने विवेक की आँखे बन्द कर ली है, जिसका मस्तिष्क पूर्वग्रह से पीडित है, जिसमें खोखली विद्वता भरी है, उसके मन में वह संन्यासी महाराज की तरह प्रश्न उठ सकता है की ये हठ-योग है ? हालाकि हमे उनका शुक्रिया अदा करना चाहिये वरना इतनी घनिष्ठ चर्चा यहाँ पर नहीं होती । सृष्टि के समस्त जीवो में जो इश्वरीय चेतना है, वही उनमें है । इसलिये हम उन्हें प्रणाम करते है और हमें वैचारिक तथा मानसिक स्नान का लाभ देने के लिये धन्यवाद कहते है ।